'दिनकर' का हास्य बोध
हठ कर
बैठा चांद एक दिन,
माता से यह बोला
सिलवां दो मां मुझे ऊन का,
मोटा एक झिंगोला।
माता से यह बोला
सिलवां दो मां मुझे ऊन का,
मोटा एक झिंगोला।
सन-सन
चलती हवा रात भर,
जाड़े से मरता हूं।
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह,
यात्रा पूरी करता हूं।
जाड़े से मरता हूं।
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह,
यात्रा पूरी करता हूं।
आसमान का सफर,
और यह मौसम है जाड़े का।
अगर ना हो इंतज़ाम,
दिलवा दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।
और यह मौसम है जाड़े का।
अगर ना हो इंतज़ाम,
दिलवा दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।
बेटे की सुन बात कहा माता ने,
अरे सलोने!
कुशल करे भगवान,
लगे ना तुझको जादू टोने।
अरे सलोने!
कुशल करे भगवान,
लगे ना तुझको जादू टोने।
जाड़े की तो बात ठीक है,
पर मैं तो डरती हूं।
कभी एक रूप में ना तुझको,
देखा करती हूं।
पर मैं तो डरती हूं।
कभी एक रूप में ना तुझको,
देखा करती हूं।
कभी एक अंगुल भर चौड़ा,
और कभी कुछ मोटा।
बड़ा किसी दिन हो जाता है,
और किसी दिन छोटा।
और कभी कुछ मोटा।
बड़ा किसी दिन हो जाता है,
और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज़ किसी दिन,
ऐसा भी करता है।
नहीं किसी की आंखों को तू,
दिखलाई पड़ता है।
ऐसा भी करता है।
नहीं किसी की आंखों को तू,
दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही बता,
नाप तेरी किस रोज़ लिवाएं।
सी दें एक झिंगोला,
जो हर रोज़ बदन में आए।
नाप तेरी किस रोज़ लिवाएं।
सी दें एक झिंगोला,
जो हर रोज़ बदन में आए।
‘चांद का कुर्ता’, रामधारी सिंह दिनकर की विद्रोही और राष्ट्रवादी कवि की छवि से यह कविता बिल्कुल मेल नहीं खाती।
कहां “ जो तटस्थ है समय लिखेगा उनके भी अपराध “ और “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” जैसी उनकी रचनाएं और कहां यह सुखद बाल
कविता।
वीर रस के
कवि के रूप पहचान और ख्याति पाने वाले दिनकर का मन बाल कविताएं लिखने में भी रमता
था। उनके शिशु गीत, बाल कविताएं बहुत रोचक हैं, मनोरंजक हैं और तीक्ष्ण हास्य समेटे हैं। इन कविताओं में चांद है, सूरज है, चूहा है,
पढ़ाकू
मियां हैं और मिर्च का मज़ा भी है।
‘सूरज का ब्याह’ में वो लिखते हैं-
“अगर सूर्य ने ब्याह किया, दस पांच पुत्र जन्माएगा।
सोचो तब
उतने सूर्यों का ताप कौन सह पाएगा।
अच्छा है
सूरज क्वारा है, वंश विहीन,
अकेला है।
इस प्रचंड
का ब्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है”।
अब ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ के अंश देखिए-
“चूहे ने यह कहा, चुहिया छाता और घड़ी दो।
लाया था
जो बड़े सेठ के घर से, वो पगड़ी दो।
दिल्ली
मैं देखूंगा, आज़ादी का नया ज़माना,
लाल किले
पर खूब तिरंगे झंडे का लहराना”।
एक और
प्रसिद्ध कविता है उनकी ‘पढ़क्कू की सूझ’
जिसमें वो
लिखते हैं-
“एक पढ़क्कू बड़े तेज़ थे, तर्कशास्त्र पढ़ते थे।
जहां ना
कोई बात, वहां भी नई बात गढ़ते थे।
एक रोज़
वे पड़े फिक्र में, समझ नहीं कुछ पाए।
बैल घूमता
है, कोल्हू में कैसे बिना चलाए?”
उनकी
प्रेम, श्रृंगार और वीर रस से भरी कविताएं पढ़ते
समय, उनके व्यक्तित्व का यह खण्ड बिसरा मत देना।
अपनी शब्दकृतियों के बल पर यह छायावादी कवि, “दिनकर” बनकर हिन्दी कविता के आकाश में तब तक
दमकता रहेगा जब तक हिन्दी जीवित है,
काव्य
जीवित है और भावनाएं जीवित हैं। बाकी एक प्रशंसक के रूप में मुझे तो उनके हास्य
बोध का ज्ञान उनकी इस प्रसिद्ध कृति से भी होता है जो हमेशा मुश्किलें ढूंढने वाली
मनुष्य प्रवृत्ति पर कटाक्ष करती है-
“रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चांद,
आदमी भी
क्या अनोखा जीव होता है,
उलझने
अपनी बना कर आप ही फंसता,
और फ़िर
हंसता ना, रोता है”।
Comments
Post a Comment