एक बलिदान चेतक का, एक बलिदान झाला का और एक बलिदान महाराणा का.............! "जब याद करूं हल्दीघाटी, नैणां में रगत उतर आवैं, सुख-दुख रो साथी चेतकड़ो, सूती सी हूक जगा जावैं"
बचपन से इस वीरभोग्या वसुन्धरा के कई किस्से पढ़े, सुने, देखे, जाने। यू पी बोर्ड की पांचवी कक्षा में पढ़ाई जाने वाली "ज्ञान भारती" से दसवीं कक्षा की "गद्य गरिमा" तक राजाओं और राणाओं की हिम्मत और वीरता की कहानियां और कविताए पढ़ी। राजपूती वीरांगनाओ और ललनाओं के अदम्य साहस और बलिदान के पाठ पढ़े... । लेकिन सारी वीर रस में पगी कविताएं और किस्से मिलकर भी आत्मगौरव और देश प्रेम की वो अनुभूति नहीं दे सके जो राजस्थान की अरावली पर्वत श्रंखला में बसी हल्दीघाटी की एक झलक ने दे दी।
वो हल्दीघाटी जिसकी मिट्टी का रंग हल्दी की तरह पीला है, वो हल्दीघाटी जिससे होकर महाराणा प्रताप के रणबांकुरों की सेना ने अकबर की विशाल सेना के छक्के छुड़ाए थे और वो हल्दीघाटी जहां की पथरीली भूमि पर चेतक ने अपनी स्वामिभक्ति की मिसाल कायम की थी।
माउंट आबू की तरफ से उदयपुर जाते हुए लगभग 15 किलोमीटर पहले हल्दीघाटी जाने के लिए एक रास्ता कटता है जो गोकुंडा और कुम्भलगढ़ से होते हुए आगे नाथद्वारा तक जाता है। यहीं बीच में रास्ते में पड़ती है हल्दीघाटी, जहां 18 जून सन् 1576 में मेवाड़ के तत्कालीन राजा महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के बीच जबरदस्त युद्ध हुआ था।
हल्दीघाटी का कण-कण प्रताप की सेना के शौर्य, पराक्रम और बलिदानों की कहानी कहता है। यहां स्थित म्यूज़ियम में हल्दीघाटी युद्ध का सजीव वर्णन किया जाता है, जहां रण भूमि की कसौटी पर राजपूतों के कर्तव्य और वीरता के जज़्बे की परख हुई थी और जिसमें कुंदन की भांति तप कर निकला राजपूतों और भीलों का देश प्रेम, अमर सिंह का भातृ प्रेम, झाला मान का बलिदान, चेतक की स्वामीभक्ति, महाराणा का कभी ना मरने वाला स्वराज पाने का सपना और हज़ारों राजपूत वीरों का अद्भुत पराक्रम। इस लड़ाई में ना अकबर जीता और ना राणा हारे। हज़ारों वीरों के खून में नहाकर यहां की मिट्टी पावन हो गई और हल्दीघाटी का नाम इतिहास में अमर हो गया।
हल्दीघाटी में आकर ही यहां के इतिहास के बारे में जाना और महसूस किया जा सकता है और गौरवान्वित हुआ जा सकता है। यहां हमने जो सुना उसके अनुसार मेवाड़ के राजा, राणा उदय सिंह और महारानी जयवन्ता बाई के पुत्र महाराणा प्रताप सिसोदिया वंश के अकेले ऐसे राजपूत राजा थे जिन्होंने बेहद शक्तिशाली मुगल सम्राट अकबर की आधीनता अस्वीकार करने का साहस दिखाया था और जो जब तक जीवित रहे अकबर को चैन से नहीं रहने दिया।
राणा प्रताप का जन्म तो कुम्भलगढ़ के किले में हुआ था लेकिन उनका बचपन चित्तौड़ में बीता। बचपन से निडर, साहसी और भाला चलाने में निपुण महाराणा प्रताप ने एक बार तो जंगल में शेर से भी लड़ाई की थी और उसे मार गिराया था। अपनी मातृभूमि मेवाड़ को अकबर के हाथों जाने से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने एक बेहद सशक्त सेना तैयार की थी जिसमें अधिकतर भील लड़ाके थे। यह गुरिल्ला पद्धति यानि छापामार लड़ाई में निपुण थे।
अकबर की सेना में लड़ाके ज्यादा थे, तोपें थी और हाथियों की भी अधिकता भी थी जबकि महाराणा प्रताप की सेना संख्या में कम थी और उनके पास अश्वों की संख्या ज्य़ादा थी। अकबर की सेना गोकुंडा तक पहुंचने की तैयारी में थी। हल्दीघाटी के पास ही खुले में उसने अपने खेमे लगाए थे। और तब महाराणा प्रताप की सेना ने गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करके अकबर की सेना में भगदड़ मचा दी। अकबर की विशाल सेना बौखलाकर लगभग पांच किलोमीटर पीछे हट गई। जहां खुले मैदान में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच पांच घंटे तक जबरदस्त युद्ध हुआ।
इस युद्ध में लगभग 18 हज़ार सैनिक मारे गए। इतना रक्त बहा कि इस जगह का नाम ही रक्त तलाई पड़ गया। महाराणा प्रताप के खिलाफ इस युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व सेनापति मानसिंह कर रहे थे। जो हाथी पर सवार थे। महाराणा अपने वीर घोड़े चेतक पर सवार होकर रणभूमि में आए थे जो बिजली की तरह दौड़ता था और पल भर में एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाता था।
"रण बीच चौकड़ी भर-भर चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा को पाला था,
जो बाग हवा से ज़रा हिली लेकर सवार उड़ जाता था,
राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था"
मुगल सेना में हाथियों की संख्या ज़्यादा होने के कारण चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा बांधा गया था ताकि हाथियों को भरमाया जा सके। कहा जाता है कि चेतक पर सवार महाराणा प्रताप एक के बाद एक दुश्मनों का सफाया करते हुए सेनापति मानसिंह के हाथी के सामने पहुंच गए थे। उस हाथी की सूंड़ में तलवार बंधी थी। महाराणा ने चेतक को एड़ लगाई और वो सीधा मानसिंह के हाथी के मस्तक पर चढ़ गया। लेकिन मानसिंह हौदे में छिप गया और राणा के वार से महावत मारा गया। हाथी से उतरते समय चेतक का एक पैर हाथी की सूंड़ में बंधी तलवार से कट गया।
इधर राणा को दुश्मनों से घिरता देख सादड़ी सरदार झाला माना सिंह उन तक पहुंच गए और उन्होंने राणा की पगड़ी और छत्र जबरन धारण कर लिया।
"राणा की जय, राणा की जय, वह आगे बढ़ता चला गया,
राणा प्रताप की जय करता राणा तक बढ़ता चला गया,
रख लिया छत्र अपने सर पर राणा प्रताप मस्तक से ले,
के सवर्ण पताका जूझ पड़ा रण भीम कला अतंक से ले,
झाला को राणा जान मुगल फिर टूट पड़े थे झाला पर,
मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर"
उन्होंने महाराणा से कहा कि - "एक झाला के मरने से कुछ नहीं होगा लेकिन अगर आप बच गए तो कई और झाला तैयार हो जाएंगे।" राणा का छत्र और पगड़ी पहने झाला को ही राणा समझकर मुगल सेना उनसे भिड़ गई और महाराणा प्रताप बच कर निकल गए। झाला मान वीरगति को प्राप्त हुए लेकिन उनकी वजह से महाराणा ज़िदा रहे।
अब स्वामीभक्त चेतक की बारी थी जो अपना एक पैर कटा होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। राणा को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के बाद ही चेतक ने अपने प्राण छोड़े। इतिहास में चेतक जैसी स्वामीभक्ति की मिसाल और कहीं देखने को नहीं मिलती। जहां चेतक ने प्राण छोड़े वहां राणा की बनवाई चेतक समाधि मौजूद है।
इस युद्ध में विजय भले ही अकबर को मिली लेकिन इतिहास में नाम अमर हुआ महाराणा प्रताप की वीरता, चेतक की स्वामीभक्ति और झालामान के बलिदान का।
युद्ध में अपने इतने प्रियजनों, मित्रो, सैनिको और घोड़े चेतक को खोने के बाद महाराणा प्रताप ने प्रण किया था कि वो जब तक मेवाड़ वापस प्राप्त नहीं कर लेते घास की रोटी खाएंगे और ज़मीन पर सोएंगे। जीवन पर्यन्त उन्होंने अपना यह प्रण निभाया और अकबर की सेना से युद्ध करते रहे। उनके जीते जी अकबर कभी चैन से नहीं रह पाया और मेवाड़ को अपने आधीन नहीं कर सका। 59 वर्ष की उम्र में महाराणा ने चावंड में अपनी अंतिम सांस ली और तब जाकर अकबर की सांस में सांस आईं। मेवाड़ में आज भी कहा जाता है कि पुत्र हो तो महाराणा प्रताप जैसा।
हल्टीघाटी की पावन भूमि उस जंगली बूटी की तरह है जो रग-रग में वीरता और गौरव का अहसास भर देती है। अगर मौका लगे तो आप भी देशप्रेम और कर्तव्य की इस बलिवेदी पर सजदा करके अवश्य आएं।
कहते हैं रणबांकुरों के खून से तिलक होने के बाद हल्दीघाटी की मिट्टी चंदन बन गई |
वो हल्दीघाटी जिसकी मिट्टी का रंग हल्दी की तरह पीला है, वो हल्दीघाटी जिससे होकर महाराणा प्रताप के रणबांकुरों की सेना ने अकबर की विशाल सेना के छक्के छुड़ाए थे और वो हल्दीघाटी जहां की पथरीली भूमि पर चेतक ने अपनी स्वामिभक्ति की मिसाल कायम की थी।
माउंट आबू की तरफ से उदयपुर जाते हुए लगभग 15 किलोमीटर पहले हल्दीघाटी जाने के लिए एक रास्ता कटता है जो गोकुंडा और कुम्भलगढ़ से होते हुए आगे नाथद्वारा तक जाता है। यहीं बीच में रास्ते में पड़ती है हल्दीघाटी, जहां 18 जून सन् 1576 में मेवाड़ के तत्कालीन राजा महाराणा प्रताप और मुगल सम्राट अकबर के बीच जबरदस्त युद्ध हुआ था।
हल्दीघाटी का कण-कण प्रताप की सेना के शौर्य, पराक्रम और बलिदानों की कहानी कहता है। यहां स्थित म्यूज़ियम में हल्दीघाटी युद्ध का सजीव वर्णन किया जाता है, जहां रण भूमि की कसौटी पर राजपूतों के कर्तव्य और वीरता के जज़्बे की परख हुई थी और जिसमें कुंदन की भांति तप कर निकला राजपूतों और भीलों का देश प्रेम, अमर सिंह का भातृ प्रेम, झाला मान का बलिदान, चेतक की स्वामीभक्ति, महाराणा का कभी ना मरने वाला स्वराज पाने का सपना और हज़ारों राजपूत वीरों का अद्भुत पराक्रम। इस लड़ाई में ना अकबर जीता और ना राणा हारे। हज़ारों वीरों के खून में नहाकर यहां की मिट्टी पावन हो गई और हल्दीघाटी का नाम इतिहास में अमर हो गया।
हल्दीघाटी स्थित महाराणा प्रताप का संग्रहालय |
राणा प्रताप का जन्म तो कुम्भलगढ़ के किले में हुआ था लेकिन उनका बचपन चित्तौड़ में बीता। बचपन से निडर, साहसी और भाला चलाने में निपुण महाराणा प्रताप ने एक बार तो जंगल में शेर से भी लड़ाई की थी और उसे मार गिराया था। अपनी मातृभूमि मेवाड़ को अकबर के हाथों जाने से बचाने के लिए महाराणा प्रताप ने एक बेहद सशक्त सेना तैयार की थी जिसमें अधिकतर भील लड़ाके थे। यह गुरिल्ला पद्धति यानि छापामार लड़ाई में निपुण थे।
अकबर की सेना में लड़ाके ज्यादा थे, तोपें थी और हाथियों की भी अधिकता भी थी जबकि महाराणा प्रताप की सेना संख्या में कम थी और उनके पास अश्वों की संख्या ज्य़ादा थी। अकबर की सेना गोकुंडा तक पहुंचने की तैयारी में थी। हल्दीघाटी के पास ही खुले में उसने अपने खेमे लगाए थे। और तब महाराणा प्रताप की सेना ने गुरिल्ला पद्धति से युद्ध करके अकबर की सेना में भगदड़ मचा दी। अकबर की विशाल सेना बौखलाकर लगभग पांच किलोमीटर पीछे हट गई। जहां खुले मैदान में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच पांच घंटे तक जबरदस्त युद्ध हुआ।
इस युद्ध में लगभग 18 हज़ार सैनिक मारे गए। इतना रक्त बहा कि इस जगह का नाम ही रक्त तलाई पड़ गया। महाराणा प्रताप के खिलाफ इस युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व सेनापति मानसिंह कर रहे थे। जो हाथी पर सवार थे। महाराणा अपने वीर घोड़े चेतक पर सवार होकर रणभूमि में आए थे जो बिजली की तरह दौड़ता था और पल भर में एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाता था।
य़ूं चेतक ने मानसिंह के हाथी के मस्तक पर चढ़ाई कर दी थी |
"रण बीच चौकड़ी भर-भर चेतक बन गया निराला था,
राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा को पाला था,
जो बाग हवा से ज़रा हिली लेकर सवार उड़ जाता था,
राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था"
मुगल सेना में हाथियों की संख्या ज़्यादा होने के कारण चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा बांधा गया था ताकि हाथियों को भरमाया जा सके। कहा जाता है कि चेतक पर सवार महाराणा प्रताप एक के बाद एक दुश्मनों का सफाया करते हुए सेनापति मानसिंह के हाथी के सामने पहुंच गए थे। उस हाथी की सूंड़ में तलवार बंधी थी। महाराणा ने चेतक को एड़ लगाई और वो सीधा मानसिंह के हाथी के मस्तक पर चढ़ गया। लेकिन मानसिंह हौदे में छिप गया और राणा के वार से महावत मारा गया। हाथी से उतरते समय चेतक का एक पैर हाथी की सूंड़ में बंधी तलवार से कट गया।
इधर राणा को दुश्मनों से घिरता देख सादड़ी सरदार झाला माना सिंह उन तक पहुंच गए और उन्होंने राणा की पगड़ी और छत्र जबरन धारण कर लिया।
रक्त तलाई स्थित झाला मान सिंह का स्मारक |
राणा प्रताप की जय करता राणा तक बढ़ता चला गया,
रख लिया छत्र अपने सर पर राणा प्रताप मस्तक से ले,
के सवर्ण पताका जूझ पड़ा रण भीम कला अतंक से ले,
झाला को राणा जान मुगल फिर टूट पड़े थे झाला पर,
मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर"
उन्होंने महाराणा से कहा कि - "एक झाला के मरने से कुछ नहीं होगा लेकिन अगर आप बच गए तो कई और झाला तैयार हो जाएंगे।" राणा का छत्र और पगड़ी पहने झाला को ही राणा समझकर मुगल सेना उनसे भिड़ गई और महाराणा प्रताप बच कर निकल गए। झाला मान वीरगति को प्राप्त हुए लेकिन उनकी वजह से महाराणा ज़िदा रहे।
अब स्वामीभक्त चेतक की बारी थी जो अपना एक पैर कटा होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। राणा को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के बाद ही चेतक ने अपने प्राण छोड़े। इतिहास में चेतक जैसी स्वामीभक्ति की मिसाल और कहीं देखने को नहीं मिलती। जहां चेतक ने प्राण छोड़े वहां राणा की बनवाई चेतक समाधि मौजूद है।
इस युद्ध में विजय भले ही अकबर को मिली लेकिन इतिहास में नाम अमर हुआ महाराणा प्रताप की वीरता, चेतक की स्वामीभक्ति और झालामान के बलिदान का।
युद्ध में अपने इतने प्रियजनों, मित्रो, सैनिको और घोड़े चेतक को खोने के बाद महाराणा प्रताप ने प्रण किया था कि वो जब तक मेवाड़ वापस प्राप्त नहीं कर लेते घास की रोटी खाएंगे और ज़मीन पर सोएंगे। जीवन पर्यन्त उन्होंने अपना यह प्रण निभाया और अकबर की सेना से युद्ध करते रहे। उनके जीते जी अकबर कभी चैन से नहीं रह पाया और मेवाड़ को अपने आधीन नहीं कर सका। 59 वर्ष की उम्र में महाराणा ने चावंड में अपनी अंतिम सांस ली और तब जाकर अकबर की सांस में सांस आईं। मेवाड़ में आज भी कहा जाता है कि पुत्र हो तो महाराणा प्रताप जैसा।
हल्टीघाटी की पावन भूमि उस जंगली बूटी की तरह है जो रग-रग में वीरता और गौरव का अहसास भर देती है। अगर मौका लगे तो आप भी देशप्रेम और कर्तव्य की इस बलिवेदी पर सजदा करके अवश्य आएं।
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