कश्मीरी पन्डितों पर हुए हर अन्याय का दस्तावेज है 'रिफ्यूजी कैम्प'



उनको देखकर मैं भी चुप था, मेरा नम्बर अब आया।
मुझको देखकर आप भी चुप हैं, अगला नम्बर आपका है।

रिफ्यूजी कैम्प को पढ़ने के बाद एक यहीं ख़याल है जो बार-बार आता है, कि काश उस समय, उसी वक्त सबने साथ मिलकर चन्द आतंकियों के खिलाफ एकजुटता दिखा दी होती तो कश्मीर सही मायनों में सब्ज शादाब होता। ना कश्मीरी पन्डित विस्थापित होते और ना ही वहां के मुसलमान आतंक के ज़हर से भरी फिज़ा में सांस लेने को मजबूर होते। लेखक आशीष कौल, जो कि खुद 1989 में कश्मीर के विस्थापित रहे हैं और जिन्होंने हर मंज़र को अपनी आंखों से देखा है, हर दर्द को महसूस किया है, ने उस समय के हालातों को बेहद सजीवता से  किताब के पन्नों में उतारा है। यह कहानी से ज़्यादा लेखक की भावनाओं का लेखन है।

 रिफ्यूजी कैम्प की कहानी 1984 के कश्मीर से शुरू होती है जब घाटी में अमन का दौर था। कश्मीरी पन्डितों और मुसलमानों के बीच दोस्तियां भी थी औेर मोहब्बत भी। यह वो समय था जब कश्मीरी पन्डित रसूख के साथ वादी में रहते थे। फ़िर सरकार बदली और वक्त भी धीरे-धीरे बदलने लगा। वादी में आतन्कियों की बसावट होने लगी। हालात बदलने लगे। रिश्तों की गर्मी, सर्द पड़ने लगी। खुशी और दोस्ती का दौर कैसे धीरे-धीरे तल्खियों और दुश्मनियों में तब्दील हो गया इसका वर्णन लेखक ने अपने नायक अभिमन्यू की आंखों से किया है। यह कहानी बताती है कि किस तरह सोचे समझे तरीके से शक्तिशाली सत्तासीन ताकतों ने कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी पन्डितों को वहां से निकालने की ज़मीन इंच दर इंच तैयार की और आखिरकार लाखों लोगो को उनके घर से बेघर कर दिया गया। उनके अपनों को मार दिया गया, घरों को जला दिया गया और यह सब हुआ सत्ता की छत्रछाया में।

पक्के घरों की शान्त ज़िन्दगी चन्द घन्टों में पीछे छूट गई और ईमानदार, संस्कारी और नफासत पसन्द कश्मीरी पन्डितों के ऊपर शरणार्थी कैम्पों की गन्दी और अव्यवस्थित ज़िन्दगी थोप दी गई। मुस्लिम तुष्टिकरण का शिकार बने कश्मीरी पन्डित अपने घर से तो बेघर हुए ही, सरकार के लिए भी बोझ बन गए। 'रिफ्यूजी कैम्प' कश्मीरी पन्डितों के साथ हुए हर अन्याय का दस्तावेज है।

इस कहानी का नायक कहीं गिरता हैं, कहीं संभलता हैं, कहीं कमज़ोर पड़ता है.. वो कभी सरकार से आस लगाता है तो कभी आम हिन्दुस्तानियों से। जब कहीं आस पूरी नहीं होती तो वो अन्त में खुद ही परिस्थितियों से लड़ने का निर्णय करता है..। उसे समझ में आ जाता है कि उसकी परेशानियों का हल केवल उसके खुद अपने लिए लड़ने में और अपनी ज़मीन को हर हाल में वापिस हासिल करने में है।

आशीष कौल की यह कहानी इसलिए पढ़ना ज़रूरी है ताकि आप आज़ाद भारत में कश्मीरी पन्डितों पर हुई ज़ुल्मों की सच्चाई जान पाए। कश्मीर के इतिहास के उस काले अध्याय से रूबरू हो पाएं जिसे छिपाए रखने की हर संभव कोशिश की गई है। यह जान सकें कि सत्ता के लालच और वोटबैंक के स्वार्थ ने किस तरह इस देश की पीढ़ियां  बरबाद कर दी। यह समझ पाएं कि अपने ही देश में शरणार्थी बनकर जीने का अर्थ क्या होता है। यह किताब कश्मीर के सही इतिहास को भी समझाती है, उन राजनीतिक परिस्थितियों की भी बात करती है जिसकी वजह से बार-बार वादी के हालात बदले और आज तक वहां स्थिरता नहीं आ पाई है।

आशीष कौल की किताब की खासियत यह है कि यह जो हुआ उसे तो सामने लाती है लेकिन इसकी ज़िम्मेदारी किसी एक के मत्थे नहीं मढ़ती। इसमें सरकार के साथ कश्मीरी पन्डितों और कश्मीरी मुसलमानों की नाकामियों की भी बात की गई है। दोष उनका भी था क्योंकि वो एकजुट होकर इन आतंकवादियों से लड़े नहीं और उनकी चालों का शिकार बन गए। कहानी का अन्त लेखक ने उम्मीद के रूप में गढ़ा है। यह काल्पनिक अन्त कश्मीर समस्या के समाधान का एक रास्ता भी सुझाता है।

इसे पढ़िए, निश्चित तौर पर पढ़िए, उस डरावनी हकीकत से दो चार होने के लिए पढ़िए जिसका ज़िक्र तक नहीं करता कोई।

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