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Showing posts from August, 2014

ऐसा होता है गर्ल्स होस्टल का संडे

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भोपाल गर्ल्स होस्टल भोपाल। आज ना बाथरूम के बाहर लम्बी लाइन लगी है और ना मैस के बाहर भीड़.., किसी को ना तो नहाने की जल्दी है और ना ही पानी चले जाने का डर। सब जगह सन्नाटा छाया हुआ है। मैस में रोज़ाना सुबह 6 बजे ही गैस चढ़ा दी जाने वाली चाय की केतली आज नौ बजे भी एक तरफ पड़ी हुई है। माहौल में रोज की तरह शोर-शराबा नहीं है, बल्कि खामोशी बिखरी हुई है.. क्योंकि आज छुट्टी का दिन है.. जी हां, टुडे इज़ सन्डे। यह है गर्ल्स होस्टल का सन्डे.., कुछ विशेष, कुछ अलग..। नौ बज रहे हैं लेकिन कोई भी सोकर नहीं उठा है,..और फिर अचानक रूम नंबर नाइन से आवाज़ सुनाई देती है.. "ऊssss (उबासी), घड़ी कहां हैं मेरी?  ओह, नौ बज गए.. ऐश उठ, यार ऐश, ऐ...श , उठ ना..नौ बज रहे हैं, कपड़े नहीं धोने हैं तुझे?" और ऐश थोड़ा सा नानुकर करने के बाद उठती है, कुछ अलसाई सी, सोई सी...। ऐश से रितु, फिर जया, फिर नेहा, फिर वंदना.. तक सभी धीरे-धीरे नींद की दुनिया से बाहर निकलने लगते हैं। धी-धीरे हलचल बढ़ रही है। हर कमरे में कुछ जीवंतता आती दिख रही है। साढ़े नौ बजने को हैं और अब कहीं जाकर पूरे होस्टल के लोग जागे हैं। जी...

सड़कों पर कान्हा की झांकी बनाकर खूब पैसा कमाते हैं बच्चे...

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    गूगल फोटो वो ज़माने और थे जब हम कृष्ण जन्माष्टमी के दिन मिट्टी के खिलौनों, रेता, लकड़ी के बुरादे और कागज़ का इस्तमाल करके घर घर में झांकिया बनाया करते थे। पहले इसे हिंडोला सजाना भी कहा जाता था, क्योंकि झांकी के बीचो-बीच एक छोटी सी लकड़ी या मिट्टी की पालकी में लड्डू गोपाल जी को खीरे में रखा जाता था और तमाम के तमाम लोग जो झांकी देखने आते थे उस झूले को झुलाते थे। तब झांकी की तैयारियां महीनों पहले की जाती थी। बाज़ार से मिट्टी के खिलौने जैसे गुजरिया, सिपाही, टैंक, बाराती, गाय, घोड़ा, हाथी, मोर से लेकर हनुमान जी, सरस्वती जी, माखनचोर आदि खरीदे जाते थे। झांकी में एक जगह मंदिर बनता था, तो एक जगह चिड़ियाघर... कहीं सड़क होती थी और कहीं हवाई अड्डा.. कहीं गांव तो कहीं शहर..थाली या टबों में पानी भर कर स्टीमर भी तैराया जाता था.. तब कमरों में जन्माष्टमी के दिन पूरा शहर बसाया जाता था। नंदलाल के जन्मोत्सव की खुशी में.. पूरी कॉलोनी या गली मोहल्लों के परिवार बारी बारी से सब घरों में झांकियां देखने जाते थे और इन्हें लगाने वाले अपनी झांकी की तारीफ सुनकर फूले नहीं समाते थे। गूगल फोटो ...

पचास साल तक लोहे की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद मिली आज़ादी....राजू हाथी की आत्मकथा

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प्रस्तावना (प्रोलॉग) मैंने तो कभी जाना ही नहीं कि हाथी होना क्या है। पचास साल तक लोहे की कंटीली बेड़ियों में बंधा रहा। 27 बार बेचा और खरीदा गया। हर बार एक नया महावत.. हर बार नए मालिक द्वारा स्वामित्व दिखाने और अनुशासन सिखाने के घंटो मारना..., महावत भीख के लिए पूरे दिन सड़कों पर घुमाता था.. चिलचिलाती धूप हो, कड़ी सर्दी हो या बारिश, मैं हर समय खुले आकाश के नीचे रहा.. खाने को मिला कागज़ और प्लास्टिक,  भूख या दर्द से कराहने पर मिली बेडि़यों और नुकीले अंकुश की मार... और डॉक्टर येदुराज कहते हैं कि मेरा मानवीयता से भरोसा उठ गया है... जब पचास साल बाद राजू की आजादी की घड़ी आई तो उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े आप लोग मेरे विशालकाय शरीर को और साढ़े पांच टन वज़न को देखकर सोचते होंगे कि मैं बहुत बलशाली हूं, मुझे दर्द नहीं होता..., लेकिन मेरे दर्द की कहानी सुनकर आप भी सिहर उठेंगे। आज मैं आज़ाद हूं और आपको अपनी कहानी सुना पाने की हालत में हूं। मेरी इस कहानी के दो ही चैप्टर्स हैं। एक मेरे पहले पचास साल जब बेड़ियों में रहना ही मेरी जिंदगी थी और एक आज का दौर जब मैं धीरे-धीरे जान रहा हूं ...