भुवाल रियासत के सन्यासी राजा की कहानी, जो मौत के 12 साल बाद फिर लौट आयाः भारत के इतिहास में जड़ा अद्भुत, अनोखा और रहस्यमयी सच
यह सच है, कि सच, कहानी से कहीं ज़्यादा अजीब होता है। ऐसा ही एक सच है भुवाल रियासत के राजकुमार रमेन्द्र कुमार रॉय चौधरी का, जो अपनी मौत के 12 साल बाद लौट आए। 37 साल तक अपनी पहचान पाने के लिए उन्होंने कानूनी केस लड़ा। भुवाल सन्यासी के इस मुकद्मे को भारत में ही नहीं बल्कि विश्व कानून के इतिहास के सबसे आश्चर्यजनक मुकद्मों में से एक माना जाता है। चलिए पढ़ते हैं यह अजीब-अद्भुत, कहानी जैसा लगने वाला ऐतिहासिक सच।
यह इतिहास कभी पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी रियासत रही भुवाल रियासत से जुड़ा है जिसके अन्तर्गत 2000 गांव आते थे औऱ जिसकी जनसंख्या लगभग पांच लाख थी। देश के विभाजन के बाद यह रियासत पहले पाकिस्तान का हिस्सा बनी और बांग्लादेश बनने के बाद अब यह बांग्लादेश के गाज़ीपुर क्षेत्र में पड़ती है। हालांकि भुवाल रियासत का नाम बदल दिया गया है लेकिन जयदेबपुर स्टेशन अभी भी बांग्लादेश में मौजूद है जहां यह रियासत पड़ती थी।
लौटते हैं कहानी पर। तो सन् 1700 से भुवाल रियासत हिन्दू ज़मीन्दारों के अधीन थी। 1901 में रियासत के आखिरी राजा राजेन्द्र नारायण रॉय चौधरी की मृत्यू के बाद इस परिवार में विधवा रानी विशालमणि देवी और उनके तीन बेटे और 3 बेटियां रह गए। पूरा परिवार जयदेबपुर राजबाड़ी यानि कि रॉयल पैलेस में रहता था। रियासत के तीन राजकुमारों में से मंझले राजकुमार रमेन्द्र कुमार की यह कहानी है। इन्हें सबसे काबिल और सबसे होशियार माना जाता था। कुमार रमेन्द्र को शिकार का बहुत शौक था। जानवरों से इन्हें बेहद प्यार था। कहते हैं कि रियासत की सम्पत्तियों में कई हाथी, घोड़े, जानवर और यहां तक कि एक चिड़ियाघर भी शामिल था जिनमें अन्य जानवरों समेत पालतू शेर भी थे।
राजकुमार थे, पैसा था तो शराब पीने से लेकर, मौज मस्ती करने और नर्तकियों पर पैसा लुटाने तक के सभी राजगुण भी इन राजकुमारों में थे।
1905 में राजकुमार रमेन्द्र का विवाह 13 साल की विभावती देवी से हुआ जो एक पढ़ी लिखी किशोरी थी। उनका भाई सत्येनद्रनाथ बैनर्जी भी बीए पास था। वह भी वहीं जयदेब राजबाड़ी में रहने लगा। वो शिकार और अन्य जगहों पर भी कुमार रमेन्द्र के साथ जाया करता था।
इसी दौरान अपनी गलत आदतों के चलते रमेन्द्र को सिफलिस रोग हो गया। हालांकि इलाज चल रहा था लेकिन लगातार बीमारी के और बढ़ने के कारण 1909 में रमेन्द्र अपनी पत्नि, सत्येनद्रनाथ, राजपरिवार के डॉक्टर आशुतोष और नौकर-चाकरों के बड़े लाव लश्कर के साथ दार्जिलिंग आ गए। मकसद मरीज की आबोहवा बदलना था। लेकिन हुआ उल्टा। यहां आकर तीन हफ्तों में ही रमेन्द्र की हालत बेहद बिगड़ गई। उन्हें खूनी दस्त, उल्टी, शरीर में कंपकंपी जैसे रोग हो गए। और 7 मई 1909 को शाम साढ़े सात बजे के लगभग डॉ आशुतोष ने उन्हें क्लीनिकली मृत घोषित कर दिया। उस समय उनकी आयु 25 वर्ष थी।
अगले दिन 8 मई को पास ही नदी किनारे उनका दाह संस्कार कर दिया गया। इस दाह संस्कार में उनकी पत्नी विभावती के अलावा रमेन्द्र के परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं था।
अगले दस सालों में रमेन्द्र के बाकी दोनों भाईयों की भी मृत्यू हो गई और ब्रिटिश सरकार के नियमों के हिसाब से कोई उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण भुवाल रियासत को ब्रिटिश सरकार के अधीन कर लिया गया। राजपरिवार को हर महीने एक फिक्स्ड राशि गुजाराभत्ता के तौर पर दी जाने लगी।
मौत के 12 साल बाद लौट आए रमेन्द्र
लेकिन 12 साल बाद यानि सन् 1921 में भुवाल रियासत में एक नागा सन्यासी आया और उसने राजबाड़ी के बाहर अपनी धूनी रमा ली। उसकी शक्ल राजा रमेनद्र से बिल्कुल मिलती थी। लोग उन्हें भुवाल सन्यासी कहने लगे। कुछ ही दिनों में राजकुमारा रमेन्द्र जैसे दिखने वाले साधू की चर्चा दूर दूर तक होने लगी। बातें सुनकर रमेन्द्र की छोटी बहन ज्योतिर्मयी भी उनसे मिलने आईं। ज्योतिर्मयी सन्यासी से मिलकर हैरान थी। उनके हिसाब से वो उनका भाई राजकुमार रमेन्द्र था। वहीं राजकुमार रमेन्द्र जिसकी 12 साल पहले मृत्यू हो चुकी थी। हांलाकि सन्यासी खुद को रमेन्द्र मानने को तैयार नहीं था। सन्यासी को जयदेब राजबाड़ी ले जाया गया। दो हफ्तों तक वहां रहने के बाद और काफी याद दिलाने और मान मनोव्वल करने के बाद सन्यासी ने मान लिया कि वहीं राजकुमार रमेन्द्र है। हालांकि उसकी राजपरिवार में लौटने और रियासत की सम्पत्ति में कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन ज्योतिर्मयी ने किसी तरह उसे मना लिया।
यहां से शुरू हुई भारत के इतिहास की सबसे हैरान करने वाली कानूनी लड़ाई। पहले कोर्ट ऑफ वॉर्ड्स, फिर हाई कोर्ट और फिर लंडन की प्रिवी काउन्सिल में 37 साल तक भुवाल सन्यासी को राजकुमार रमेन्द्र साबित करने की लम्बी कानूनी लड़ाई चली और आखिरकार 30 जुलाई 1946 को बहुत सारे फॉरेन्सिक सबूतों और सैकड़ों गवाहों की गवाही के आधार पर साबित हुआ कि यह सन्यासी वास्तव में राजकुमार रमेन्द्र ही थे। आखिरी फैसला आने की खुशी में इसी शाम जब राजकुमार परिवार के साथ पूजा करने जा रहे थे, तभी उनको अचानक दिल का दौरा पड़ा और ठीक दो दिन बाद उनकी मृत्यू हो गई।
अब बात करते हैं, उन घटनाओं, सबूतों और गवाहों की जिनसे मिले तथ्यों के आधार पर राजकुमार रमेन्द्र के दाह संस्कार और लौट के आने के बीच की सारी कहानी सामने आई और साथ ही यह साबित हुआ कि भुवाल सन्यासी ही राजकुमार थे। इस कहानी के कुछ प्रमुख किरदार और महत्वपूर्ण घटनाएं थी। इन्हीं की जरिए इस पूरे मामले की सच्चाई को समझते हैं-
1- सत्येन्द्रनाथ बैनर्जी
-विभावती का भाई सत्येन्द्रनाथ बैनर्जी शुरू से रमेन्द्र को नापसन्द करता था। इसकी वजह थी, रमेन्द्र का विभावती के प्रति उदासीन व्यावहार। वो अक्सर विभावती को भी रमेन्द्र के खिलाफ भड़काया करता था।
-सत्येन्द्रनाथ ने रमेन्द्र को उसका जीवन बीमा करवाने के लिए मना लिया था और वो इसके लिए रमेन्द्र को कलकत्ता भी लेकर गया था। बीमा करने वाले ब्रिटिश डॉक्टर ने उनकी शारीरिक जांच की थी। इसी जांच रिपोर्ट ने बाद में भुवाल सन्यासी की फॉरेन्सिक जांच और उन्हें राजकुमार रमेन्द्र साबित करने में अहम् भूमिका निभाई।
-सत्येन्द्रनाथ ने राजपरिवार के डॉक्टर आशुतोष को अपने साथ मिला लिया था। दोनोंं साजिश के तहत सिफलिस के इलाज के बहाने रमेन्द्र को दार्जीलिंग ले गए थे। यहां आशुतोष ने धीरे-धीरे रमेन्द्र को आर्सेनिक ज़हर देना शुरू किया। नतीजतन रमेन्द्र की हालत और बिगड़ने लगी। आखिरी समय में रमेन्द्र, आशुतोष और सत्येन्द्र का असली चेहरा पहचान गए थे, लेकिन वो कुछ भी करने की हालत में नहीं थे।
-जब आशुतोष ने उन्हें मृत घोषित किया तब वास्तव में वो बेहोश हुए थे। रात के समय ही उनको दाह संस्कार के लिए ले जाया गया। लेकिन अचानक से तेज़ तूफान और बारिश आ जाने के कारण लोग रमेन्द्र का शरीर वहीं छोड़कर भाग गए। बारिश रुकने के बाद जब सब लोग वापस आए तब रमेन्द्र का शरीर गायब था।
- गवाही में यह तथ्य सामने आया कि शव गायब होने से घबराए हुए सत्येन्द्रनाथ और डॉ आशुतोष ने विक्टोरिया हॉस्पिटल से एक और शव का इंतज़ाम किया था और अगले दिन उस शव का राजकुमार रमेन्द्र बताकर दाह संस्कार कर दिया गया।
हालांकि यह सब साबित नहीं हुआ।
2- नागा साधू
-7 मई 1909 की रात को कुछ नागा साधू जब दार्जिलिंग में नदी किनारे वाले शमशान घाट के पास से गुज़र रहे थे तभी आंधी तूफान के बीच उन्हें एक चिता पर रखा शव हिलता दिखाई दिया। पास जाने पर पता चला कि वो व्यक्ति ज़िन्दा था लेकिन उसकी हालत बेहद खराब थी। नागा साधू उसे अपने साथ ले गए। आयुर्वेदिक दवाईयों से उसका इलाज किया और कुछ समय में वो बिल्कुल ठीक हो गया। लेकिन वो अपनी याददाश्त खो चुका था।
-नागा साधुओं ने उसे सुन्दरदास नाम दिया। 11 साल तक सुन्दरदास नागाओं के साथ पूरे देश में तीर्थ स्थानों पर घूमता रहा। ग्यारहवें साल में उसकी याददाश्त वापस आई। तब नागा गुरू धरमदास ने उसे वापस जाने के कहा। इसके बाद ही सुन्दरदास ढाका स्थित भुवाल रियासत वापस आया जहां सब लोगों ने उसे पहचाना।
3- कोर्ट में सामने आए तथ्य
-राजकुमार रमेन्द्र धाराप्रवाह बंगाली बोला करते थे। लेकिन 12 साल बाद वापस लौटा भुवाल सन्यासी बंगाली बिल्कुल भूल चुका था। वो उर्दू मिश्रित हिन्दी में बात करते थे।
-भुवाल राजा को सबने पहचाना लेकिन उनकी पत्नी विभावती ने उन्हें राजकुमार रमेन्द्र मानने से साफ इन्कार कर दिया। बल्कि सत्येन्द्र और विभावती ने बार-बार भुवाल सन्यासी के खिलाफ अपील की।
-कोर्ट की कार्यवाही के दौरान यह भी सामने आया कि रमेन्द्र की मां विशालमणि देवी को मृत्यू में भी सत्येन्द्र और आशुतोष का हाथ था और उन्हें भी ज़हर देकर मारा गया था, हांलाकि यह भी कभी साबित नहीं हुआ।
-अकाट्य फॉरेन्सिक सबूतों के आधार पर बिना शक राजकुमार रमेन्द्र और भुवाल सन्यासी एक ही शख्स साबित हुए लेकिन फिर भी यह रमेन्द्र द्वारा बंगाली भूल जाने के कारण, उनमें सिफलिस रोग के कोई लक्षण नहीं मिलने के कारण और कुछ अन्य ऐसे ही कारणों से यह शक हमेशा बना रहा कि वो राजकुमार रमेन्द्र का हमशक्ल कोई बहरूपिया था जिसे कि राजपरिवार केवल इसलिए लेकर आया था कि ब्रिटिश सरकार से रियासत को वापस हासिल किया जा सके। अन्तिम फैसला आने के दो दिन बाद ही रमेन्द्र की मौत हो जाने से यह शक और पुख्ता हुआ।
बहरहाल, अद्भुत,अनोखे और रोमांचक तथ्यों से भरी इस सत्यकथा पर कई फिल्में और उपन्यास लिखे जा चुके हैं जिनमें से सबसे विश्वसनीय पार्था चटर्जी द्वारा लिखित - 'ए प्रिन्सली इम्पोस्टर: द कुमार ऑफ भुवाल एन्ड सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ इन्डियन नेशनलिज़्म' मानी जाती है।
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