ऐसा होता है गर्ल्स होस्टल का संडे
भोपाल गर्ल्स होस्टल |
भोपाल। आज ना बाथरूम के बाहर लम्बी लाइन लगी है और ना मैस के बाहर भीड़.., किसी को ना तो नहाने की जल्दी है और ना ही पानी चले जाने का डर। सब जगह सन्नाटा छाया हुआ है। मैस में रोज़ाना सुबह 6 बजे ही गैस चढ़ा दी जाने वाली चाय की केतली आज नौ बजे भी एक तरफ पड़ी हुई है। माहौल में रोज की तरह शोर-शराबा नहीं है, बल्कि खामोशी बिखरी हुई है.. क्योंकि आज छुट्टी का दिन है.. जी हां, टुडे इज़ सन्डे।
यह है गर्ल्स होस्टल का सन्डे.., कुछ विशेष, कुछ अलग..। नौ बज रहे हैं लेकिन कोई भी सोकर नहीं उठा है,..और फिर अचानक रूम नंबर नाइन से आवाज़ सुनाई देती है..
"ऊssss (उबासी), घड़ी कहां हैं मेरी? ओह, नौ बज गए.. ऐश उठ, यार ऐश, ऐ...श , उठ ना..नौ बज रहे हैं, कपड़े नहीं धोने हैं तुझे?"
और ऐश थोड़ा सा नानुकर करने के बाद उठती है, कुछ अलसाई सी, सोई सी...। ऐश से रितु, फिर जया, फिर नेहा, फिर वंदना.. तक सभी धीरे-धीरे नींद की दुनिया से बाहर निकलने लगते हैं। धी-धीरे हलचल बढ़ रही है। हर कमरे में कुछ जीवंतता आती दिख रही है। साढ़े नौ बजने को हैं और अब कहीं जाकर पूरे होस्टल के लोग जागे हैं।
जी हां, लगभग इसी समय शुरू होता है हर सन्डे.., गर्ल्स होस्टल का संडे।
दिन चढ़ने के साथ- साथ माहौल में तेज़ी आ रही है। बहुत सारे काम निपटाने को हैं, और देखते ही देखते हर तरफ से आवाज़े आनी शुरू..
"यार मीता, मेरे मेहंदी लगा दे ना.., यार मुझे सिर धोना है, पहले मुझे नहाने दे..., भैया चाय बन गई क्या..., टीवी पर देखो ना क्या आ रहा है.., यार जब भी जाले साफ करने की सोचो यह झाड़ू कहां चली जाती है..., मेरे कपड़े बहुत ज्यादा है, पहले मैं धो लूं...., ".. जैसे स्वर हर तरफ से गूंजने लगते हैं। आज के दिन फोन की घंटी भी पूरे दिन बजती है.. यह देखो फिर बजी... "नेहा तुम्हारा फोन"....
और कुछ ही देर में पूरे होस्टल का नज़ारा बदल जाता है। सीमा, माधवी के सिर पर मेहंदी लगा रही है तो मिताली झाड़ू लगाने में व्यस्त है और सोफिया को तो भई सबसे पहले अखबार पढ़ना है।
पूरे होस्टल में कहीं किसी कमरे में इंग्लिश गाने चल रहे हैं, कहीं नए हिंदी फिल्मी गाने तो कहीं जगजीत सिंह की गज़लें.. और म्यूजिक की तानों पर थिरकते हुए हर कमरे के बाथरूम में कपड़े धोए जा रहे हैं। हां जी, पूरे हफ्ते व्यस्त रहने वाले होस्टलर्स रविवार के दिन ही कपड़े धोते हैं और वो भी म्यूजि़क सुनते हुए। काम के बीच में ही चाय-नाश्ता वगैरह भी निपटा लिया जाता है। इस सारे शोर-शराबे के बीच सुबह की खामोशी कहीं खो गई सी लगती है।
अब एक बजने को है और होस्टल की छत धोबीघाट नज़र आने लगी है। सभी नहा-धो चुके हैं। सबके कपड़े भी धुल चुके हैं। और अब आई खाने की बारी...।
गूगल फोटो |
खाना खाने के बाद लगभग दो ढाई बजे से फिर से होस्टल में खामोशी छानी शुरू हो जाती है, क्योंकि अब सोने का समय है। सुबह से ही ढेर सारा काम करके सब थक चुके हैं और फिर केवल सन्डे को ही तो दिन में सोने का मौका मिलता है तो सोना ज़रूरी है।
कुछ लोग ऐसे हैं जो शॉपिंग करने, मूवी देखने या फिर आउटिंग पर निकल जाते हैं। कुछ को अपने लोकल गार्जियन के यहां भी जाना होता है, और जो कहीं नहीं जाते वो सो जाते हैं..और फिर सबके सोने के साथ ही फिर से चुप्पी और सन्नाटे का साम्राज्य छा जाता है, फोन आने भी बन्द..।
इस चुप्पी को तोड़ती है शाम पांच बजे की चाय की घंटी। फोन आने एक बार फिर शुरू हो जाते हैं और धीरे-धीरे सब कप हाथ में पकड़े मैस में आ जुटते हैं। चाय आराम से पी जाती है। इस दौरान ढेर सारी बातें, गपशप और गॉसिप का दौर भी चलता है.. और अब शुरू होती हैं होस्टल में मस्तियां।
हर कोई फ्रेश, चाय पीकर तैयार.. सब खुश और मस्त नज़र आने लगते हैं। इस वक्त या तो तेज़ म्यूजिक पर डांस पार्टी हो सकती है या फिर साथ बैठकर टीवी पर कोई मूवी देखी जा सकती है, या हो सकता है कि घूमने का प्लान बन जाए तो लेक पर भी जाया जा सकता है। सात साढ़े सात बजे तक लगभग सभी होस्टल लौट आते हैं और तब जमता है पार्टी का असली रंग... डांस का रंग और शोर-शराबे का रंग। किसी भी एक कमरे में सब इकट्ठे हो जाते हैं और चलता है तेज़ म्यूजिक और फिर डांस...
" पारुल आ ना.., चलो ना श्वेता डांस करते हैं,... अच्छा फिज़ां के गाने लगा दूं.., किसी और पे डांस करना है तो बोल.. " .. पूरे होस्टल में खुशनुमा माहौल छा जाता है।
गाने और डांस के माहौल के बीच एक बार फिर बजती है रात के खाने की घंटी, दिन की आखिरी घंटी...लगभग नौ, साढ़े नौ बजे और सब फिर दौड़ते हैं मैस की तरफ। उसके बाद डिनर का दौर.., उसके बाद मूड हुआ तो फिर टीवी, नहीं तो टैरेस पर घूमते हुए बातों का दौर और या फिर ... टाटा, बाय, बाय.. हम तो चले सोने..।
तो कुछ यूं बीतता है छुट्टी का दिन, गर्ल्स होस्टल में सन्डे का दिन.., और जैसे जैसे दिन खत्म हो रहा है, रात गहरा रही है, सन्नाटा फिर से छाने लगा है। खामोशी फिर बढ़ने लगी है, सुबह के इंतज़ार में...।
(मेरे द्वारा अपने होस्टल पर लिखा गया यह फीचर नवभारत, भोपाल में 2002 में प्रकाशित हुआ था। )
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