आंखों में सपने हो और कुछ करने की तमन्ना हो तो बिहार से बॉलीवुड का सफर दूर नहीं...

सप्ताह का साक्षात्कार- रवि भूषण भारतीय


पान सिंह तोमर फिल्म के गुस्सैल और आक्रोशित बलराम सिंह तोमर याद हैं आपको....?... और अगर आपने हाल ही में रिलीज़ नेशनल अवॉर्ड विजेता फिल्म ‘फिल्मिस्तान’ देखी है तो उसके बंदूकधारी पाकिस्तानी किडनैपर को भी नहीं भूले होंगे आप.....! इन किरदारों में जान फूंकने वाले युवक का नाम है रवि भूषण भारतीय। बिहार के पूर्णिया जिले के रवि की आंखों में बचपन से बॉलीवुड में जाने के सपने सजते थे, और अब वो अपनी मेहनत, हिम्मत और प्रतिभा के दम पर अपनी मंजिल के बहुत करीब पहुंच चुके हैं। वो दिन दूर नहीं जब भोपाल के माखनलाल विश्वविद्यालय का यह छात्र आपको बॉलीवुड के चमकते सितारे के रूप में दिखेगा..., क्योंकि जहां हुनर हो, आजमाइश की तैयारी हो, खुद को उस चीज़ के लिए झोंकने की चाह हो, जिसका सपना आंखों में सजता हैं, वहां सफलता में कहां इतना दम कि वो पीछे-पीछे ना आए।

हमने जब रवि से उनके सफर, सपनों और अनुभव के बारे में बात की तो उन्होंने बेहद ईमानदारी और बेबाकी से अपने अनुभव हमारे साथ साझा किए। आप भी यह साक्षात्कार पढ़ेंगे तो जान पाएंगे कि अगर चाह हो और इरादा पक्का हो तो रास्ता मिल ही जाता है... फिल्मी अंदाज में कहें तो- अगर आप किसी चीज़ को दिल-ओ-जान से चाहों तो पूरी कायनात आपको उससे मिलाने में लग जाती है..

शुरूआत आपके अतीत से करते हैं। कहां से हैं आप और बॉलीवुड तक पहुंचने का खयाल कैसे आया?

मैं बिहार के एक छोटे से गांव पूर्णिया का रहने वाला हूं और मेरी स्कूलिंग जवाहर नवोदय विद्यालय से हुई है। शुरूआत से ही अभिनय का शौक था और स्कूली रंगकर्म में भाग लिया करता था। 1998 की बात है, तब मैं बारहंवी कर चुका था, हमारे यहां एनएसडी का वर्कशॉप हुआ जो आलोक चटर्जी ने करवाया था। मैंने उसमें भाग लिया और उन्होंने मेरे काम की काफी सराहना की। मैंने उनसे पूछा कि मैं अभिनय को अपना प्रॉफेशन बनाना चाहता हूं और मुझे कहां जाना चाहिए। तब उन्होंने मुझे भोपाल या दिल्ली जाने की सलाह दी। बस रास्ता मिल गया था और मैं भोपाल आ गया। यहां मैंने माखनलाल विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया।

लेकिन आपने माखनलाल विद्यालय को ही क्यों चुना?

इसकी दो वजहें थीं। पहली तो मैं आगे एनएसडी में दाखिला लेना चाहता था जिसके लिए ग्रेजुएट होना ज़रूरी था, दूसरे मैंने जिस कोर्स में दाखिला लिया था- बैचलर ऑफ जर्नलिज्म, वो भी ऐसा था जो मेरे लिए सहायक होता। मेरे कुछ सीनियर्स ने भी मुझे काफी प्रोत्साहित किया था और आलोक चटर्जी की बात भी मुझे याद थी। तो बस उस समय माखनलाल विद्यालय ही सबसे सही विकल्प लगा और उसमें दाखिला ले लिया। यहां आकर भी मैं लगातार रंगमंच से जुड़ा रहा। मैंने कभी अभिनय को नहीं छोड़ा।

फिर एनएसडी में दाखिला लिया?
नहीं एनएसडी में नहीं एफटीआई में दाखिला लिया। दरअसल साल 2003 में मैं एनएसडी में दाखिले के लिए गया था। इंटरव्यू तक पहुंचा लेकिन वहां मेरा दाखिला नहीं हुआ। वो मेरे लिए मायूसी का वक्त था। मैं वापस भोपाल लौट आया और थिएटर से जुड़ गया। लगभग 6 महीने मैंने जमकर थिएटर किया। मैं हबीब तनवीर से जुड़ा, अलखनंदन जी के ग्रुप नट-बुंदेले से जुड़ा। वहां मैंने अंडोरा नाम से एक नाटक किया था जिसके लिए मुझे मध्यप्रदेश की तरफ से बेस्ट एक्टर के लिए भी नामित किया गया था। छ: महीने वहां रुकने के बाद मैं एफटीआई में दाखिला लेने पुणे चला गया। और यह मेरा सौभाग्य था कि एफटीआईआई में 28 साल पहले बंद हुआ एक्टिंग का कोर्स उसी साल दोबारा शुरू किया गया था। एफटीआई के डायरेक्टर त्रिपुरारी शरण ने इसे शुरू किया था। पूरे देश से केवल 20 लोगों का उसमें सलेक्शन हुआ था जिनमें से एक मैं था।

आपको पहला ब्रेक कम मिला?

2007 की शुरूआत में मेरा एफटीआई का कोर्स खत्म हुआ और तभी मुझे मेरी पहली फिल्म मिली- ‘वो सुबह किधर निकल गई’। 86 मिनट की यह फिल्म पांच दोस्तों की कॉलेज लाइफ और उसके बाद की जिंदगी पर आधारित थी। इसे गोवा फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया था। अभी हाल में ही इंडिया हैबिटेट सेंटर में भी इसकी स्क्रीनिंग की गई थी। फिलहाल इस फिल्म को स्टार गोल्ड ने खरीद लिया है।

उसके बाद का सफर कैसा रहा। ‘वो सुबह किधर निकल गई‘ से ‘पान सिंह तोमर’ और ‘फिल्मिस्तान’ तक कैसे पहुंचे? 


उसके बाद का सफर बिल्कुल आसान नहीं था। 2007 में मैं मुम्बई आ गया। मैंने सोच लिया था कि अब वापस नहीं जाना है और हर हाल में अपनी मंजिल को हासिल करना है। मैं लगातार अच्छे रोल की तलाश में था। इस दौरान सीआईडी, क्राइम पेट्रोल जैसे सीरियल्स में कुछ छोट-मोटे रोल्स भी किए। लेकिन पान सिंह तोमर तक पहुंचते पहुंचते एक डेढ़ साल लग गया। मुझे पता चला कि तिग्मांशु धूलिया को एक एग्रेसिव चेहरे की तलाश थी। वो लगभग पूरी इंडस्ट्री का ऑडिशन ले चुके थे। मुझे मालूम था कि इस रोल के लिए मैं ही सबसे फिट हूं। मैंने उन्हें एसएमएस किया, तब जवाब नहीं आया। दोबारा एसएमएस किया, तब उन्होंने मुझे बुलाया और डेढ़ घंटे तक खुद मेरा ऑडिशन लिया। उसके बाद भी उन्होंने कुछ बताया नहीं। दूसरे दिन उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि मुझे बलराम के रोल के लिए चुन लिया गया है। उस वक्त इतनी ज्यादा खुशी हो रही थी कि बयान नहीं कर सकता। पहली बार इतने बड़े बैनर में, बड़े अभिनेताओं और डायरेक्टर के साथ काम करने का मौका मिला था। मैं बहुत खुश था। बस इसके बाद फिल्मिस्तान और अन्य फिल्में मिली।

और कौन सी फिल्में कर रहे हैं?
रणदीप हूडा के साथ शूटर नाम की फिल्म कर रहा हूं जिसके डायरेक्टर विश्राम सावंत हैं। इसके अलावा स्प्रिंग थंडर नाम से एक फिल्म कर रहा हूं जो बिल्कुल तैयार है। एक और फिल्म है, जिसका नाम शायद बुल, बुलबुल, बंदूक होगा। इसका पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है। इसमें मैंने केके मेनन, जैकी श्रॉफ और जिमी शेरगिल जैसे अभिनेताओं के साथ काम किया है। इसके अलावा मेरी पहली लीड रोल की जो फिल्म है वो है ‘खेलमंत्रा’। इस फिल्म का हीरो मैं हूं। यह फिल्म पूरी तरह से मेरे कंधो पर टिकी है। सटोरियो और सट्टेबाज़ी की कहानी है। पूरी तरह कमर्शियल फिल्म है। य़ह फिल्म पूरी हो चुकी है और बस इसके डिस्ट्रीब्यूशन की बात चल रही है। उम्मीद है कि सितम्बर-अक्टूबर तक यह फिल्म रिलीज़ हो जाएगी।



फिल्म इंडस्ट्री में आपका अनुभव कैसा रहा? लोग कहते हैं यह चकाचौंध की दुनिया है, यहां जमना आसान नहीं। फिर आपके तो परिवार में भी कोई दूर दूर तक फिल्म इंडस्ट्री से जुड़ा हुआ नहीं है। ऐसे में आपको कितनी मुश्किलें हुईं?
देखिए यहां दिखावा वाला मामला बहुत चलता है। फिल्म इंडस्ट्री में दो तरह की चॉकलेट्स हैं। एक बहुत बढ़िया क्वालिटी की और बढ़िया चॉकलेट है लेकिन उसकी पैकेजिंग बड़ी लोकल टाइप है। मार्केटिंग अच्छी नहीं। इसलिए उसकी मांग कम है। ज्यादा लोग उसे नहीं खरीदते और दूसरी ओर एक कामचलाऊ, ठीकठाक चॉकलेट है लेकिन उसकी पैकेजिंग बड़ी जबरदस्त है, शानदार दिखती है तो लोग उसे खरीदने चले आते हैं। यहां लॉबीज़ भी बहुत चलती हैं। आपने किस डायरेक्टर के साथ काम किया है, यह भी महत्वपूर्ण होता है। मुझे यह बातें हालांकि देर से समझ आईं लेकिन अब आ गई हैं। दूसरे, मुझे अपने काम पर हमेशा से भरोसा था। मैं जानता था कि मुझमें टैलेंट है और देर से ही सही मौका मिलेगा। मैं हमेशा सकारात्मक रहा, हिम्मत कभी नहीं हारी। बस दीवार में से एक ईंट उखाड़ने की देर है, पूरी दीवार टूटती चली जाती है। मुझे भी एक ब्रेक मिला, लोगों ने काम देखा तो अब यकीन है कि मंजिल दूर नहीं।

लेकिन स्ट्रगल का दौर कैसा रहा। आर्थिक तंगी के दौर में कैसे अपने आपको संभाला।
मेरे भैया डॉक्टर हैं और जब मैंने अपने घर में इस प्रॉफेशन को चुनने के बारे में बताया था तो पापा खुश नहीं थे। क्योंकि वो यहीं चाहते थे कि मैं भी भैया की तरह डॉक्टर बनूं। लेकिन मैं सबकुछ छोड़कर आ गया। जब तक भोपाल में था, थिएटर के साथ हमेशा कुछ काम करता रहा ताकि कोई फाइनेंशियल दिक्कत ना हो। लेकिन मेरे मम्मी-पापा और भैया ने भी मेरा पूरा साथ दिया। वो लोग भले ही नहीं चाहते थे कि मैं यह काम करूं लेकिन उन्होंने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा। मुझे याद है जब मेरा एफटीआईआई में एडमिशन हुआ था तो उसकी सालाना फीस ढाई लाख रुपए थी। तब मैं बहुत परेशान हो गया था। सोचता था कि मुझे दाखिला नहीं लेना। तब मेरे भैया ने मुझसे कहा कि- लोगों को तो यहां एडमिशन नहीं मिलता और तुम्हें मिल गया है तब तुम मना कर रहे हो। तुम फीस की चिंता क्यों कर रहे हो। यह सब हम देख लेगें। तब मेरे भैया ने सारी जिम्मेदारी ली। उन्हीं लोगों का प्यार और विश्वास है कि मैं यहां तक पहुंचा हूं। हर कदम पर वो लोग मेरे साथ रहे।

जो लोग आपकी तरह आंखों में सपने लिए बॉलीवुड का रुख करते हैं, उनके लिए कोई सलाह?

बस यहीं कहूंगा कि चकाचौंध से प्रभावित होकर यहां बिल्कुल मत आओ। यहां आओ तो पूरी तैयारी और होमवर्क के साथ आओ। और यह भी याद रखों कि यहां सफल होने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति की ज़रूरत है। मायूसी मिलती है लेकिन निराश नहीं होना है। कोशिश करते रहना है तो सफलता ज़रूर मिलती है। हमेशा पॉजिटिव एटीट्यूड के साथ काम करो। साथ ही घरवालों का सहयोग और साथ भी बहुत ज़रूरी है।

अपनी तरफ से कुछ कहना चाहेंगे?

मैं यहीं कहना चाहता हूं कि सफलता के रास्ते पर आपको बहुत सारे झूठे और दिखावटी लोग भी मिलते हैं जो आपको पहले तो नीचा दिखाते हैं और जब आप किसी मुकाम पर पहुंच जाते हैं तो वहीं लोग आपकी बढ़ाई करते हैं। आप कभी भी ऐसे लोगों की बातों में आकर खुद को मत परखिए। अपने हुनर पर यकीन रखिए। अपनी ज़मीन कभी मत छोड़िए और हमेशा जैसे हैं, वैसे ही बनकर रहिए। आपको सफलता ज़रूर मिलेगी।

चित्रलेखा अग्रवाल





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