गुज़र गया 2014... 2015 को बस अभी लोहड़ी लगी है.. !
ज़रा याद करें एक साल पहले 31 दिसम्बर 2013 का दिन, जब हमेशा की तरह सभी को इंतज़ार था, नव वर्ष के आगमन का और एक पूरे साल की विदाई का... जैसे जैसे घड़ी की सुईयां रफ्तार पकड़ रही थीं, दिन बीत रहे थे, सभी की बैचेनी बढ़ती जा रही थी..., और फिर शुरू हुआ काउंटडाउन... 10, 9... 6..4..2..1... और फिर जैसे ही घड़ी की सुई ने 12 बजने का ऐलान किया, 2013 ने अलविदा कहा और समय के गर्भ से 2014 कूदता हुआ सबके बीच आ पहुंचा.. लाल, लाल, रूई के फाहे जैसे कोहरे में लिपटा, बिल्कुल एक नए नवजात शिशु की तरह... किलकारी मारता, पुलकित होता...।
चारों तरफ खुशियां मन रही थीं। कहीं मिठाईयां बंटी तो कहीं जबरदस्त डांस पार्टी चली, रेस्ट्रोन्ट फुल रहे, ऑर्डर लेते लेते सांस लेने की फुरसत नहीं थी। 2014 का स्वागत करने वालों में युवा वर्ग सबसे आगे था। जोश से भरा यह वर्ग पूरी आतुर था नए साल के स्वागत को। कहीं जाम छलक रहे थे तो कहीं डिस्को-डांस की मस्ती। कहीं पार्टियों की रौनक थी तो कहीं आतिशबाज़ी का धूम- धड़ाका... मस्ती.., मस्ती... और बस मस्ती...।
2014 भी अपने इन चाहने वालों को देखकर झूम उठा। सोच लिया कि ताउम्र इन युवाओं को खुश रखकर गुज़ारेगा और साथ ही इनकी एक-एक गतिविधि पर नज़र भी रखेगा। नए साल ने देखा, एक समूह की बातें चल रही थीं.. " यार मज़ा आ गया, फिर से एक और साल, अब सबकी बर्थडे फिर से आएगी, खूब सारी ट्रीट मिलेगी और फिर से नए त्यौहार आएंगे, एक और साल देख लिया हमने...इस बहाने मस्ती और पार्टी भी हो गई... गज़ब... याहूं...।
नया साल हंस पड़ा। तो इसलिए खुश हैं यह युवा..। कुछ ने तो इसके आगमन की खुशी में संकल्प भी ले डाले थे। एमएससी की सीमा ने पूरे साल पढ़ने का संकल्प लिया और बी कॉम की रागिनी ने रोज़ सुबह योगा करने की कसम खाई..., राहुल ने साल भर झूठ ना बोलने का संकल्प ले लिया और माधुरी जी ने अपने घरेलू नौकर को बात-बात पर नहीं डांटने का प्रण कर लिया था... 2014 चुपचाप सब सुन रहा था, देख रहा था और गुन भी रहा था।
शिशु अभी जनवरी में चल रहा था, पर तेज़ी से बढ़ रहा था। सारे लोग भी नए वर्ष के बचपन का आनंद रजाई और गद्दों में बैठ कर, मूंगफली और चिक्की खाकर उठा रहे थे। लोहड़ी पर अलाव जलाकर खूब नाच-गाना हुआ और मकर संक्रांति पर सूर्य महाराज के उत्तरायण होने के मौके पर खूब पतंगबाज़ी हुई और खोए-तिल के लड्डू खाए गए।
नव वर्ष को फरवरी लग गई... अब वो रजाई से निकलकर धीरे-धीरे पैरों चलने लगा था। खूब जल्दी बढ़ रहा था 2014 और उतनी ही जल्दी बढ़ रही थी लोगों की उमंगे। बासंती फरवरी में नववर्ष उनके लिए बासंती वैलेंटाइन डे जो ले आया था। उस दिन खूब उत्साह था खास यूथ वर्ग में। कॉलेजों में रिकॉर्ड उपस्थिति दर्ज की गई। दुकानों से गुलाबों के ढेर के ढेर खरीदे गए। शहर का कोठियों, फ्लैटों की बालकनियों और कॉलेजों के कॉरीडोर्स में लगे गुलाब के पौधों से रातों-रात गुलाब गायब हो गए। जी भर के प्यार बांटा गया... नववर्ष भी खुश था इन खुशियों को देखकर।
इधर मार्च में 2014 ने किशोरावस्था में कदम रखा और उधर आ गया फागुन का त्योहार। लोगों की एक और पसंद- होली की सौगात ले आया था नव वर्ष...
'ढम ढमा ढम ढम...', " ये भांग का रंग चढ़ा..., अरे देखो देखो, वो रंग से पुता..., यह तो गया भैया, पानी के टैंक में..., आज बच के कहां जाओगे बच्चू, पीछे भी देख लो ज़रा..., यह पड़ा रंग.., वाह भूत लग रहे हो..." .. हर तरफ उमंगे.., होली की रंगीनियों ने वर्ष को रंगीन शुरूआत दे दी। कुछ युवाओँ ने जी भरकर खेली होली, उनके साथ भी जिनके साथ खेलने का केवल ख्बाव देखा था और यादगार बना लिया 2014 को, वहीं कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्हें रंगों की बरसात के बदले सैंडलों की सौगात हासिल हुई..., बेचारे मन मसोस कर 2014 को कोस रहे थे।
उधर 2014 सोच रहा था, लो.. होली भी हो ली। अप्रैल में यौवन की दहलीज पर कदम रखा 2014 ने और फिर चला पढ़ाई का दौर। फाइनल एक्ज़ाम की तलवार युवाओं, बच्चों और किशोरों सभी के सर पर लटक रही थी, माता-पिताओं के लिए भी परीक्षा का दौर था। 2014 को मई लगी, तो सबके एक्ज़ाम्स भी निबट चुके थे। और सब एक बार फिर जुट गए थे मस्ती का साधन खोजने में..., "यार, मैं तो इस बार कुल्लू-मनाली जाऊंगा,.. हम लोग शिमला जा रहे हैं इन समर हॉलिडेज़ में..., सब एक साथ किसी हिलस्टेशन पर चलें क्यां..? "..प्लान बन रहे थे और ज़ाहिर हैं इनके अनुसार कदम भी उठाए गए और हिल स्टेशनों पर जाकर खूब धमा-चौकड़ी मचाई गई।
जून पसीना बहाते और बिचली का बिल चुकाते निकला और जुलाई में रिजल्ट निकलने के साथ स्कूल-कॉलेज भी खुल गए। आधी उम्र पार कर चुका था 2014 और अब एक अलग ही माहौल देख रहा था। जो जूनियर थे, सीनियर बन गए, और जो सीनियर थे, नौकरी की तलाश में निकल गए.., और जो नए-नए थे, वो रैगिंग के चक्कर में फंस गए। अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर बस यूहीं कभी शादियां देखते, तो कभी सावन की झड़ी के बीच मस्ताते लोगों को देखते निकल गए। बहुतों को परेशान होते भी देखा...। इस अरसे में बहुत कुछ जाना 2014 ने। अधेड़ावस्था में आया वर्ष तो कितने अनुभवों से भर चुका था उसका मन।
कभी उसे किसी खास वर्ग की चिंता सताती तो सावन बरस उठता आंखों से, वर्षा की झड़ी लग जाया करती थी। लेकिन यह तो होना ही है, सुख-दुख तो हमेशा ही साथ चलते हैं। अब तो 2014 की उम्र भी ज्यादा नहीं बची थी,तो सोचा क्यों ना जाते जाते एक और खुशी की सौगात लोगों को दे जाऊ...। तो बस अक्टूबर से लगा दिया त्यौहारों का मेला और उम्र के कठिन पड़ाव पर नवम्बर में दीवाली भी ले आया 'नया' साल। दीपों के इस त्यौहार पर चारों तरफ बस दीप जगमगा रहे थे। धूम-धाम, पटाखों की आवाज़ हर तरफ से गूंज रही थी। अमीर भी खुश थे और गरीब भी जिन्हें नववर्ष की इस सौगात पर खूब बख्शीश और त्यौहारी मिली थी।
दिसंबर जो लगा 2014 को तो वो समझ गया कि यह विदाई की घड़ियां हैं। अपनी पूरी उम्र को जो पलट कर देखा तो महसूस हुआ कि यह वहीं लोग हैं जिन्होंने उसके आने की बेहद खुशियां मनाईं थी और अब उसके जाने के इतंजार में बेसब्र हो रहे हैं। उसके आगमन की खुशी में लिए गए संकल्प धूमिल हो चुके थे। साल भर पढ़ने का संकल्प लेने वाली सीमा को पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता था, रागिनी रात में देर तक सोने के कारण कहां सुबह उठ कर योगा के लिए समय निकाल पाती थी, राहुल को एक बार झूठ बोलना पड़ा तो फिर उसने बार-बार बोलने में भी परहेज ना किया और माधुरी जी..., उन्होंने तो लाख चाहा कि नौकर को ना डांटे लेकिन वो नौकर है कि काम ही ऐसा करता है कि डांट निकल ही जाती है मुंह से... ऐसे कितने ही संकल्प टूट कर बिखर चुके थे फिर बनने के लिए।
लेकिन यह तो परंपरा है जो ना जाने कब से चली आ रही है। 2014 के पूर्वज़ो ने निभाई थी, उसे भी निभानी थी। समय के गर्भ से जन्मा था तो मृत्यू भी तय थी। लोग उसे कुछ दें या ना दें, उसे तो जाते-जाते भी खुशियां बांटनी ही थीं। सो चलते चलते, आखिरी सांसे गिनते-गिनते भी ईद और क्रिसमस की सौगात डाल दी लोगों की झोली में उसने।
अब बेहद बूढ़ा हो चला था 2014, रजाई में पड़े पड़े, खटिया पकड़े अंतिम कुछ सांसे गिन रहा था। उसका एक और वंश प्रणेता समय के गर्भ से बाहर आने को तैयार था। कल जो 2013 के साथ हुआ, अब उसके साथ हो रहा था.. लोग फिर तैयार थे उसे विदा देकर नए साल का स्वागत करने को, नए संकल्प लेकर, नई खुशियां लेकर... और आखिर खत्म हुई यह कहानी भी। चला गया 2014 और आ गया 2015 उसकी जगह लेने को... फिर से घूमेगा यह चक्र...2015 को अभी तो बस लोहड़ी लगी है...
चारों तरफ खुशियां मन रही थीं। कहीं मिठाईयां बंटी तो कहीं जबरदस्त डांस पार्टी चली, रेस्ट्रोन्ट फुल रहे, ऑर्डर लेते लेते सांस लेने की फुरसत नहीं थी। 2014 का स्वागत करने वालों में युवा वर्ग सबसे आगे था। जोश से भरा यह वर्ग पूरी आतुर था नए साल के स्वागत को। कहीं जाम छलक रहे थे तो कहीं डिस्को-डांस की मस्ती। कहीं पार्टियों की रौनक थी तो कहीं आतिशबाज़ी का धूम- धड़ाका... मस्ती.., मस्ती... और बस मस्ती...।
2014 भी अपने इन चाहने वालों को देखकर झूम उठा। सोच लिया कि ताउम्र इन युवाओं को खुश रखकर गुज़ारेगा और साथ ही इनकी एक-एक गतिविधि पर नज़र भी रखेगा। नए साल ने देखा, एक समूह की बातें चल रही थीं.. " यार मज़ा आ गया, फिर से एक और साल, अब सबकी बर्थडे फिर से आएगी, खूब सारी ट्रीट मिलेगी और फिर से नए त्यौहार आएंगे, एक और साल देख लिया हमने...इस बहाने मस्ती और पार्टी भी हो गई... गज़ब... याहूं...।
नया साल हंस पड़ा। तो इसलिए खुश हैं यह युवा..। कुछ ने तो इसके आगमन की खुशी में संकल्प भी ले डाले थे। एमएससी की सीमा ने पूरे साल पढ़ने का संकल्प लिया और बी कॉम की रागिनी ने रोज़ सुबह योगा करने की कसम खाई..., राहुल ने साल भर झूठ ना बोलने का संकल्प ले लिया और माधुरी जी ने अपने घरेलू नौकर को बात-बात पर नहीं डांटने का प्रण कर लिया था... 2014 चुपचाप सब सुन रहा था, देख रहा था और गुन भी रहा था।
शिशु अभी जनवरी में चल रहा था, पर तेज़ी से बढ़ रहा था। सारे लोग भी नए वर्ष के बचपन का आनंद रजाई और गद्दों में बैठ कर, मूंगफली और चिक्की खाकर उठा रहे थे। लोहड़ी पर अलाव जलाकर खूब नाच-गाना हुआ और मकर संक्रांति पर सूर्य महाराज के उत्तरायण होने के मौके पर खूब पतंगबाज़ी हुई और खोए-तिल के लड्डू खाए गए।
नव वर्ष को फरवरी लग गई... अब वो रजाई से निकलकर धीरे-धीरे पैरों चलने लगा था। खूब जल्दी बढ़ रहा था 2014 और उतनी ही जल्दी बढ़ रही थी लोगों की उमंगे। बासंती फरवरी में नववर्ष उनके लिए बासंती वैलेंटाइन डे जो ले आया था। उस दिन खूब उत्साह था खास यूथ वर्ग में। कॉलेजों में रिकॉर्ड उपस्थिति दर्ज की गई। दुकानों से गुलाबों के ढेर के ढेर खरीदे गए। शहर का कोठियों, फ्लैटों की बालकनियों और कॉलेजों के कॉरीडोर्स में लगे गुलाब के पौधों से रातों-रात गुलाब गायब हो गए। जी भर के प्यार बांटा गया... नववर्ष भी खुश था इन खुशियों को देखकर।
इधर मार्च में 2014 ने किशोरावस्था में कदम रखा और उधर आ गया फागुन का त्योहार। लोगों की एक और पसंद- होली की सौगात ले आया था नव वर्ष...
'ढम ढमा ढम ढम...', " ये भांग का रंग चढ़ा..., अरे देखो देखो, वो रंग से पुता..., यह तो गया भैया, पानी के टैंक में..., आज बच के कहां जाओगे बच्चू, पीछे भी देख लो ज़रा..., यह पड़ा रंग.., वाह भूत लग रहे हो..." .. हर तरफ उमंगे.., होली की रंगीनियों ने वर्ष को रंगीन शुरूआत दे दी। कुछ युवाओँ ने जी भरकर खेली होली, उनके साथ भी जिनके साथ खेलने का केवल ख्बाव देखा था और यादगार बना लिया 2014 को, वहीं कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्हें रंगों की बरसात के बदले सैंडलों की सौगात हासिल हुई..., बेचारे मन मसोस कर 2014 को कोस रहे थे।
उधर 2014 सोच रहा था, लो.. होली भी हो ली। अप्रैल में यौवन की दहलीज पर कदम रखा 2014 ने और फिर चला पढ़ाई का दौर। फाइनल एक्ज़ाम की तलवार युवाओं, बच्चों और किशोरों सभी के सर पर लटक रही थी, माता-पिताओं के लिए भी परीक्षा का दौर था। 2014 को मई लगी, तो सबके एक्ज़ाम्स भी निबट चुके थे। और सब एक बार फिर जुट गए थे मस्ती का साधन खोजने में..., "यार, मैं तो इस बार कुल्लू-मनाली जाऊंगा,.. हम लोग शिमला जा रहे हैं इन समर हॉलिडेज़ में..., सब एक साथ किसी हिलस्टेशन पर चलें क्यां..? "..प्लान बन रहे थे और ज़ाहिर हैं इनके अनुसार कदम भी उठाए गए और हिल स्टेशनों पर जाकर खूब धमा-चौकड़ी मचाई गई।
जून पसीना बहाते और बिचली का बिल चुकाते निकला और जुलाई में रिजल्ट निकलने के साथ स्कूल-कॉलेज भी खुल गए। आधी उम्र पार कर चुका था 2014 और अब एक अलग ही माहौल देख रहा था। जो जूनियर थे, सीनियर बन गए, और जो सीनियर थे, नौकरी की तलाश में निकल गए.., और जो नए-नए थे, वो रैगिंग के चक्कर में फंस गए। अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर बस यूहीं कभी शादियां देखते, तो कभी सावन की झड़ी के बीच मस्ताते लोगों को देखते निकल गए। बहुतों को परेशान होते भी देखा...। इस अरसे में बहुत कुछ जाना 2014 ने। अधेड़ावस्था में आया वर्ष तो कितने अनुभवों से भर चुका था उसका मन।
कभी उसे किसी खास वर्ग की चिंता सताती तो सावन बरस उठता आंखों से, वर्षा की झड़ी लग जाया करती थी। लेकिन यह तो होना ही है, सुख-दुख तो हमेशा ही साथ चलते हैं। अब तो 2014 की उम्र भी ज्यादा नहीं बची थी,तो सोचा क्यों ना जाते जाते एक और खुशी की सौगात लोगों को दे जाऊ...। तो बस अक्टूबर से लगा दिया त्यौहारों का मेला और उम्र के कठिन पड़ाव पर नवम्बर में दीवाली भी ले आया 'नया' साल। दीपों के इस त्यौहार पर चारों तरफ बस दीप जगमगा रहे थे। धूम-धाम, पटाखों की आवाज़ हर तरफ से गूंज रही थी। अमीर भी खुश थे और गरीब भी जिन्हें नववर्ष की इस सौगात पर खूब बख्शीश और त्यौहारी मिली थी।
दिसंबर जो लगा 2014 को तो वो समझ गया कि यह विदाई की घड़ियां हैं। अपनी पूरी उम्र को जो पलट कर देखा तो महसूस हुआ कि यह वहीं लोग हैं जिन्होंने उसके आने की बेहद खुशियां मनाईं थी और अब उसके जाने के इतंजार में बेसब्र हो रहे हैं। उसके आगमन की खुशी में लिए गए संकल्प धूमिल हो चुके थे। साल भर पढ़ने का संकल्प लेने वाली सीमा को पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता था, रागिनी रात में देर तक सोने के कारण कहां सुबह उठ कर योगा के लिए समय निकाल पाती थी, राहुल को एक बार झूठ बोलना पड़ा तो फिर उसने बार-बार बोलने में भी परहेज ना किया और माधुरी जी..., उन्होंने तो लाख चाहा कि नौकर को ना डांटे लेकिन वो नौकर है कि काम ही ऐसा करता है कि डांट निकल ही जाती है मुंह से... ऐसे कितने ही संकल्प टूट कर बिखर चुके थे फिर बनने के लिए।
लेकिन यह तो परंपरा है जो ना जाने कब से चली आ रही है। 2014 के पूर्वज़ो ने निभाई थी, उसे भी निभानी थी। समय के गर्भ से जन्मा था तो मृत्यू भी तय थी। लोग उसे कुछ दें या ना दें, उसे तो जाते-जाते भी खुशियां बांटनी ही थीं। सो चलते चलते, आखिरी सांसे गिनते-गिनते भी ईद और क्रिसमस की सौगात डाल दी लोगों की झोली में उसने।
अब बेहद बूढ़ा हो चला था 2014, रजाई में पड़े पड़े, खटिया पकड़े अंतिम कुछ सांसे गिन रहा था। उसका एक और वंश प्रणेता समय के गर्भ से बाहर आने को तैयार था। कल जो 2013 के साथ हुआ, अब उसके साथ हो रहा था.. लोग फिर तैयार थे उसे विदा देकर नए साल का स्वागत करने को, नए संकल्प लेकर, नई खुशियां लेकर... और आखिर खत्म हुई यह कहानी भी। चला गया 2014 और आ गया 2015 उसकी जगह लेने को... फिर से घूमेगा यह चक्र...2015 को अभी तो बस लोहड़ी लगी है...
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