"ज़रा सी भी आहट होती है तो लगता है कि फिर से भूकंप आ गया" ... दिल में तबाही की तस्वीरें और जेब में पशुपतिनाथ का प्रसाद लेकर भारत लौटे मदन शर्मा की आपबीती

26 तारीख को रात नेपाल से वापस हिन्दुस्तान पहुंचे मदन शर्मा
25 तारीख की दोपहर लगभग 12 बजे का समय था। मैं और मेरे भाई साहब पशुपतिनाथ मंदिर और बागमती नदी के दर्शन करने के बाद पास की ही छोटी सी पहाड़ी के दूसरे तरफ बसे पार्वती मंदिर को देखने जाने के लिए पहाड़ी चढ़ रहे थे। मौसम गर्म था लेकिन तेज़ ठंडी हवाएं भी चल रही थीं। हम उस पहाड़ी के रास्ते में जगह जगह दिखने वाले बंदरों को देखते हुए धीरे-धीरे चल रहे थे कि अचानक धरती डोल उठी..। पहला झटका ज़बरदस्त था, हम पहाड़ी से गिरते-गिरते बचे। अभी संभल भी नहीं पाए थे कि दूसरा झटका लगा..। पहाड़ी अचानक से कांपने लगी, पहले तो समझ नहीं आया क्या हुआ, लेकिन फिर एक के बाद एक झटके खाने के बाद समझ आ गया कि भूकंप आया है...। कुछ देर पहले तक जहां शांति का आलम दिख रहा था अचानक दहशत फैल गई.। पहाड़ी का रास्ता चढ़ते लोग एक दूसरे का हाथ पकड़ कर डरे सहमे से खड़े हो गए थे। मैंने भी भाईसाहब को कस कर पकड़ लिया और धीरे-धीरे हम नीचे बैठ गए। आस-पास के बंदरों तक में डर का माहौल दिख रहा था, पहाड़ी के लगभग सारे बंदर एक जगह इकट्ठे हो गए थे। नीचे से शोर और दीवारें टूटने के धमाकों की आवाज़ें आ रही थीं। सब लोगों के बीच डर का माहौल था। पहाड़ीं पर जगह-जगह चाय नाश्ते और दूसरे सामानों की छोटी-छोटी दुकानें खोले बैठे दुकानदार, महिलाएं सभी डरकर दुकानों से बाहर आ गए थे और नीचे शहर में हर झटके के साथ आती बरबादी का मंज़र देख रहे थे...। लोगों की चीख-ओ-पुकार की आवाज़ें, रह-रह कर पहाड़ी का डोलना.., लगातार झटके आना..और खुद को बचाने की जद्दोजहद.. लगभग डेढ़ घंटे तक यहीं सब चलता रहा। हममें से कोई भी डर के मारे ना तो पहाड़ी से ऊपर जा रहा था और ना ही नीचे उतर रहा था। क्योंकि यहां से शहर में तबाही का आलम साफ नज़र आ रहा था, ताश के पत्तों की भांति इमारतें और मंदिर ढह रहे थे। अचानक से ही सामान्य सा माहौल मातम में बदल चुका था।

लगभग डेढ़ घंटे बाद भी पहाड़ी से उतरने की हिम्मत नहीं हुई। पास ही एक चाय-नाश्ते की छोटी सी दुकान थी। मुझे और भाईसाहब के साथ अन्य लोगों को भी बहुत भूख  लग रही थी, सो उस दुकान की मालकिन से पूछा कि क्या उसके पास मैगी है? ... उसने जवाब दिया कि साहब है तो लेकिन दुकान के अंदर जाकर उसे बनाएगा कौन। अगर कहीं फिर भूकम्प आ गया और दुकान गिर गई.. मरने का खतरा था। उसकी बात सही थी इसलिए हम कुछ नहीं बोले। फिर कुछ देर बाद वो महिला खुद ही बोली कि आप लोगों के लिए चाय बना देती हूं लेकिन आप सब लोग रास्ते से सामान हटा दीजिए जिससे अगर कोई झटका लगे तो मैं फौरन भागकर बाहर आ जाऊंगी। उस समय वो महिला चाय पैसे कमाने के लिए नहीं, बल्कि हमारी परेशानी और भूख को देखते हुए बनाने के लिए तैयार हुई थी। चाय बनी, हम सबने पी.. और इस दौरान रह-रहकर भूकंप के झटके आते रहे।



शाम चार बजे के लगभग हम लोगों ने आखिरकार पहाड़ी से उतरकर अपने होटल में पहुंचने का मन बनाया। हिम्मत जवाब दे चुकी थी, लेकिन इसके अलावा और कोई चारा नहीं दिख रहा था। सामान लेने और वापस भारत लौटने की सूरत तलाशने के लिए होटल पहुंचना ज़रूरी था। हम लोग जब नीचे उतरे तो हर तरफ खौलनाक तबाही का मंजर था। सड़के फट गईं थीं, मकान, इमारतें और मंदिर मलबे में तब्दील हो गए थे और उस मलबे से लगातार चीख-पुकार की आवाज़े आ रही थीं। उनके नीचे लोग फंसे हुए थे और बहुत से स्थानीय निवासी उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे थे। किसी तरह होटल तक पहुंचे, तब तक बीच-बीच में भी भूकंप के झटके आते रहे थे। उस समय तो ऐसा लग रहा था कि कहीं अगला पल हमारा आखिरी पल ना हो। होटल को भी थोड़ा नुकसान पहुंचा था। जब हम वहां पहुंचे तो होटल मैनेजर हमें वहां से निकालकर दूसरे मज़बूत होटल में पहुंचाने का इंतज़ाम कर चुका था। हम लोगों को पास के ही दूसरे मज़बूत होटल ले जाया गया। वहां खाने का तो कोई इंतज़ाम नहीं था, अधिकतर बैरे, कुक वगैरह भूकंप आने की वजह से अपने घरवालों के पास गांवों में चले गए थे। जो घर से नाश्ता ले गए थे, उसी को खाकर किसी तरह भूख शांत की। लोग होटल की लॉबी में चल रहे टीवी पर खबरें सुन रहे थे। रात में हममें से कोई भी नहीं सो सका था, पूरी रात झटके आते रहे, हर झटके के बाद लोग भागकर सड़क पर आ जाते थे। वहां के स्थानीय लोग तो सड़कों पर ही चादर बिछाकर सो रहे थे।

किसी तरह राम-राम करके रात बीती। उस रात कोई भी नहीं सोया था। हमारी तरह और पर्यटकों को भी अब घर जाने की जल्दी थी। घर के फोन भी लगातार पहुंच रहे थे और मेरी पत्नी-बच्चे सभी जल्दी से जल्दी वापस भारत लौट आने को कह रहे थे। जल्दी हमें भी थी। लेकिन हमारी फ्लाइट दो दिन बाद की थी। और अब यहां रुकना हमारे मन में नहीं था। 26 तारीख की सुबह ही मैंने अपने एक रिश्तेदार से संपर्क किया जो काफी ऊंची पोस्ट पर थे और उन से बात करके उसी दिन दोपहर सवा दो बजे वाली एयर इंडिया की भारत वापसी की फ्लाइट में अपने लिए और अपने भाई साहब के लिए सीटें बुक कीं। हमें एक सीट 32,000 रुपए की पड़ी थी, लेकिन हमें इस बात का सुकून था, कि भारत वापसी की राह दिख रही थी। न्यूज़ चैनल्स पर खबरें सुनकर यह भी पता चल चुका था कि भारतीय रेस्क्यु विमान वहां दवाईयां, खाना और राहत सामग्री लेकर पहुंच चुके हैं। बस एयरपोर्ट जाने की तैयारी ही कर रहे थे कि हमें यह खबर मिली कि भूकंप के कारण रनवे पर भी क्रैक आ गया था जिसके कारण एयर इंडिया ने अपनी फ्लाइट कैंसिल कर दी थी।
नेपाल की धरती बार-बार डोल रही थी और साथ ही आई इस खबर ने मायूसी के बादल घने कर दिए थे। लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। हमारी तरह और भी देशों के पर्यटक वापस पहुंचने का रास्ता तलाश रहे थे। हम लोगों ने योजना बनाई कि किसी तरह अगर हम सोनोली बॉर्डर तक पहुंच जाएं तो वहां से सड़क मार्ग द्वारा बस से हिन्दुस्तान पहुंचा जा सकता है। अपना सामान लेकर बाहर निकले.. टैक्सी वालों से बात की, लेकिन कोई भी टैक्सी वाला वहां जाने को तैयार नहीं था। बहुत लोगों से बात करने के बाद, आखिरकार एक टैक्सी वाला आठ हज़ार रुपए में हमें सोनोली बॉर्डर छोड़ने को तैयार हुआ। लेकिन इस शर्त पर कि हमें ले जाने से पहले वो अपने परिवार से जाकर मिलेगा और अगर परिवार की हामी होती है तभी वो हमें छोड़ने जाएगा। टैक्सी वाला अपने परिवार से मिलने गया और उसके परिवार ने उसे हमारे साथ जाने की इजाज़त नहीं दी।

हमारे सारे रास्ते फिर से बंद हो गए थे। हमने भारतीय दूतावास जाने की सोची, लेकिन काफी लोग बता रहे थए कि वहां से कोई मदद नहीं मिल पा रही है। अब केवल भारतीय सेना से ही मदद की उम्मीद बची थी। टीवी पर लगातार खबरें आ रही थीं कि भारतीय सेना के विमान लगातार नेपाल पहुंच रहे हैं। हमारे पास सुबह बुक कराई हुई एयर इंडिया की फ्लाइट के बोर्डिंग पास थे। तो बस उन्हें लेकर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े। पर मुश्किल अभी खत्म नहीं हुई थी। एयरपोर्ट जाने के लिए भी कोई भी टैक्सी वाला तैयार नहीं था। बहुत मुश्किल से 1000 रुपए में एक टैक्सी वाला जाने को तैयार हुआ। होटल से मात्र 20 मिनट की दूरी वाले त्रिभुवन एयरपोर्ट पर हम ढाई घंटे में पहुंचे। क्योंकि टैक्सी जिस भी रास्ते से निकलती, वो बंद मिलता, कहीं टूटी इमारतों का मलबा था, तो कहीं टैंट लगे थे और कहीं खुद स्थानीय लोग ने अपना अस्थायी निवास बनाया हुआ था, और कहीं रेस्क्यू ऑपरेशन चल रहा था। इसी दौरान एक बार और ज़बरदस्त झटका लग चुका था। धरती अब भी रह-रह कर डोल रही थी। कई जगह से घुमाने के बाद आखिरकार 3 बजे के लगभग टैक्सी वाले ने हमें एयरपोर्ट पहुंचाया।

त्रिभुवन एयरपोर्ट ठसाठस भरा हुआ था। इंच भर भी जगह नहीं दिख रही थी। एयरपोर्ट पर 15 से 20000 लोग मौजूद थे। किसी तरह से हम धक्का मुक्की करके अंदर पहुंचे तो जान में जान आई। सामने इंडियन एयरफोर्स ने टैंट लगा रखे थे। लगातार लोगों को दवाईयां, गर्म कपड़े, खाने के पैकेट वगैरह बांटे जा रहे थे। पता चला कि हर घंटे भारत का एक विमान वहां राहत सामग्री लेकर पहुंच रहा था और वापसी में भारतीयों को ले जा रहा था। हमारे एयरफोर्स के फौजी भाई सारे लोगों की हर संभव सहायता कर रहे थे। भारतीय विमानों के अलावा चीन के विमान भी लगातार आ रहे थे। दो दिन से भूखे लोग एयरफोर्स से मिला खाना खाकर बहुत सुकून में थे। एक बार तो खाने को लेकर भगदड़ भी मच गईं। लोगों ने अपने परिवार वालों के लिए खाने के पैकेट लूट लिए। लेकिन भीड़ और लोगों की परेशानी का मज़ंर देख कर एयरफोर्स के फौजी उनको बिना कुछ कहे उनकी मदद की कोशिश कर रहे थे।

बहुत सारे लोग रनवे के पास जमा थे और जैसे ही कोई प्लेन उड़ने के लिए तैयार होता, लोग दौड़कर रनवे पर पहुंच जाते कि पहले उन्हें चढ़ा लिया जाए।  बहुत से भारतीयों का वहां मौजूद दूतावास के लोगों से झगड़ा भी हुआ क्योंकि वो उन लोगों को अंदर नहीं जाने दे रहे थे जिनके पास बोर्डिंग पासेस नहीं थे। आखिरकार एक बुज़ुर्गवार ने पीएमओ फोन करने की धमकी दी और कहां कि अगर उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया गया और उस प्लेन में नहीं चढ़ने दिया गया जो कि सरकार की तरफ से भारतीयों को बचाने के लिए भेजा गया है तो वो इसके खिलाफ शिकायत करेंगे। किसी तरह मामला सुलझा और फिर सभी भारतीयों के नाम लिख लिखकर उन्हें कतार में खड़ा किया जाने लगा।

मेरा नंबर लगभग ढाईसौवां रहा होगा और मेरे भाई साहब मुझसे और थोड़ा पीछे थे। इतवार की उस शाम उस कतार में लगने के बाद पहली बार मुझे दिल से सुकून का अहसास हुआ। एयरपोर्ट पर मुस्तैद भारतीय एयरफोर्स के जवानों को डटा देखकर, हर घंटे पहुंच रहे भारतीय विमान को देखने के बाद और मोदी जी के नाम का बोलबाला महसूस करने के बाद, दो दिन में पहली बार मुझे विश्वास हुआ कि मैं सलामत अपने घर पहुंच जाऊंगा।

6 बजे के लगभग एयरफोर्स का मालवाहक जहाज दवाईयां और खाद्य सामग्री लेकर रनवे पर आया। पहले उसे खाली किया गया और फिर हमें उसमें चढ़ाया गया। उस मालवाहक जहाज में एयरबस की तरह सीटें नहीं थीं। औरतों और बुज़ुर्गों को साइड में सामान रखने की सीटों पर बिठाया गया और बाकी लोगों को विमान में अंदर नीचे बिठा दिया गया। एयरफोर्स के जवान बार-बार आग्रह कर रहे थे कि जितने ज्यादा से ज्यादा लोग विमान में आ सकते हैं आ जाएं। बस किसी तरह विमान में बैठ जाएं तो हम आपको सकुशल भारत ले जाएंगे। लगभग साढ़े चार सौ भारतीय उस मालवाहक विमान में टिक गए और रात आठ बजे जब उस विमान ने उड़ान भरी, हमनें नेपाल की धरती से विदा ली और अपने देश लौट चले। इस वापसी की यात्रा के दौरान लोगों के चेहरों पर जो सुकून और खुशी का आलम था वो बयान से परे हैं। केवल हम बचने वाले ही नहीं, हमें बचाने वाले एयरफोर्स के जवानों के चेहरे भी खुशी और संतोष से दमक रहे थे। मैं तेईस तारीख की रात को यहां नेपाल घूमने के लिए भाई साहब के साथ पहुंचा था। दो दिन की भगदड़, बदहवासी के बाद अब जोड़ रहा था कि इस यात्रा के दौरान क्या खोया क्या पाया...। मोबाइल के कैमरे में तबाही के मंजर कैद थे, अटैजी में पशुपतिनाथ मंदिर का प्रसाद., .बगल में भाई साहब थे, दिमाग में प्रकृति के इस क्रोध की तस्वीरें और दिल में घर लौटने की खुशी...।  दस बजे हमारे विमान ने दिल्ली लैंड किया और हम उस जलजले से निकलकर सकुशल अपनी भारत की धरती पर लौट आए।
(नेपाल से बचा कर लाए गए गाज़ियाबाद निवासी श्री मदन शर्मा से बातचीत पर आधारित)


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