Friday, 23 November 2018

विश्व की सबसे प्रिमिटिव जीवित सभ्यता को अकेला छोड़ दीजिए, क्योंकि यही यह चाहते हैं..


अंडमान निकोबार के इर्द गिर्द बिखरे छोटे-बड़े लगभग 500 द्वीप समूहों में एक है नॉर्थ सेंटीनल आईलैंड। बंगाल की खाड़ी में बसा एक छोटा सा द्वीप जो क्षेत्रफल में मैनहैटेन के लगभग बराबर है। घने दुर्गम जंगलों से भरे और रेतीले तट से घिरे इस नितान्त निर्जन नज़र आने वाले द्वीप के मूल निवासी है सेंटीनल आदिवासी, जो करीब 65,000 सालों से यहां रह रहे हैं।
65,000 सालों का मतलब समझते हैं आप- यानि पृथ्वी पर आए अंतिम हिम युग से भी 35,000 साल पहले से, उत्तरी अमेरिका से मैमथ के गायब होने से 55,000 साल पूर्व और प्राचीन मिस्र के लोगों द्वारा गीज़ा में बनाए गए पिरामिडों से 62,000 साल पहले से सेंटीनल्स, इस द्वीप के निवासी हैं। इन्हें अफ्रीका के प्रथम मनुष्यों का प्रत्यक्ष वंशज माना जाता है। कुछ एन्थ्रोपॉलोजिस्ट इन्हें पाषाण युग का सदस्य मानते हैं।
विश्व की सबसे प्रिमिटिव जीवित इन्सानी सभ्यता ने, विकसित समाज द्वारा इनसे सम्पर्क किए जाने की हर कोशिश को नकारा है। सेंटीनल्स इन कोशिशों का स्वागत तीर और भालों की बौछारों से करते हैं। यह आदिवासी आग तक जलाना नहीं जानते। यह समुद्री मछलियों, जीवों और जंगली फलों को खाते हैं। इनकी भाषा सेंटिनलीज़ हैं जो आस-पास के द्वीप समूहों में रहने वाले अन्य आदिवासियों की भाषा से बिल्कुल अलग है।
माना जाता है कि यहां लगभग 500 आदिवासी रहते हैं, लेकिन यह केवल एक अनुमान है। इसका कोई सही आंकड़ा अभी तक उपलब्ध नहीं है। इनके प्रोटेक्शन के मद्देनज़र भारतीय कानून बनाया गया है जिसके अनुसार इन द्वीप के तीन मील के दायरे तक जाना, इनसे घुलने मिलने की कोशिश करना या फोटो खींचना, गैरकानूनी है। इसकी एक वजह यह भी है कि चूंकि सेंटिनलीज़ हज़ारों सालों से आधुनिक मानव सभ्यता और विकास के चक्र से अछूते रहे हैं, इनमें आधुनिक बीमारियों के प्रति इम्यूनिटी विकसित नहीं हो पाई है, जिसकी वजह से यह आधुनिक समाज के सम्पर्क में आने पर बैक्टीरिया के भी सम्पर्क में आ सकते हैं और साधारण फ्लू या इन्फ्लुएन्ज़ा जैसी बीमारी के वायरस भी इनके लिए जानलेवा साबित हो सकते हैं।
1880 में ब्रिटिश नेवल ऑफिसर मॉरिस विडाल पोर्टमेन ने यहां कॉलोनाइजेशन की कोशिशों के तहत यहां के सेंटिनल आदिवासियों से सम्पर्क करने की कोशिशें की थी। यहां से एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति और 4 बच्चों को पकड़ लिया गया। लेकिन पोर्ट ब्लेयर तक आते-आते ही बुज़ुर्ग दम्पत्ति की मौत हो गई। शायद वो आधुनिक मानवों के सम्पर्क में आने के साथ ही पैथोजन्स के सम्पर्क में आ गए थे जिसकी प्रतिरोधक क्षमता नहीं होने के कारण उनकी मौत हो गई। चारों बच्चों को बाद में कुछ उपहार वगैरह देकर वापस इस द्वीप में छोड़ दिया गया। इस घटना के बाद ब्रिटिश अफसरों ने कभी यहां दोबारा आने की कोशिश नहीं की। 
1967 में भारतीय एन्थ्रोपॉलोजिस्ट टीएन पंन्डित की टीम की इन आदिवासियों से सम्पर्क करने की सारी कोशिशें भी व्यर्थ साबित हुईं। 
1974 में नेशनल ज्योग्राफिक चैनल की टीम यहां एक डॉक्युमेन्ट्री 'मैन इन सर्च ऑफ मैन' के फिल्मांकन के लिए आई थी। लेकिन इस टीम को भी यहां घुसने नहीं दिया गया। आदिवासियों ने इन पर तीरों और भालों की बौछार कर दी,जिनमें से एक तीर डायरेक्टक के पैर में भी लगा था। 
ऐसे और भी कई प्रयास किए गए लेकिन आदिवासियों ने कभी भी सामान्य लोगों से घुलना-मिलना स्वीकार नहीं किया। 
डेली मेल, यूके की रिपोर्ट के अनुसार जॉन एलन चाउ, सारे भारतीय नियम कानूनों को ताक पर रखकर इन लोगों के बीच प्रभु यीशू का प्रचार करने पहुंचे थे। यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने स्थानीय नाविकों को 25,000 रुपए की रिश्वत दी थी। 14 नवम्बर को जब यह यहां पर गए तब एक आदिवासी बच्चे ने इन पर तीर चलाया था जो इनके हाथ में पकड़ी बाइबल पर लगा। लेकिन इस चेतावनी के बाद भी यह फिर वहां पर गए और अंतत: आदिवासियों ने इन्हें मार दिया। चाउ खुद भी यह जानते थे कि उनकी जान को खतरा है, नाविकों के पास छोड़े गए अपने नोट्स में उन्होंने यह सब लिखा है लेकिन फ़िर भी वो यहां जाते रहे। दुख है कि एक असमय, जवान मौत हुई लेकिन यह अनुरोध भी है कि पृथ्वी के इस जीवित इतिहास से छेड़खानी की कोशिश कृपया ना करें। इन्हें अकेला छोड़ दें। क्योंकि यही यह चाहते हैं, और यही हमारे यानि 'सभ्य विकसित समाज' के लिए भी अच्छा है। 
(source- Wikipedia Notes)

Sunday, 14 October 2018

कश्मीरी पन्डितों पर हुए हर अन्याय का दस्तावेज है 'रिफ्यूजी कैम्प'



उनको देखकर मैं भी चुप था, मेरा नम्बर अब आया।
मुझको देखकर आप भी चुप हैं, अगला नम्बर आपका है।

रिफ्यूजी कैम्प को पढ़ने के बाद एक यहीं ख़याल है जो बार-बार आता है, कि काश उस समय, उसी वक्त सबने साथ मिलकर चन्द आतंकियों के खिलाफ एकजुटता दिखा दी होती तो कश्मीर सही मायनों में सब्ज शादाब होता। ना कश्मीरी पन्डित विस्थापित होते और ना ही वहां के मुसलमान आतंक के ज़हर से भरी फिज़ा में सांस लेने को मजबूर होते। लेखक आशीष कौल, जो कि खुद 1989 में कश्मीर के विस्थापित रहे हैं और जिन्होंने हर मंज़र को अपनी आंखों से देखा है, हर दर्द को महसूस किया है, ने उस समय के हालातों को बेहद सजीवता से  किताब के पन्नों में उतारा है। यह कहानी से ज़्यादा लेखक की भावनाओं का लेखन है।

 रिफ्यूजी कैम्प की कहानी 1984 के कश्मीर से शुरू होती है जब घाटी में अमन का दौर था। कश्मीरी पन्डितों और मुसलमानों के बीच दोस्तियां भी थी औेर मोहब्बत भी। यह वो समय था जब कश्मीरी पन्डित रसूख के साथ वादी में रहते थे। फ़िर सरकार बदली और वक्त भी धीरे-धीरे बदलने लगा। वादी में आतन्कियों की बसावट होने लगी। हालात बदलने लगे। रिश्तों की गर्मी, सर्द पड़ने लगी। खुशी और दोस्ती का दौर कैसे धीरे-धीरे तल्खियों और दुश्मनियों में तब्दील हो गया इसका वर्णन लेखक ने अपने नायक अभिमन्यू की आंखों से किया है। यह कहानी बताती है कि किस तरह सोचे समझे तरीके से शक्तिशाली सत्तासीन ताकतों ने कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी पन्डितों को वहां से निकालने की ज़मीन इंच दर इंच तैयार की और आखिरकार लाखों लोगो को उनके घर से बेघर कर दिया गया। उनके अपनों को मार दिया गया, घरों को जला दिया गया और यह सब हुआ सत्ता की छत्रछाया में।

पक्के घरों की शान्त ज़िन्दगी चन्द घन्टों में पीछे छूट गई और ईमानदार, संस्कारी और नफासत पसन्द कश्मीरी पन्डितों के ऊपर शरणार्थी कैम्पों की गन्दी और अव्यवस्थित ज़िन्दगी थोप दी गई। मुस्लिम तुष्टिकरण का शिकार बने कश्मीरी पन्डित अपने घर से तो बेघर हुए ही, सरकार के लिए भी बोझ बन गए। 'रिफ्यूजी कैम्प' कश्मीरी पन्डितों के साथ हुए हर अन्याय का दस्तावेज है।

इस कहानी का नायक कहीं गिरता हैं, कहीं संभलता हैं, कहीं कमज़ोर पड़ता है.. वो कभी सरकार से आस लगाता है तो कभी आम हिन्दुस्तानियों से। जब कहीं आस पूरी नहीं होती तो वो अन्त में खुद ही परिस्थितियों से लड़ने का निर्णय करता है..। उसे समझ में आ जाता है कि उसकी परेशानियों का हल केवल उसके खुद अपने लिए लड़ने में और अपनी ज़मीन को हर हाल में वापिस हासिल करने में है।

आशीष कौल की यह कहानी इसलिए पढ़ना ज़रूरी है ताकि आप आज़ाद भारत में कश्मीरी पन्डितों पर हुई ज़ुल्मों की सच्चाई जान पाए। कश्मीर के इतिहास के उस काले अध्याय से रूबरू हो पाएं जिसे छिपाए रखने की हर संभव कोशिश की गई है। यह जान सकें कि सत्ता के लालच और वोटबैंक के स्वार्थ ने किस तरह इस देश की पीढ़ियां  बरबाद कर दी। यह समझ पाएं कि अपने ही देश में शरणार्थी बनकर जीने का अर्थ क्या होता है। यह किताब कश्मीर के सही इतिहास को भी समझाती है, उन राजनीतिक परिस्थितियों की भी बात करती है जिसकी वजह से बार-बार वादी के हालात बदले और आज तक वहां स्थिरता नहीं आ पाई है।

आशीष कौल की किताब की खासियत यह है कि यह जो हुआ उसे तो सामने लाती है लेकिन इसकी ज़िम्मेदारी किसी एक के मत्थे नहीं मढ़ती। इसमें सरकार के साथ कश्मीरी पन्डितों और कश्मीरी मुसलमानों की नाकामियों की भी बात की गई है। दोष उनका भी था क्योंकि वो एकजुट होकर इन आतंकवादियों से लड़े नहीं और उनकी चालों का शिकार बन गए। कहानी का अन्त लेखक ने उम्मीद के रूप में गढ़ा है। यह काल्पनिक अन्त कश्मीर समस्या के समाधान का एक रास्ता भी सुझाता है।

इसे पढ़िए, निश्चित तौर पर पढ़िए, उस डरावनी हकीकत से दो चार होने के लिए पढ़िए जिसका ज़िक्र तक नहीं करता कोई।

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