भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए 'जीत' लेकर आए हैं गुजरात के चुनाव परिणाम



आज प्रधानमन्त्री ने जब गुजरात की जीत पर पार्टी कार्यकर्ताओं को सम्बोन्धित किया तो उनकी आवाज़ में वो स्वाभाविक खुशी, चहक और आत्मविश्वास गायब थे जो उनके भाषणों की पहचान है। उनकी आवाज़ में एक सोज था। लग रहा था जैसे मोदी जी किसी बड़ी लड़ाई को बमुश्किल जीत कर आए हैं और उन्हें खुद भी इस जीत का विश्वास नहीं हो पा रहा। बाद में उनका गुजरात के लोगों से माफी मांगना, 'विकास ही जीतेगा' जैसे नारे लगवाना और सारे गुजरातियों को जाति-समुदाय से ऊपर उठकर साथ आने को कहना, बयां करता हैं कि सच में यह उनके लिए भी बहुत बड़ी लड़ाई थी और कहीं ना कहीं उन्हें अपने होमटाउन में अपनी ज़मीन दरकने का अन्देशा भी था और शायद यहीं वजह रही कि उन्होंने इस कदर अपनी ताकत चुनाव प्रचार में झोंक दी, कि विकास की धार से भरे स्तरीय भाषणों में व्यक्तिगत मुद्दों और आरोप-प्रत्यारोपों के कारण स्तरहीनता सुनाई देने लगी।

नरेन्द्र मोदी जी आत्ममुग्ध नेता ज़रूर हैं लेकिन उन्हें खुद की काबिलियत और जनता की समझदारी को लेकर कोई गुमान नहीं है। दो दशक तक गुजरात में रह चुकने के बाद वो गुजराती दिमाग और अक्लमन्दी को खूब जानते हैं, और यह भी समझते हैं कि उनके गुजरात से निकल जाने के बाद वहां कोई भी नेता उनकी कमी को पूरा नहीं कर पाया है। इसलिए केवल 99 सीटों पर सिमट जाने के बाद उन्हें भी समझ आ गया है कि अब उन्हें गुजरात में वाकई ध्यान देना होगा और विकास पर लौटना होगा। जो खामियां रह गई हैं, उन्हें भरना होगा, वरना आगे की राह आसान नहीं होगी।

और यह जीत है ना, वो छोटे मार्जिन से ही सही, बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है बीजेपी और खुद नरेन्द्र मोदी के लिए। क्योंकि एक तो यह खुद प्रधानमन्त्री का गढ़ है और दूसरे पहली बार उन्हें राहुल गांधी- जिन्हें कि वो हमेशा नकारते आए हैं, से कड़ी चुनौती मिली है। जीएसटी, डीमॉनेटाइजेशन के मुद्दे पर भी जनता का जवाब अपेक्षित था। अगर यह चुनाव बीजेपी हार जाती तो यह ऐसी हार होती जिससे ना केवल बीजेपी पार्टी और अमित शाह की इमेज प्रभावित होती बल्कि खुद मोदी जी की एक नेता के तौर पर विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता। शिवसेना जैसे दलों को मज़बूती से सिर उठाने का मौका मिल जाता और प्रधानमन्त्री की नीतियां सवालों के घेरे में आ जाती।

जीत छोटी ही सही, विश्वास देती है। उम्मीद की किरण जगाए रखती है कि अभी सब कुछ टूटा नहीं है। गुजरात के हर उस कार्यकर्ता में, जो पिछले सालों से गुजरात में बीजेपी का तिलिस्म टूटते देख रहा था और इस जीत को शायद असंभव मानकर चल रहा था, इस जीत ने नई आशा जगाई है। इतनी कम मार्जिन से जीत के बाद अब शायद वो और मेहनत से अपने काम को अन्जाम दें।

दूसरी तरफ, राहुल गांधी के लिए यह हार, दरअसल उनकी बहुत बड़ी जीत है। इन चुनावों में राहुल गांधी किसी बिल्कुल खांटी राजनीतिज्ञ की तरह आक्रामक, किन्तु स्तरीय रैलियां करते नज़र आए। उनमें राजनीतिक परिपक्वता भी आई है। मणिशंकर अय्यर के बयान पर तुरन्त संज्ञान लेना और परिणामों के बाद ट्विटर पर अपनी हार स्वीकार करते हुए इसे जनता की इच्छा मानना, इसी परिपक्वता का परिणाम है। एक बात और, आम कांग्रेसी कार्यकर्ता, नेता, चाहें कुछ भी कहते रहें, राहुल गांधी ने अपनी हार के बाद मोदी जी या भाजपा के विरोध में कोई बयान नहीं दिया है, जो उनकी एक नेता के तौर पर अक्लमन्दी का परिचायक है।

 कांग्रेसियों के पास हर वजह है खुश होने की। गुजरात जैसे पीएम के गढ़ में भाजपा को कांटे की टक्कर देना, अगर सफलता नहीं तो सफलता से कम भी नहीं। कांग्रेस के अध्यक्ष बनने के बाद, पहली बार राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भाजपा को इतनी ज़बरदस्त टक्कर दी है। इस परिणाम ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच राहुल की विश्वसनीयता निश्चित तौर पर बढ़ाई है।


बाकी यह तय है, कि आगे आने वाले चुनाव और ज़्यादा रोचक होने वाले हैं। 

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