मुक्तेश्वर... चट्टानों, पानी, सूरज , हवा, मिट्टी और पहाड़ियों की जुगलबंदी...


और सहसा मैं ठिठक गई... दुर्गम पथरीली चढ़ाई और सीधी ढलान पर बैठ-बैठ कर चढ़-उतर कर यहां तक पहुंचे पैरों की थकावट जाने कहां गुम हो गई.. सामने थी नक्काशीदार चट्टाने, कहीं उभरी, कहीं ढलकी और कहीं लम्बवत रूप लेती.. एक के ऊपर एक, सब आगे निकलने की चाह में.. और उन पर ऊपर से गिर रही थी पानी की कल-कल धार...  सुरम्य छोटी घाटी में चट्टानों के बीच गहरे हरे रंग से नीबुंए रंग की छटा  बिखेरते पानी का रूप और पारदर्शी तले से झांकते चिकने, गोल पत्थर... स्वर्ग का अहसास करा रहे थे...। मुझे याद हो आया योग निद्रा में जाने के बाद सबसे खूबसूरत जगह की सैर करना... कुछ ऐसी ही तस्वीर बना करती थी...। और, आज मानों मेरी स्वप्नों से साकार होकर वो जगह सामने उतर आई थी। पैरों से चप्पलों का बोझ हटाकर जब इस झरने के पानी को छुआ तो शीतलता कब तलवों से दिमाग तक पहुंच कर इसे ठंडक दे आईं, पता ही नहीं चला... मैं तो प्रकृति के इस सौंदर्य में मगन थी...

भालगढ़ झरना

पानी तेरे रूप अनेक.. बह जाए तो नदी, गिर जाए झरना, ठहर जाए तो शांत झील और हिलोरें ले तो समुद्र...
पानी के इस झरनीय रूप का यह दर्शन मिला मुझे मिला भालगढ़ में।

वहीं भालगढ़ झरना जो नैनीताल से लगभग 60 किलोमीटर ऊपर मुक्तेश्वर पहुंचने के बाद देखने को मिलता है। अधिकतर पर्यटक बस मुक्तेश्वर महादेव मंदिर और चौथी जाली को अपनी घूमने की सूची में शामिल करते हैं...। लेकिन यहां आने के बाद अगर आपने भालगढ़ झरना नहीं घूमा तो आप प्रकृति के सौंदर्य को करीब से देखने का मौका गवां देंगे।

इसी जून की 3 तारीख को हम दिल्ली से लगभग 350 किमी की यात्रा लगभग 7 घंटे में तय करके हलद्वानी, काठगोदाम, नैनीताल, भीमताल और भुवाली होते हुए मुक्तेश्वर पहुंचे थे। शाम लगभग 5 बजे जब हम मुक्तेश्वर पहाड़ी पर बसे किसना ऑर्चर्ड रिज़ॉर्ट पहुंचे तो दिल्ली की भीषण गर्मी बहुत पीछे छूट चुकी थी। गाड़ी से उतरते ही सर्द हवा के झोंकों ने हमें मैदानी इलाकों के दिसंबर मौसम की याद दिला दी। हम सब अपनी अटैचियों में से गर्म कपड़े और शॉल निकाल ही रहे थे कि हमारे स्वागत के लिए लाल बुरास शर्बत पहुंच गया। किसना ऑर्चर्ड में आने वालों का स्वागत इसी बुरास शर्बत से किया जाता है। बुरास यहीं पहाड़ी में उगने वाला एक पौधा है जिसका शर्बत बेहद शीतल और तेज़ मिठास लिए होता है। बुरास शर्बत पीकर हम अपने कमरों की


और चले और यहीं कमरे की खिड़की से हमें सूर्यास्त के दर्शन हुए। बेहद खूबसूरत सूर्यास्त....। दिल्ली की ऊंची इमारतों और धूल भरे वातावरण के बीच सूर्योदय और सूर्यास्त का नज़ारा अगर कहीं से कभी दिखता भी है तो धुंधला दिखता है, लेकिन यहां हमारी आंखों और क्षितिज पर पहुंचे भास्कर के बीच थी केवल पारदर्शी, ठंडी हवा और मिट्टी की सौंधी महक..।

पहले दिन रिज़ॉर्ट में ही ब़ॉन फायर का मज़ा लेकर हम सोने चले गए। मैनेजर साहब हमें पहले ही आगाह कर चुके थे कि हम सुबह पांच बजे अपने कमरे की बालकनी से ही पहाड़ी सूर्योदय का नज़ारा ले सकते हैं, सो हम सब सुबह पांच बजे ही उठ गए थे।

बालकनी से सामने पूरब में धीरे-धीरे आगमन करते रविदेव का नज़ारा वाकई दर्शनीय था...,  मानों खुद हिमराज सूर्यदेव के रथ को धीरे-धीरे ठेलकर आकाश में पहुंचाने की चेष्टा कर रहे हों... दिवाकर की पहली मृदुल रश्मियां जब हम तक पहुंची तो मन प्रफुल्लित हो उठा। हम बुत बने प्रकृति की इस लीला का अवलोकन करते रहे। धीरे-धीरे सूरज ऊपर चढ़ा और हम भी तैयार होकर मुक्तेश्वर घूमने की तैयारी में लग गए। लगभग नौ बजे स्नानादि करके और नाश्ता ले चुकने के बाद हम अपने पहले पड़ाव मुक्तेश्वर महादेव मंदिर जाने के लिए निकल पड़े।

मुक्तेश्वर महादेव मंदिर
गाड़ी से यहां पहुंचने में लगभग 25 मिनट लगे। यूं तो यह ज्यादा दूर नहीं था लेकिन संकरी पहाड़ी सड़क, अंधे मोड़ और दोनों तरफ से आते वाहनों के कारण हमें इतना समय लग गया था। मुक्तेश्वर महादेव के बगल से ही एक रास्ता यहां के दूसरे दर्शनीय स्थल चौथी जाली के लिए कटता है, लेकिन हम उस रास्ते से नहीं गए। हम पहले मुक्तेश्वर महादेव मंदिर पहुंचे। लगभग आधा किलोमीटर ऊंची चढ़ाई चढ़ने और 30 सीढ़ियां पार करने के बाद हमारे सामने मुक्तेश्वर महादेव मंदिर था। मंदिर के मुहाने पर लकड़ी की चौकोर मेहराब बनी थी और उस से बंधी थी बहुत सी घंटियां। यह दृश्य इतना सादा और सौम्य है कि भक्ति अपने आप ही मन में समाने लगती है। मुक्तेश्वर महादेव मंदिर की सादगी ही उसका सबसे बड़ा आकर्षण हैं। यहां और नामी पहाड़ी मंदिरों जैसी भीड़भाड़, दिखावा और साज सज्जा का पूरी तरह अभाव है... कुछ हैं तो बस अनअलंकृत  मंदिर और सहज आराधना की खुशी....।

 ऊपर चोटी पर बने मंदिर के दरवाज़े पर भी असंख्य घंटियां बंधी हैं। प्रत्येक श्रद्धालु जब इन घंटों को बजाता है तो आवाज़ पूरी घाटी में गूंजती सी लगती है। यहां मदिंर से घाटी का सुंदर नज़ारा भी होता है।

मंदिर के दर्शन करके प्रशाद लेने के बाद हम पीछे के रास्ते से ही जंगल होते हुए चौथी जाली के लिए निकल पड़े।दोनों तरफ ऊंचे लंबे पेड़ों के बीच जाती पगडंडी से होकर निकलना प्रकृति के और करीब पहुंचने का अहसास दिला रहा था। हवा इतनी शीतल थी कि रोम-रोम से ऊष्णता का अंतिम कण तक निकल गया। यहां भी लगभग आधा किलोमीटर चलने के बाद हम चौथी जाली पहुंचे।

चौथी जाली

चौथी जाली दरअसल चट्टान के मुहाने पर बना एक बड़ा छेद है। कहते हैं कि जो इस छेद से होकर गुज़रता है, चौथ माता उसकी हर मनोकामना पूरी करती है। हांलाकि यहां तक पहुंचना बिल्कुल आसान नहीं, रास्ता दुर्गम है और खतरनाक भी लेकिन फिर भी इच्छा पूर्ति की कामना और विश्वास को साथ लेकर लोग यहां तक आते हैं और पहाड़ के मुहाने पर बने इस छिद्र से गुज़रकर चौथ माता से आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।

यहीं पास में एडवेंचर स्पोर्ट्स भी कराए जाते हैं। रोप वे पर लटककर पहाड़ी पार करना उनमें से एक है। अगर आपको ऊंचाई से डर नहीं लगता, या अगर लगता भी है, तो भी इस स्पोर्ट को ज़रूर करें। पूरे सुरक्षा मानकों के साथ कराए जाने वाले इस खेल में जब आप रस्सी पर लटककर घाटी के बीचों-बींच पहुंचते हैं तो हवा में लटककर नीचे अंतहीन फैली सुरसा घाटी का जो नज़ारा होता है उसका शब्दों में वर्णन संभव ही नहीं है। आप अगर यह नहीं करते तो यकीन मानिए एक बेहतरीन अनुभव पाने का मौका गंवा देंगे। हम तो इस अनुभव को बड़े जतन से बांधकर ले आए हैं।


 यहीं वो पड़ाव था जहां से गुज़रने के बाद शायद हमारी भी मुक्तेश्वर यात्रा पूर्ण हो चुकी थी, लेकिन भला हो उस स्थानीय गरड़िये का जिसने हमें भालगढ़ झरने के बारे में बताया और हम वहां गए और एक अनुभव और लिया... चट्टानों, पानी, हवा और सूरज की किरणों की जुगलबंदी का अद्भुत यादगार अनुभव....।


शाम लगभग पांच बजे तक हमारी मुक्तेश्वर यात्रा पूरी हो चुकी थी। हम वापस रिज़ोर्ट पहुंच चुके थे।
केवल एक या दो दिन की योजना बनाकर आप भी यहां आ सकते हैं और यहां कदम-कदम पर प्रकृति से साक्षात्कार का मौका पा सकते हैं। यहां कोई बाज़ार नहीं जहां रुककर आप अपने खरीददारी की इच्छा को पूरी कर सकें, और ना ही कहीं भी दिखावट की ज़रा सी भी झलक...... मुक्तेश्वर में अगर कुछ है तो बस प्रकृति से समीपता... बेहद समीपता का अहसास और सादगी से भरी मनमोहक सुन्दरता...










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