कहीं बागों में बहार हैं, कहीं बाग उजाड़ है...


गज़ब! 4 नवंबर, 2016 का एनडीटीवी प्राइम टाइम तो सचमुच अद्भुत था, अकल्पनीय, अविश्वस्नीय.. पूरे देश में जिस जिसने यह प्राइम टाइम देखा है उनसे विनती हैं कि आप इस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग पैन ड्राइव में लेकर जेब में रख लीजिए ताकि अगर किसी चोर को भी मिलें तो कम से कम वो नाटककार बनना सीख जाए...।
बागों में बहार भी है...(सरकार के लिए) और बाग उजाड़ भी हैं ( एनडीटीवी)..
सुबह से एनडीटीवी पर बैन के खिलाफ जो पूरे देश के मीडिया को एकजुट करने की अपीलें चल रहीं थीं और जिस जोर शोर से पूरे देश (यहां गौरतलब है कि एनडीटीवी का देश प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, एडीटर्स गिल्ड और कुछ बुद्धिजीवियों से पूरा हो जाता है) द्वारा इस बैन का विरोध करने संबंधी स्क्रॉल और खबरें दिखाईं जा रही थीं, उसे देखकर लगा कि ज़रूर रवीश जी कुछ ज़बरदस्त प्राइम टाइम लेकर आएंगे... लेकिन....
हर कानूनी विकल्प की तलाश करने का दावा करने वाले एनडीटीवी का यह प्राइम टाइम देखकर एक बात तो सिद्ध हो गई... कि अब कानून को अपनी आंखों पर बंधी पट्टी उतार देनी चाहिए। क्योंकि अब जिरहों, वादों, प्रतिवादों से खुद का बचाव करने का दौर चला गया, अब तो कानून को जज़बातों को देखकर सही गलत का फैसला लेना होगा... माइम्स में दबी भावनाएं, कुटिलताएं और व्यंयग देखकर परखना होगा कि कौन कुसूरवार है और कौन मासूम।
मतलब, कमाल करते हो रवीश जी आप भी, जिस पठानकोट रिपोर्ट को लेकर एनडीटीवी बैन करने की बात कहीं गई, उसक रिपोर्ट का 'र' तक अापके प्रोग्राम से नदारद था और बात आपने कर दी भावनाओं की, ट्रोल की और अथॉरिटी की... कहीं पढ़ा था कि कोर्ट में भावनाओं से भरे भाषणों को तालियां ज़रूर मिल जाती हैं लेकिन केस दलीलों से ही जीते जाते हैं...।
पर क्या फर्क पड़ता है, सरकार के पास ट्रोल की ताकत हैं तो आप भी रीट्वीट्स और लाइक्स पर खा कमा रहे हैं। सही बताईए अगर कल के प्रोग्राम के लिए या पहले की गई रिपोर्टिंग्स के लिए कुछ एक भी लाइक्स आपको नहीं मिले होते, तो हिम्मत करते खड़े होने की। तो मसला यह है कि फॉलोअर्स तो सभी को चाहिए... चाहिए लाइक्स के रूप में हों या ट्रोल करने वालों के रूप में।
राजकमल जी ने जो कहा वो बड़ीं गंभीरता से लिया आपने। लेकिन जो नहीं कहा वो यह हैं कि अगर सरकार की आलोचना पत्रकारों के लिए इज़्जत की बात है, तो सरकार भी वहीं इज़्जत पाती है, जिसे लगातार पत्रकारों की आलोचना झेलनी पड़े...।
यकीन नहीं हो रहा इस बात पर... कोई नहीं आपने आलोचना कर दी है.. अब परिणाम देख लीजिएगा, यकीन हो जाएगा :-)
वो क्या है कि आपने ज़रूर गूंगों की मदद से प्रोग्राम दिखाया लेकिन जनता ना तो गूंगी है, ना बहरी... और नासमझ तो बिल्कुल नहीं। बाकी चम्पू बनने का मौका किस्मत सबको एक बार देती है..औरों की चम्पुई देखकर जलिए मत आपको भी तो मिलेगा मौका किसी ना किसी के राज में।
अन्त में बस एक बात जो इस एपिसोड ने सिखाईं... स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी भारत में केवल प्रेस के पास है.....
बाग उजाड़ है... :-)

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