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मुक्तेश्वर... चट्टानों, पानी, सूरज , हवा, मिट्टी और पहाड़ियों की जुगलबंदी...

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और सहसा मैं ठिठक गई... दुर्गम पथरीली चढ़ाई और सीधी ढलान पर बैठ-बैठ कर चढ़-उतर कर यहां तक पहुंचे पैरों की थकावट जाने कहां गुम हो गई.. सामने थी नक्काशीदार चट्टाने, कहीं उभरी, कहीं ढलकी और कहीं लम्बवत रूप लेती.. एक के ऊपर एक, सब आगे निकलने की चाह में.. और उन पर ऊपर से गिर रही थी पानी की कल-कल धार...  सुरम्य छोटी घाटी में चट्टानों के बीच गहरे हरे रंग से नीबुंए रंग की छटा  बिखेरते पानी का रूप और पारदर्शी तले से झांकते चिकने, गोल पत्थर... स्वर्ग का अहसास करा रहे थे...। मुझे याद हो आया योग निद्रा में जाने के बाद सबसे खूबसूरत जगह की सैर करना... कुछ ऐसी ही तस्वीर बना करती थी...। और, आज मानों मेरी स्वप्नों से साकार होकर वो जगह सामने उतर आई थी। पैरों से चप्पलों का बोझ हटाकर जब इस झरने के पानी को छुआ तो शीतलता कब तलवों से दिमाग तक पहुंच कर इसे ठंडक दे आईं, पता ही नहीं चला... मैं तो प्रकृति के इस सौंदर्य में मगन थी... भालगढ़ झरना पानी तेरे रूप अनेक.. बह जाए तो नदी, गिर जाए झरना, ठहर जाए तो शांत झील और हिलोरें ले तो समुद्र... पानी के इस झरनीय रूप का यह दर्शन मिला मुझे मिला भाल...