Wednesday, 19 November 2014

वो मास्टर स्प्रेयर बनना चाहता है ताकि एक दिन में पांच घरों में पेस्टिसाइड्स का छिड़काव कर सकें और उसकी तन्ख्वाह साढ़े पांच हज़ार से आठ हज़ार रुपए हो जाए... 'एक पेस्ट कंट्रोलर की कहानी'

कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें हम शायद लोगों में गिनते ही नहीं। वो भीड़ का हिस्सा भी नहीं होते, बल्कि शायद उनका किनारा होते हैं... भीड़ में सबसे पीछे खड़े लोग जिन्हें भीड़ में भी जगह नहीं मिलती... यह कहानी भी ऐसे ही इंसान प्रदीप की है.. जिनकी इस दुनिया में उपस्थिति को हमने कभी शायद एक सोच भी नहीं बख्शी होगी...


19 साल का प्रदीप, लक्ष्मी नगर दिल्ली की एक पेस्ट कंट्रोल कंपनी में काम करता है- और एक महीने में लगभग 78 घरों में ज़हरीले पेस्टिसाइड्स, इन्सेक्टिसाइड्स और अन्य दवाईयों का छिड़काव करता है, यानि रोज़ लगभग 2 से ज्यादा घरों में।

'पेस्टिसाइड स्प्रेयर' बनना प्रदीप का सपना कभी भी नहीं था। वो तो मधुूबनी, बिहार के अपने गांव से दिल्ली इसलिए आया था कि कहीं चपरासी या कोई और छोटी मोटी नौकरी करके अपनी गुजर कर सके और अपने मां-बाप के पास पैसा भेज सके। 17 साल का प्रदीप यहां अपने एक दूर के रिश्तेदार के भरोसे चला आया था जो कहीं चपरासी की ही नौकरी करता था। प्रदीप जब यहां आकर अपने उस रिश्तेदार से मिला तो हकीकत पता लगी। पता चला कि वो तो दरअसल पेस्ट कंट्रोल कंपनी में काम करता है और घरवालों को झूठ बता रखा है कि कहीं चपरासी का काम करता है। रिश्तेदार ने जब प्रदीप को जिंदगी की कड़वी सच्चाई का आईना दिखाया तो उसने जाना कि नौकरी मिलना कितना मुश्किल है। आखिरकार मिन्नतें करके उसी रिश्तेदार की मदद से  प्रदीप ने खुद को भी एक पेस्ट कंट्रोल कंपनी में लगवा लियां। 



अब यहां काम करते तीन साल होने को आए। एक हरे कपड़े के थैले में ज़हरीले पेस्टिसाइड्स और पीतल की स्प्रे कैन... अब यहीं प्रदीप के साथी हैं। अपने इन औजारों से प्रदीप को बड़ा प्यार है। रोज़ इन्हीं को लेकर प्रदीप आधुनिक, सजे-धजे, दिल्ली, नौएडा, गाज़ियाबाद और गुड़गांव के घरों में जाता है और वहां पेस्टिसाइड्स का छिड़काव करता है।

प्रदीप इन खतरनाक पेस्टिसाइड्स का छिड़काव बिना किसी मास्क या दस्तानों के करता है। प्रदीप का कहना है कि अब यह ज़हरीली दवाईयां मेरी दोस्त बन गई हैं। मुझे इनमें सांस लेने की और मेरे हाथों को इन्हें छूते रहने की इतनी आदत पड़ गई है कि अगर मैं मास्क और दस्तानों का इस्तमाल करूंगा तो शायद मुझे बीमारी हो जाए, वरना तो होने से रही। शुरूआत में एक आध बार बेहोशी जैसा लगता था तो मालिक डॉक्टर को तुरंत बुला देता था। पर अब तो आदत पड़ गई है। 

 वो बताता है कि पैसा ज़रूर कम है लेकिन इस काम में कोई टैंशन नहीं है। महीने में तीन दिन की छुट्टी मिलती है और साढ़े पांच हज़ार की तन्ख्वाह, अगर छिड़काव करवाने वाले घरों से दोबारा कीड़े, दीमक, खटमल आदि पैदा होने की कोई कम्प्लेन्ट महीने भर तक ना आए तो मालिक पांच सौ रुपए ऊपर से ईनाम बतौर देता है। 

अपने रिश्तेदार की तरह अपने घरवालों को अपने काम की सच्चाई प्रदीप ने भी नहीं बताई है, कहता है कि उन्हें पता चलेगा तो बड़ा दुख होगा। गांव में उसके माता-पिता, एक बड़ा भाई हैं। भाई वहीं नौकरी करता है और थोड़ा बहुत खेत है जिससे  मां-बाप का गुज़ारा होता है। प्रदीप चाहकर भी उनके लिए पैसे नहीं भेज पाता। कहता है कि मेरे लिए ही पूरा नहीं पड़ता, उनके लिए क्या भेजूं। 

प्रदीप का सपना है कि वो जल्द ही एक मास्टर स्प्रेयर बन जाए और कम से कम एक दिन में पांच घरों को कवर करने लगे, तब मालिक उसकी तन्ख्वाह में ढाई हज़ार की बढ़ोत्तरी कर देगा और उसे नए लोगों को काम सिखाने का मौका भी मिलेगा और तब शायद कुछ बचे तो वो अपने घरवालों को भेज भी सकता है...।






Sunday, 21 September 2014

ठंडी मौत...? कोल्ड ड्रिंक्स के रूप में धीमा ज़हर पी रहे हैं आप...


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- हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हैल्थ की स्टडी से पता चला है कि अति मीठे सॉफ्ट ड्रिंक्स केवल मोटापा ही नहीं बढ़ाते बल्कि जान के दुश्मन भी हैं। मीठे सॉफ्ट ड्रिंक्स का सेवन पूरे विश्व में हर साल लगभग पौने दो लाख (1,80000) लोगों की मौत का कारण बनता हैं। इनके सेवन के चलते हर साल लगभग एक लाख तैंतीस हज़ार लोग डायबिटीज़ के शिकार होकर, लगभग 6000 लोग कैंसर का शिकार होकर और लगभग 44,000 लोग दिल की बीमारियों का शिकार होकर मर जाते हैं। इस स्टडी के परिणामों को अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन की मीटिंग में प्रस्तुत किया गया था। (डेली मेल यूके की 19 मार्च 2013 की रिपोर्ट)

-छत्तीसगढ़ स्थित दुर्ग, राजनन्दगांव और धमतारी जिलों के किसान बताते हैं कि वो अपने चावल के खेतों को कीटों से बचाने के लिए पेप्सी और कोक का इस्तमाल कर चुके हैं जो कि एक सफल प्रयोग साबित हुआ है। किसानों के अनुसार पानी में मिलाकर कोक और पेप्सी का फसल पर छिड़काव करना, कीटनाशकों के प्रयोग से कहीं ज्यादा सस्ता और सुलभ पड़ता है और इससे कीटों से फसल का बचाव भी हो जाता है। (बीबीसी न्यूज, 3 नवंबर 2004 की रिपोर्ट http://news.bbc.co.uk/2/hi/south_asia/3977351.stm )

-कार्बोनेटेड ड्रिंक्स को डायबिटीज़, हायपरटेंशन और गुर्दे की पथरी से जोड़ा गया है। खास तौर से कोला पेय में फॉस्फोरिक ऐसिड होता है जो यूरिनरी बदलाव और गुर्दे की पथरी का कारण बनता है। दिन में दो या ज्यादा कोला पीने से क्रॉनिक किडनी की बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है। रेगुलर कोला और आर्टीफिशियल स्वीटनर वाली कोला दोनों से एक जैसे परिणाम मिलते हैं। (अमेरिकी चिकित्सा शोध पत्रिका पबमेड में 18 जुलाई, 2007 को प्रकाशित, http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pubmed/17525693?ordinalpos=1&itool=EntrezSystem2.PEntrez.Pubmed.Pubmed_ResultsPanel.Pubmed_DefaultReportPanel.Pubmed_RVDocSum )

-डेली एक्सप्रेस के मुताबिक जो लोग प्रतिदिन इस तरह के ड्रिंक्स पीते हैं उनमें दिल के दौरे या नाड़ी संबंधी रोग होने की आशंका 43 प्रतिशत तक ज्यादा होती है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन के दौरान पाया कि जो लोग प्रतिदिन डायट ड्रिंक्स पीते हैं उनमें दिल के दौरे या नाड़ी संबंधी रोग होने की आशंका 43 प्रतिशत ज्यादा होती है। अध्ययन में यह भी देखा गया कि जो लोग सॉफ्ट ड्रिंक्स कम पीते हैं, उन्हें रोजाना पीने वालों के मुकाबले दिल के खतरे कम होते हैं।

-एक स्टडी में यह दावा भी किया गया है कि दिन में एक लीटर या उससे ज्यादा कोल्ड ड्रिंक पीने से पुरुषों की प्रजनन शक्ति घट जाती है।

उपरोक्त सभी खबरें आपकी प्रिय कोल्ड ड्रिंक्स के विरुद्ध किसी भ्रामक प्रचार या अफवाहों का नतीजा नहीं हैं बल्कि प्रतिष्ठित समाचार पत्रों व शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित खबरें हैं जो बाकायदा शोध के बाद प्रकाशित की गई हैं। जी हां, अगर आप भी कोक, पेप्सी, फ्रूटी, स्लाइस या स्पोर्ट्स ड्रिंक्स के बहुत शौकीन हैं और इन्हें अपने जीवन का अभिन्न अंग बना चुके हैं तो हम आपको बता दें कि आप अपने शरीर को बीमारियों का घऱ बनाने का पूरा इंतज़ाम कर चुके हैं। क्योंकि इन मीठे पेय पदार्थों की शक्ल में दरअसल आप एक धीमा ज़हर खुद-ब-खुद अपनी रगों में पहुंचा रहे हैं। और अगर आपके बच्चे भी इसके शौकीन हैं तो बधाई, आपकी अगली पीढ़ी भी घातक रोगों का शिकार बनने की राह पर कदम रख चुकी है। आप जानना चाहेंगे हम ऐसा क्यों कह रहें हैं, तो पढ़िए यह विस्तृत रिपोर्ट-

-कोल्ड ड्रिंक्स में सोडियम मोनो ग्लूटामेट, ब्रोमिनेटेड बैजिटेबल ऑइल, मिथाइल बेन्जीन और एंडोसल्फान जैसे ज़हर मौजूद होने की भी रिपोर्ट्स मिली हैं।



क्या हैं सॉफ्ट ड्रिंक?
सॉफ्ट ड्रिंक्स नॉन अल्कोहलिक ड्रिंक्स होते हैं अर्थात इनमें अल्कोहल नहीं होता है। इसलिए ये 'सॉफ्ट' होते हैं। सॉफ्ट ड्रिंक्स में कोला, फ्लेवर्ड, वाटर, सोडा पानी, सिंथेटिक फ्रूट ड्रिंक्स, एनर्जी ड्रिंक्स, स्पोर्ट्स ड्रिंक्स आदि आते हैं।

कोला और कोक जैसे कॉर्बोनेटेड ड्रिंक्स क्या हैं?
वो सॉफ्ट ड्रिंक्स जिनके अंदर कार्बन डाईऑक्साइड गैस होती है, उन्हें कॉर्बोनेटेड ड्रिंक्स कहते हैं। इनमें सभी तरह के सोडा, कोक, कोला, पेप्सी आदि शामिल हैं। 


क्या क्या है आपकी सॉफ्ट ड्रिंक में- कभी किसी सोडा कैन, या सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल पर उसके इन्ग्रीडिएन्ट्स के बारे में पढ़िएगा तो आपको निम्न प्रमुख इन्ग्रीडिएन्ट्स दिखेंगे- 




शुगर (सुक्रोज और कॉर्न सीरप)- 
एक साधारण कोल्ड ड्रिंक की बोतल में अत्यधिक मात्रा में चीनी होती है जो मोटापा, टाइप बी डायबिटीज़ और मैटाबॉलिक सिन्ड्रोम का कारण बनती है। हाई ब्लड प्रेशर, हाई कॉलेस्ट्रॉल और पेट का मोटापा इससे होने वाली अन्य बीमारियां हैं।

एस्पारटेम (aspartame)- यह डाइट सोडा का मुख्य अंश है जो भूख बढ़ाता है। तो अगर आप डाइट सोडा पीकर कैलोरी लेने से बचने की सोच रहे हैं तो हो सकता है कि इसकी वजह से लगने वाली भूख के कारण आप ज्यादा खाना खा लें और ज्यादा कैलोरीज़ ले लें।

कैरेमल कलर- यह कत्थई रंग होता है जिसमें 2-मिथाइलिमाइडोजोल और 4-मिथाइलिमाइडोजोल (2-Methylimidozole & 4- Methylimidozole ) रसायन होते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में चूहों के ऊपर प्रयोग के दौरान फेफड़ों, यकृत और थाइरॉइड कैंसर से संबंधित पाया गया है।

सोडियम- डाइट सोडा में मिलाया जाने वाला अत्यधिक सोडियम, स्ट्रोक के खतरे को बढ़ा देता है।

फॉस्फोरिक ऐसिड
 -कोल्डड्रिंक्स में मौजूद फॉस्फोरिक एसिड सबसे खतरनाक तत्वों में से एक हैं जो हड्डियों की कमज़ोरी और ऑस्टीयोपॉरोसिस का कारण है। कोल्ड ड्रिंक्स में सिट्रिक और फॉस्फोरस एसिड होता है, जिसका ज्यादा सेवन करना सेहत के लिए नुकसानदायक तो होता ही है, साथ ही यह एसिड दांतों के लिए भी नुकसानदायक होता है।

कैफीन- शायद सुनने में आपको अजीब लगे लेकिन कोल्ड ड्रिंक्स में कैफीन एक प्रमुख तत्व होता है जो बच्चों में सिरदर्द, नींद ना आना, चिड़चिड़ापन आदि तकलीफों का कारण हो सकता है।

फ्लेवर एडीटिव्स- शुगर की मात्रा और सोडे की एसिडिटी के अतिरिक्त फ्रूट ड्रिंक्स में डाले जाने वाले फ्लेवर एडीटिव्स दांतो के इनैमल के खराब होने का कारण बनते हैं।




कीटनाशक- इन कोल्ड ड्रिंक्स में हमारे शरीर के लिए हानिकारक कीटनाशकों की मात्रा निर्धारित मानकों से कहीं अधिक होती है।


सॉफ्ट ड्रिंक्स पीने पर सौगात में मिलती हैं ये बीमारियां


मोटापा : सॉफ्ट ड्रिंक्स में कैलोरीज और शुगर की मात्रा बहुत अधिक होती है इसलिए अधिक मात्रा में सॉफ्ट ड्रिंक मतलब मोटापे को निमंत्रण।

टूथ डिके : कोल्ड ड्रिंक्स में मौजूद शुगर एवं एसिड बच्चों के दाँत सड़ने के कई कारणों में से एक हैं। इन ड्रिंक्स में मौजूद एसिड दाँतों के इनेमल को धीरे-धीरे गला देता है।  

हड्डियों को कमजोर करना : कोल्ड ड्रिंक्स में मौजूद फॉस्फोरिक ऐसिड के कारण बच्चों की हड्डियों से कैल्शियम बाहर आता है जिससे उनके बोन्स कमजोर होते हैं। इस ड्रिंक्स में मौजूद अधिक मात्रा में फॉस्फोरस भी कैल्शियम को हड्डियों से बाहर निकालता है जो आगे जाकर ऑस्टियोपॉरोसिस जैसी बीमारी का कारण बनता है।

पेप्टिक अल्सर और पेट के रोग- शीतल पेय पेप्टिक अल्सर को और बढ़ाते है। यदि कोल्ड ड्रिंक्स में मिठास के लिए सैक्रीन का प्रयोग किया गया हो तो यह कैंसर पैदा कर देगा। मधुमेह, जोड़ों के दर्द और उच्च रक्तचाप वालों के लिए कोल्ड ड्रिंक्स बहुत हानिकारक है।

डायबिटीज़, कैंसर और दिल व फेफड़ो के रोग- ऊपर लिखी शोध की रिपोर्ट्स से यह स्पष्ट हो चुका है कि सॉफ्ट ड्रिंक्स इन घातक बीमारियों और कई मामलों में मौत का कारण बनती हैं।

कार्बोनेटेड ड्रिंक्स यानि कार्बन डाई ऑक्साइड के स्त्रोत- हमने बचपन से पढ़ा है कि हमारा शरीर प्राणवायु ऑक्सीजन लेता है और कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जित करता है जो शरीर के लिए हानिकारक है। लेकिन इन कार्बोनेटेड ड्रिंक्स के ज़रिए हम कार्बन डाई ऑक्साइड शरीर में ले जाते हैं। अगर आप महसूस करते हों तो कोला, कोक या पेप्सी पीते हीं एक दम से नाक में जलन का अहसास होता है जो सीधे दिमाग तक जाता है। लेकिन फिर भी उसे अनदेखा करके हम इन कार्बोनेटेड ड्रिंक्स को पीने में आनंद लेते हैं।



संसद की कैंटीन में नही मिलते कोल्ड ड्रिंक्स, लेकिन देश में खूब बिक रहा है यह ज़हर

आपको जानकर हैरानी होगी कि इन कोल्ड ड्रिंक्स में कीटनाशकों के अधिक इस्तेमाल की खबर आने के बाद से काफी समय पहले संसद की कैंटीन में इन कोल्ड ड्रिंक्स को बैन कर दिया गया था। लेकिन हैरानी की बात यह है कि पूरे देश में और खासतौर से शिक्षा संस्थानों की कैंटीन में इनकी बिक्री बदस्तूर जारी है जो युवा पीढ़ी को अपना शिकार बना रही है।

'ठण्डा मतलब टॉयलेट क्लीनर, ठंडा मतलब कीटनाशक !'

-ठण्डे पेयों (कोल्ड ड्रिंक्स) का PH मान 2.4 से लेकर 3.5 तक होता है जो कि एसिड की परिसीमा में आता है, रासायनिक रुप से हम घरों में जो टॉयलेट क्लीनर उपयोग में लाते हैं इसका भी PH मान 2.5 से लेकर 3.5 के बीच होता है इसलिए इन कोल्ड ड्रिंक्स को टॉयलेट क्लीनर के रूप में भी प्रयोग में लाया जा सकता है। सामान्य रुप से पानी का PH मान 7.5 के आस-पास होता है जो हमारे पीने के लिये सर्वोत्तम है।

-पोटेशियम सॉर्बेट, सोडियम ग्लूकामेट, कार्बन डार्इ आक्सार्इड जैसे विष इसमें मिलाये जाते हैं। इसके अलावा मेलाथियान, लिण्डेन, डीडीटी जैसे हानिकारक रसायन भी मिलाये जाते हैं जिसके कारण यह कीटनाशक के रूप में भी काम करता है।

अमेरिकी शोध में सामने आया भारत का हाल-

हमारे देश के बारे में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्था इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूवेशन की ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडीज 2010 में कहा गया है कि भारत में 2010 में 95,427 लोगों की मौत की एक बड़ी वजह इन अति मीठे सॉफ्ट ड्रिंक्स का सेवन बना। इन मौतों की दर में 1990 की तुलना में 161 प्रतिशत की वृद्धि हुई है 1990 में सॉफ्ट ड्रिंक्स की लत के कारण 36,591 लोगों ने दम तोड़ा था। 2010 पर आधारित इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में कोला पीने के आदी लोगों में से 78,017 दिल की बीमारी की वजह से मरे, 11,314 लोग सॉफ्ट ड्रिंक्स के कारण डायबिटीज के रोगी बन गये जबकि लगभग 6096 कैंसर रोगी बनकर दम तोड़ चुके हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1990 में 36,591 लोगों की विभिन्न गैर संक्रामक रोगों से मरने का एक प्रमुख कारण अति मीठे सॉफ्ट ड्रिंक्स थे।

कैसे किया गया था शोध
भारत में 2010 में प्राकृतिक रूप से मरने वाले लोगों के आंकड़े इकठ्ठे किये गये और इसके लिये मौत की वजह की सभी उपलब्ध जानकारियाँ जुटाई गईं असमय मौत के मामलों में उम्र, लिंग और क्षेत्र के विश्लेषण में 67 अलग-अलग रिस्क फैक्टर्स को अति मीठे सॉफ्ट ड्रिंक्स पीने की आदत से मिलान किया गया और उनकी तुलना 1990 और 2010 के आंकड़ों से की गई। ब्रिटेन की प्रतिष्ठित मेडिकल जन लैंसेट में में प्रकाशित रिपोर्ट से भी आंकड़े और जानकारियों को इस शोध में शामिल किया गया था। 


कंपनियों ने कहा गलत है रिपोर्ट
हांलाकि इस रिपोर्ट के विरोध में भारतीय कोला कंपनियों के पैरोकार संगठन इंडियन बेवरेज एसोसिएशन ने कहा था कि अति मीठे सॉफ्ट ड्रिंक्स से होने वाली मौतों की रिपोर्ट सही नहीं है इस रिपोर्ट से सिर्फ आम लोगों में भ्रम फैलाने का प्रयास किया गया है। अब यह बात अलग है ये कंपनियां इस शोध की कोई मज़बूत काट प्रस्तुत नहीं कर पाईं।

अमिताभ बच्चन ने सॉफ्ट ड्रिंक का विज्ञापन करना बन्द किया

अमिताभ बच्चन ने आईआईएम, अहमदाबाद में एक व्याख्यान के दौरान बताया था कि उन्होंने सॉफ्ट ड्रिंक का विज्ञापन करना बंद कर दिया है। इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि जयपुर में उनसे एक लड़की ने पूछा था कि जिस सॉफ्ट ड्रिंक को उनकी टीचर ने 'जहर' बताया है, वह उसका विज्ञापन क्यों करते हैं? लड़की के सवाल पर अमिताभ बच्चन निरुत्तर हो गए। लेकिन इस घटना ने उन्हें सोचने को मजबूर कर दिया और इसके बाद उन्होंने सॉफ्ट ड्रिंक का विज्ञापन करना बंद कर दिया- 'लोगों के दिमाग में यह छवि थी...इसलिए मैंने पेप्सी को इंडॉर्स करना बंद कर दिया।' 





आप भी करें यह प्रयोग- अगर आपको हमारी बातों पर यकीन नहीं तो आप खुद घर पर एक छोटा सा प्रयोग करके देखें। कोक या पेप्सी की बोतल लाईए और उसमें थोड़ा सा दूध मिला दीजिए। इसे दो तीन घंटो के लिए ऐसे ही छोड़ दीजिए। दो-तीन घंटों के बाद आप देखेंगे की बोतल की तली में सफेद मोटी कीचड़ जैसी चीज़ जमा हो जाती है जबकि ऊपर विरल और हल्के रंग का पेय दिखने लगता है।साधारण भाषा में कहें तो ऐसा इसलिए होता है कि कोक में मौजूद फॉस्फोरिक एसिड दूध के कैल्शियम को बाहर निकाल देता है। सोचिए ऐसा ही हाल ज्यादा मात्रा में कोल्ड ड्रिंक्स पीने पर शरीर में मौजूद हड्डियों के कैल्शियम का भी होता है। आप इसके बारे में गूगल पर भी पढ़ सकते हैं।


क्या है विक्रम सम्वत और क्यों है भारतीय पंचांग अंग्रेजी कैलेण्डर से बेहतर ?



विक्रम संवत की शुरूआत उज्जैन के महाप्रतापी राजा विक्रमादित्य ने की थी। उन्होंने राजसत्ता संभालने का शुभारम्भ करने के लिए सृष्टि के पहले दिन अर्थात चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा को चुना था। आज से 2069 वर्षों पूर्व वे उज्जैन की राजगद्दी पर बैठे थे और उस दिन की याद में उन्होंने अपने नाम पर विक्रम संवत चलाया था। यह संवत चन्द्रमा की गति (कला) पर आधरित है, इसलिए इसे चन्द्र वर्ष कहा जाता है।

इसे समझने से पहले भारतीय पंचांग को समझना आवश्यक है-


दिन, वार, महीना इत्यादि की जानकारी देने वाले अंग्रेजी कालपत्र को कैलेण्डर तथा भारतीय परम्परा वाले को कालपत्र को ‘पंचांग’ कहा जाता है। पंचांग आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक कालपत्र है। इसमें काल की गणना के पांच अंग हैं जिन्हें तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण कहा जाता है। इन पांच अंगों के आधार पर काल की गणना किये जाने के कारण भारतीय कैलेण्डर को ‘पंचांग’ नाम दिया गया है।

पंचांग न केवल अंग्रेजी कैलेण्डर के समान किसी दिन विशेष को दर्शाता है, बल्कि खगोलशास्त्र के आधार पर यह उस दिन के पूरे शुभ-अशुभ काल और योग को भी दर्शाता है। पंचांग में बारह मास के एक वर्ष के प्रत्येक दिन का हिसाब सूर्य और चन्द्र की गति पर निधरित किया गया है। इसके अनुसार प्रत्येक महीने में दो पक्ष (लगभग 15.15 दिनों के) होते हैं, जिन्हें शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष नाम दिया गया है और एक वर्ष में दो आयन (उत्तरायण और दक्षिणायण) होते हैं। इन्ही दो आयनों में 12 राशियाँ और 27 नक्षत्र भ्रमण करते हैं। भारतीय काल गणना में नववर्ष की शुरुआत प्रकृति के द्वारा मनाये जा रहे नववर्ष से होती है। फाल्गुन मास की समाप्ति के साथ पतझड़ का मौसम समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु आरम्भ हो जाती है। नये वर्ष के आगमन पर प्रकृति भी सभी पेड़-पौधें को नये पत्ते, फूल और फलों से अलंकृत करती है। पशु-पक्षियों समेत सभी प्राणी भी नववर्षारम्भ पर नयी आशा और उत्साह के साथ अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं।

भारत में मुख्यतः सूर्य और चन्द्र की गति पर आधरित दो अलग-अलग प्रकार से की जाने वाली काल-गणनाएं प्रचलित है। इनके अलावा एक तीसरे प्रकार की काल गणना भी कहीं-कहीं पर की जाती है जो कि नक्षत्रों के आधार पर होती है। चन्द्रमा 27 नक्षत्रों में अपने भ्रमण का एक चक्र लगभग 27 दिनों में पूरा करता है। इसी आधर पर नक्षत्रामास लगभग 27 दिनों का ही होता है। लेकिन तीनो प्रकार की काल-गणना में 12 महिनों के नाम-चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुन ही है। भारतीय कालगणना को समझने के लिए पंचांग के पांचों अंगों को जान लेना आवश्यक है-

तिथि- अंग्रेजी महीनों में सामान्यतः 1 से लेकर 30/31 तक की तिथि होती है लेकिन भारतीय पंचांग में 1 से 15 तक की तिथियां ही निर्धरित की गयी है। चन्द्रमा की कला पर आधरित ये तिथियां किसी भी दिन के अंक (क्ंजम) को दर्शाती हैं। ये तिथियां हैं- प्रतिपदा (पहला दिन), द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रायोदशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा अथवा अमावस्या।

पक्ष और मास- इन पन्द्रह दिनों के समूह को ‘पक्ष’ कहा जाता है। चन्द्रमा जब बढ़ते क्रम में होता है, तब पंद्रहवें दिन पूर्णिमा आती है और उस पक्ष को ‘शुक्ल पक्ष’ कहा जाता है। और जब चन्द्रमा घटते क्रम में होता है, तब उसके पन्द्रहवें दिन अमावस्या आती है और वह ‘कृष्ण पक्ष’ कहलाता है। ये दोनों पक्ष मिलकर एक मास बनाते हैं।

वार- पंचांग का दूसरा अंग ‘वार’ है। रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार (बृहस्पतिवार), शुक्रवार और शनिवार। ये सात दिन मिलकर एक सप्ताह बनाते हैं और इनमें से प्रत्येक दिन को ‘वार’ कहा जाता है।

हिन्दू पंचांग के द्वारा निर्धरित ये सात वार आज सम्पूर्ण विश्व में उसी दिन, उसी नाम और क्रम में स्वीकृत हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि रविवार के बाद ही सोमवार और इसी क्रम में आगे मंगलवार, बुधवार आदि क्यों आते है? या फिर जिस दिन को भारत में भी रविवार कहा जाता है उसी दिन को सम्पूर्ण विश्व रविवार क्यों कहता है? उस दिन को कोई मंगलवार या सोमवार या फिर अपने-अपने धर्म के अनुसार किसी अन्य नाम से क्यों नही पुकारता? ऐसे प्रश्नों का सीधा सा उत्तर यह है कि प्राचीन भारतीय ज्योतिषशास्त्रियों ने ग्रहों के भ्रमण की स्थिति के आधार पर इन दिनों को नाम दिया है। यद्यपि यह गणना थोडी़ जटिल है, फिर भी में इसे सरल भाषा में समझा सकता है।

भारतीय ज्योतिष में काल (समय) की गणना सृष्टि के आरम्भ से की गयी है। सृष्टि के आरम्भ का सबसे पहला दिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा था और इसी दिन से हमारा नववर्ष आरम्भ होता है। आरम्भ के पहले दिन सभी ग्रह (सूर्य, चन्द्र, मंगल आदि) मेष राशि (पहली राशि) में थे और उस दिन जब पहला सूर्योदय हुआ था उसी समय से हमारी काल की गणना आरम्भ होती है। इसीलिए भारतीय काल-गणना में दिन आरम्भ सूर्योदय से माना गया है।

एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के समय को ‘अहोरात्रा’ कहा जाता है,जिसका पहला भाग ‘दिन’ और दूसरा भाग ‘रात्रि’ कहलाता है। काल (समय) की गणना करने के लिए दिन और रात्रि के दोनों हिस्सों को 6.6 भागों में बांटा गया है। इस भाग को ‘लग्न’ कहते हैं। और लग्न के आधे भाग केा ‘होरा’ कहा जाता है। इस प्रकार एक
  ‘अहोरात्रा’ में 12 लग्न या फिर 24 ‘होरा’ बनते हैं। इस तरह एक ‘अहोरात्रा’ यानि एक दिन में कुल 24 ‘होरा’ होते हैं। इसी ‘होरा’ को अब घण्टा कहा जाता है। सृष्टि के आरम्भ के पहले दिन सूर्योदय के समय जो सबसे पहला होरा घण्टा आया, उस पहली होरा का स्वामी सूर्य बना था और उसके बाद आने वाली 6 होराओं के स्वामी क्रमशः शुक्र, बुध्, चन्द्रमा, शनि, बृहस्पति और मंगल बनते चले गये। इस प्रकार सूर्योदय से 7 घण्टों की समाप्ति के बाद फिर से उसी क्रम में सभी ग्रह आते जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि 8वीं होरा का स्वामी फिर से सूर्य बना और उसके बाद शुक्र, बुध् आदि ग्रह उसी क्रम में अगली-अगली होराओं के अधिपति बनते जाते हैं। इस क्रम में पहले दिन की 24वीं होरा (पहले दिन का अन्तिम घण्टा) का स्वामी बुध् बना। यहां पहला अहोरात्रा (एक पूरा दिन) समाप्त होता है। पहला दिन सूर्य की होरा से आरम्भ होने के कारण उस दिन को रविवार कहा गया। 24वीं होरा बीतने के बाद उपरोक्त क्रम से दूसरे दिन के प्रथम होरा (सूर्योदय के समय) का स्वामी चन्द्र बनता है। इसी प्रकार पहले दिन सूर्य से आरम्भ होने के बाद प्रत्येक अगले दिन की पहली होरा (घण्टे) के स्वामी क्रमशः चन्द्र, मंगल, बुध्, बृहस्पति, शुक्र और शनि बनते चले गये। यही क्रम आज भी जारी है। इसीलिए इन दिनों के नाम आज भी उस दिन को मिलने वाली पहली होरा के अधिपति (स्वामी) ग्रह के नाम पर जाने जाते हैं।

इस प्रकार वार के दिनों के नामों (रविवार,सोमवार आदि) की देन प्राचीन भारतीय ऋषियों की है। वारों के नाम सूर्योदय के समय पड़ने वाली पहली होरा के अधिपति ग्रह के नाम पर होने के कारण ही भारतीय परम्परा में दिन का आरम्भ सूर्योदय से माना जाता है न कि रात्रि के बारह बजे के बाद। इसका अर्थ यह है कि सूर्योदय से पहले यदि सोमवार है तो सूर्योदय के बाद मंगलवार हो जायेगा।


नक्षत्र- आकाश में विभिन्न आकार में दिखाई देने वाले तारों के समूह को नक्षत्रा कहते हैं। हमारे सौरमण्डल में इस प्रकार के 27 नक्षत्रा समूह हैं। इन में से प्रत्येक नक्षत्रा में चन्द्रमा लगभग एक दिन रहता है। ये 27 नक्षत्रा निम्नलिखित हैं- अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्रा, पुर्नवसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वा (फाल्गुन), उत्तरा (फाल्गुन), हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराध, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वा(आषाढ़), उत्तरा (आषाढ़), श्रवण, ध्निष्ठा, शतभिषा, पूर्वा (भाद्रपद), उत्तरा(भाद्रपद) और रेवती।

इन्ही 27 नक्षत्रों के नामों के आधार पर हिन्दू पंचांग में महीनों के नाम निर्धरित किये गये है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्रा में रहता है, उसी नक्षत्रा के नाम के आधर पर उस महीने का नामकरण हुआ है।


योग- सूर्य और चन्द्र की विशेष दूरियों को योग कहते हैं। योग 27 होते हैं- विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, घृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति। इनमें से कुल 9 योगों विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यातिपात,परिघ और वैधृति को अशुभ माना जाता है और इन योगों में शुभ कार्य न करने की सलाह दी जाती है।


करण- एक तिथि के आधे भाग को करण कहते हैं। अर्थात एक तिथि में दो ‘करण’ होते हैं। जिन्हें ‘पूर्वार्ध करण’ (पहले का) और ‘उत्तरार्ध करण’ (बाद का) कहा जाता है। ‘करण’ सूर्य और चन्द्रमा के बीच की कोणात्मक दूरी है। यह दूरी प्रत्येक चरण में 6.6 डिग्री में बढती जाती है और यही दूरी (करण) किसी तिथि का निर्धारण करती है। करण 11 हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। इन 11 करणों में से अन्तिम 4 करण (शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न) स्थिर हैं।

पंचांग के ये पांचों अंग मिलकर किसी एक दिन के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। भारतीय पंचांग के अनुसार दिन की शुरुआत सूर्योदय से होती है। इसलिए तिथि की गणना भी उसी समय से होती है। इसका अर्थ यह है कि जिस तिथि को सूर्योदय नही मिलता, उस तिथि का क्षय माना जाता है। इसीलिये कभी-कभी किसी तिथि को दो बार सूर्योदय मिलने के कारण उस तिथि को दो बार मनाया जाता है और किसी तिथि को सूर्योदय न मिलने के कारण उस तिथि को छोड़ दिया जाता है।

“नौसेना की नियुक्ति, नौकरी नहीं बल्कि जीने का तरीका है... जिसमें आप साल के 365 दिन, 24 घंटे देश की सेवा के लिए तैयार रहते हैं.."...


 पंचकुला, हरियाणा के निवासी युवा रोहित मण्डरवाल भारतीय नौसेना की एक्जीक्यूटिव शाखा में सब लेफ्टिनेंट हैं और फिलहाल एझिमला, केरल में नियुक्त हैं। 23 साल के रोहित एक बेहद मेधावी छात्र रहे हैं। चंडीगढ़ इंजीनियरिंग कॉलेज से 78 फीसदी अंकों के साथ बीटेक उत्तीर्ण करने के बाद रोहित का सात मल्टीनेशनल कंपनियों में कैम्पस साक्षात्कार के जरिए चयन हुआ, लेकिन रोहित ने नौसेना में जाकर देशसेवा करने को प्राथमिकता दी। रोहित उन युवाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सफल है, मेधावी हैं, काबिल हैं और जोश से भरे हुए हैं, जो देशसेवा को सर्वोपरि मानते हैं और जिनके लिए जिंदगी केवल काटने का नहीं बल्कि उसे बेहतर तरीके से और अपनी शर्तों पर जीने का नाम है। हमने रोहित की पढ़ाई, रुचियों से लेकर नौसेना जैसा जोखिम भरा प्रॉफेशन चुनने के बारे में बातें की और उन्होंने बेहद बेबाकी और सरल तरीके से अपनी बातें रखीं। आप भी पढ़िए जोश और आंखो में सपने संजोए इस युवा नेवी ऑफिसर के विचार-


अपनी रुचियों के बारे में कुछ बताईए।

मेरी इंजीनियरिंग में बहुत रुचि है। मुझे यह विषय बेहद पसंद हैं। बीटेक करने के बाद कैम्पस सलेक्शन में ही मेरा सात कंपनियों में सलेक्शन हो गया था जिनमें माइक्रोसॉफ्ट और विप्रो जैसी कंपनियां भी थी। मैंने कार्डिफ यूनिवर्सिटी, लंदन में रिसर्च के लिए भी आवेदन किया हुआ था जिसमें मेरा रीसर्च टॉपिक था- डेटा इन्ट्रूजन। वो लोग मेरे रीसर्च टॉपिक और मेरी सबजेक्ट नॉलेज से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने मुझे सीधे ग्रेजूएशन के बाद ही रीसर्च स्कॉलर बनाने के लिए सिलेक्ट कर लिया था जो बहुत कम मामलों में होता है।


तो फिर आप रीसर्च छोड़कर नेवी में कैसे पहुंच गए?


दरअसल नेवी हमेशा से ही मेरी पसंद रही है। मेरे काफी रिश्तेदार सेना में रहे हैं और हैं भी। तो इसको लेकर हमेशा ही उत्साहित रहा। मैंने एसएसबी का एक्ज़ाम दिया था। जब उसमें पास हो गया और मेरा सलेक्शन नेवी में हो गया तो बस मैं सबकुछ भूल गया और मैंने नेवी जॉइन करने का फैसला कर लिया।

लेकिन यहां आपको अपने फेवरेट विषय में कुछ करने का मौका तो मिला ही नहीं होगा। आपकी रीसर्च तो रह गई?

ऐसा नहीं है। नेवी में भी रीसर्च करने के लिए काफी कुछ है। यह मेरी रुचि का क्षेत्र है तो मैं हर जगह अपने लिए मौके ढूंढ लेता हूं। यहां मैंने अकैडमी के कम्प्यूटर पर काफी काम किया। पहले हमारे यहां क्विज़ वगैरह कम्प्यूटर पर नहीं होते थे लेकिन मैंने जावा में एक प्रोग्राम बनाया और अब क्विज़ कम्प्यूटर पर होते हैं। स्कोरबोर्ड वगैरह भी मैंने विकसित किया। फिर अब मैं नेवी की एक्ज़ीक्यूटिव ब्रांच में हूं। जो प्रशासकीय शाखा है। यहां मुझे सबमैरीन को हैंडल करने का अवसर मिलेगा। जिसे मैं और बेहतर करने के लिए अपनी तरफ से कुछ इंजीनियरिंग एक्सपेरिमेन्ट्स और रीसर्च कर सकता हूं। तो मौके तो यहां भी हैं।

लेकिन नेवी ही क्यों। आप थलसेना या वायुसेना को भी तो चुन सकते थे?

जी हां बिल्कुल। लेकिन नेवी का महत्व बहुत ज्यादा है। केवल रक्षा के संबंध में ही नहीं बल्कि कूटनीतिक मामलों में भी नेवी की भूमिका बहुत अहम् है। आप जानती हैं कि चीन, भारत से जो अच्छे और दोस्ताना संबंध रखना चाहता है, उसकी क्या वजह है। दरअसल चीन के पेट्रोलियम पदार्थों का आयात अंगोला से जलमार्ग के द्वारा होता है। यह रास्ता हिंद महासागर से होकर गुज़रता है जो भारतीय नौसेना के प्रभुत्व का क्षेत्र है इसलिए चीन के सामान को वहां से गुज़रने के लिए भारतीय नौसेना की मदद चाहिए ही चाहिए। अगर कल को चीन के हमसे अच्छे संबंध नहीं रहे तो क्यों भारतीय नौसेना चीन की मदद करेगी...? नौसेना का सामरिक महत्व बहुत ज्यादा है, इसलिए यहां काम करने का रोमांच भी ज्यादा है। बस इसलिए नौसेना को चुना।


काफी समय से नेवी में लगातार हादसों की जो खबरें आ रही हैं उसके बाद तो यह एक जोखिम भरा क्षेत्र बन गया है। जहां युद्ध के बिना भी देश में ही पनडुब्बियों पर धमाकों या उनके डूबने के हादसे होते रहते हैं और युवा ऑफिसरों की जानें चली जाती हैं। ऐसे में क्या आपको नेवी जॉइन करते समय डर नहीं लगा। क्योंकि आप जिस शाखा में हैं उसमें रहते हुए आपको भी सबमैरीन्स पर जाना ही होगा


नहीं, बिल्कुल नहीं। नेवी को लेकर डर तो कभी भी नहीं था। हां यह ज़रूर है कि सुरक्षा को ध्यान में रखना ज़रूरी है। क्योंकि जब मैं सबमैरीन पर जाऊंगा तो मेरे ऊपर केवल मेरी ही नहीं, मेरे साथियों और मेरे साथ काम करने वाले अन्य सभी लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी होगी। मेरा नंबर तो बहुत बाद में आता है, सबसे पहले मुझे उन लोगों की जान की परवाह करनी है जो मेरे साथ गए हैं। इसलिए सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। लेकिन इसके लिए हमारी नौसेना में लगातार प्रयास चल रहे हैं। काफी सारी पनडुब्बियां रीफिटिंग के लिए गई हुईं हैं। बहुत सारी चीज़ों को ठीक किए जाने के प्रयास चल रहे हैं। तो मुझे लगता है कि आगे यह परेशानी नहीं आएगी। और दूसरे अगर मुझे मालूम है कि किसी वैसल में कोई खराबी है या बीच समुद्र में जाकर वो परेशानी का सबब बन सकती है तो अपने साथियों की जान जोखिम में डालने से बेहतर मुझे यह लगेगा कि मैं अपने वरिष्ठ ऑफिसर्स को इससे अवगत कराऊं और उस वैसल की रिफिटिंग के लिए बात करूं। तो मैं ऐसा करने की कोशिश करूंगा। क्योंकि अगर एक भी सबमरीन हादसा होता है तो केवल देश के सैनिकों की जानें ही नहीं जाती, देश को आर्थिक नुकसान भी होता है, नौसेना की छवि भी खराब होती है। इसलिए मैं कोशिश करूंगा ऐसा ना हो।


लेकिन कई बार ऐसा होता है जब आपको सबकुछ जानते हुए भी, उसी वैसल पर जाना पड़ता है जो खतरनाक है, परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं। कोई सुरक्षा का मामला हो सकता है, तब आप क्या करेंगे।
देखिए नौसेना की नौकरी मेरे लिए नौकरी नहीं बल्कि जीने का तरीका है, जिंदगी का मकसद है जहां हमें साल के 365 दिन और चौबीसों घंटे देश की सेवा के लिए तैयार रहना पड़ता है। हमारा उद्देश्य यहीं है, हम निस्वार्थ सेवा करने में यकीन रखते हैं। तो कल को ऐसी परिस्थिति अगर आती है तो मैं हमेशा तैयार हूं। मैंने देश की रक्षा के लिए ही नौसेना जॉइन की है। और अगर सब लोग नौसेना की दुर्घटनाओं से डर कर पीछे हटने लगे तो नौसेना का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। किसी ना किसी को तो यह करना ही पड़ेगा ना। और मैं कभी भी अपना कर्तव्य निभाने से नहीं चूकूंगा। और मैं ही क्या हमारी नौसेना में एक भी इंसान ऐसा नहीं जो ज़रूरत पड़ने पर पीछे हट जाए।


लेकिन इतने समय से स्कॉर्पीन डील भी तो अटकी हुई है। नौसेना उन्हीं पुरानी पनडुब्बियों से काम चला रहा है।

नहीं ऐसा नहीं है। स्कॉर्पीन डील हो चुकी है। 2016 तक वो स्कॉर्पीन पनडुब्बियां हमें मिल भी जाएंगी। बात यह है कि उनमें तॉरपीडो नहीं है और आधुनिक सोनार सिस्टम नहीं है जो यूएस प्रयोग करता है। हमारी अधिकतर पनडुब्बियां भी रूस रीफिटिंग के लिए गई हुईं हैं।

नौसेना की ऐसी हालत की वजह आप किसे मानते हैं?

देखिए दरअसल नौसेना में हायरआर्की बहुत ज्यादा होती है। अगर मान लीजिए कि अभी मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत है तो मैं यहां से फाइल आगे बढ़ाऊंगा, उसके बाद वो हायरआर्की के सारे अफसरों से होती हुई मंत्रालय तक पहुंचेगी और फिर फंड सैंक्शन होगा। फंड आते-आते इतना समय लग जाता है कि बहुत सी परेशानियां सुलझ नहीं पाती। लगातार देरी होती जाती है। यहीं वजह है कि कई बार तो लोग यह सोचते है कि अगर मैं अभी बैटरी की डिमांड करूंगा तो उसकी फाइल आगे बढ़ते-बढ़ते और फंड आते-आते तो काफी वक्त लग जाएगा, इससे बेहतर इसी पुरानी बैटरी को ठीक करके काम चला लूं। इसलिए ऐसी परेशानी होती है। पर अब तो हालात काफी सुधर रहे हैं। निकट भविष्य में उम्मीद है कि सबकुछ अच्छा होगा।

आप अपनी तरफ से कुछ कहना चाहेंगे?

मैं अपनी तरफ से यहीं कहना चाहूंगा कि इन हालातों पर चिंता करने की नहीं बल्कि इनका हल ढूंढने की ज़रूरत है। हमें फंड की ज़रूरत है। एक बार हमें फंड सही समय पर मिलने लगेगा तो बहुत सारी परेशानियां खतम हो जाएंगी।

Tuesday, 16 September 2014

दशकों से कब्रों में सो रहे इन मुर्दों को इनकी कब्रों से निकाल कर सामूहिक कब्र में फेंका गया, केवल इसलिए कि कब्र का मोटा किराया भरने के लिए इनके रिश्तेदारों के पास पैसे नहीं थे...



यह कोई मल्टीफ्लोर सोसाइटी से झांकती बालकनियां नहीं बल्कि ग्वाटेमाला शहर का जनरल कब्रिस्तान है जहां एक के ऊपर एक कई मंजिलनुमा अंदाज में कब्रे हैं। यह कब्रें एक के ऊपर एक बने छोटे-छोटे तलघरों या तहखानों मे हैं जिन्हें अंग्रेजी में क्रिप्ट कहते हैं। इस तस्वीर में कब्रिस्तान के ऊपर जो गिद्ध मंडराता हुआ दिख रहा है, उसकी वजह है, खाने की तलाश... अगर आप यह सोच रहे हैें कि कब्रिस्तान में पत्थरों के अंदर बंद कब्रों से गिद्ध को खाना कैसे मुहैया हो सकता है, तो हम आपको बता दें, कि बिल्कुल हो सकता है। बल्कि ग्वाटेमाला के जनरल कब्रिस्तान में तो अक्सर गिद्ध मंडराते रहते हैं क्योंकि उन्हें यहां अक्सर खाना मुहैया होता रहता है।



जिस तरह सोसाइटी के घरों में रहने वाले लोगों को मकानों का किराया भरना पड़ता है ठीक उसी तरह मरने के बाद इन सोसाइटीनुमा तंग कब्रों में रहने के लिए भी मृत लोगों के रिश्तेदारों को यह कब्रें लीज़ पर लेनी पड़ती हैं और साल दर साल उनका मोटा किराया चुकाना होता है। कई बार तो लोग मरने से पहले अपनी कब्रों के लिए पैसों का इंतज़ाम करके रख कर जाते हैं।
और जैसे ही किसी कब्र की लीज़ खत्म होती है या किराया आना बंद होता है, ग्वाटेमाला के जनरल कब्रिस्तान में कार्यरत ग्रेव क्लीनर्स अपने हथौड़े लेकर संबंधित कब्र पर पहुंच जाते हैं। कब्र तोड़ कर उसमें से ताबूत निकाल लिया जाता है और वो जगह किसी नए पैसे वाले ग्राहक के लिए खाली कर दी जाती है।
उपरोक्त तस्वीर में ऐसा ही हो रहा है। लीज खत्म होने के बाद, ग्रेव क्लीनर एक कब्र को तोड़कर उसके पुराने रहवासी को निकालकर नए के लिए जगह बना रहा है।



और देशों का हाल क्या है यह तो मालूम नहीं, लेकिन डेली मेल और रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक कम से कम ग्वाटेमाला में तो आपको निजी कब्र तभी हासिल होती है जबकि पास आपके रिश्तेदारों के पास कब्र का किराया भरने के लिए पैसे हों। अगर आपके पास पैसे नहीं तो मरने के बाद भी आपको निजता हासिल नहीं होगी बल्कि आपकी मंजिल होगी सामूहिक कब्र।
इस तस्वीर में आप देख सकते हैं कि किस तरह लीज़ खत्म होने के बाद एक अन्य कब्र को तोड़ा जा रहा है।



ग्रेव क्लीनर्स कब्र को खोदकर उसमें से सड़े-गले शव, हड्डियां और बाकी सारा सामान निकाल देते हैं। यहां एक नवजात बच्चे की कब्र को खोदकर उसमें से सफेद ताबूत निकाला गया है।



एक अन्य ग्रेव क्लीनर एक ज़मीदोंज कब्र को खाली कर रहा है। जगह कम होने के कारण कई बार पहले भी खाली होने वाली कब्र के लिए बुकिंग कर ली जाती है।



कब्र से निकले ताबूतों में से विघटित हो चुकी लाश निकाल कर अलग कर ली जाती है और फिर उसे अलग प्लास्टिक के बैग में भर लिया जाता है। नीचे की कब्रों में दफनाई गई लाशें तो कई बार पूरी तरह अपघटित हो जाती हैं लेकिन ऊपर की मंजिलों में दफनाई गई लाशें धूप और नमी नहीं मिलने के कारण ममी में बदल जाती हैं। उनका विघटन नहीं होता, जैसे कि यह खोपड़ी जिसपर कि बाल भी दिख रहे हैं।



निकाले गए सड़े गले शवों को प्लास्टिक के थैलों में भरकर उस पर संबंधित जानकारी लिख दी जाती है जैसे कि मृत व्यक्ति का नाम, मौत का वर्ष, लिंग और जिस कब्र में वो दफनाया गया था उसका कोड आदि। यह सब जानकारी भी केवल इसलिए रखी जाती है ताकि अगर बाद में कोई रिश्तेदार मृत शरीर को दाह संस्कार या किसी और वजह से मांगना चाहे तो पैसे लेकर उसे वो दिया जा सके।



यहां एक ग्रेव क्लीनर एक ममी में बदल चुकी लाश को प्लास्टिक की थैली में भर रहा है। इन ग्रेव क्लीनर्स को कब्र साफ करने के लिए मास्क, दस्ताने और हथोड़े दिए जाते हैं लेेकिन कई बार ये इस काम के इतने अभ्यस्त हो चुके होते हैं कि इन्हें ना तो घिन आती है और ना ही कोई दुर्गंध महसूस होती है और बिना मास्क और दस्तानों के ही मशीनी अंदाज में इन लाशों को निकालने और प्लास्टिक थैलों में भरने का काम करते हैं।



निकाली गई लाशों को पॉलीथीन बैग्स में भरकर बिल्कुल कूड़े के ढेरों की तरह एक के ऊपर एक ट्रक में फेंक दिया जाता है, जहां से यह ट्रक इन्हें सामूहिक कब्र में दफन करने के लिए ले जाते हैं। लाशों को कब्रों और ताबूतों से निकालने की प्रक्रिया में कई बार लाशें टूट जाती हैं, बिखर जाती हैं और जगह जगह मांस, खाल हड्डियां आदि बिखर जाते हैं जिसके चलते यहां मंडराते गिद्धों को खाना मिल जाता है।



कई बार ज़मीन पर बिखरी लाशों को यह ट्रक बिना किसी सम्मान के किसी कूड़े की तरह ही इस तरह उठाकर ले जाते हैं।



यहां ग्रेव क्लीनर्स बिल्कुल इस तरह काम करते हैं जैसे कि वो कब्रों के साथ नहीं बल्कि किसी निर्माण स्थल या रीसाइक्लिंग साइट पर काम कर रहे हों। यहां ट्रक के इंतज़ार में थैलियों में भरी हुई लाशें देखी जा सकती हैं।



यहां ग्वाटेमाला ग्रेवयार्ड के पास लाशें पड़ी हैं और ऊपर खड़े हैं ग्रेव क्लीनर्स। इन ग्रेव क्लीनर्स को यहां सभी उपनामों से जानते हैं जैसे कोको,चकी, लोको, विको और नीग्रो।



कब्रों को खोद कर निकालने, उन्हें पैक करने और सामूहिक कब्र तक ले जाने के काम में इन्हें प्रति कब्र के हिसाब से काफी कम मजदूरी मिलती है। यह काम इन्हें अच्छा नहीं लगता लेकिन फिर भी करते हैं क्योंकि पैसे कमाने का यहीं एक ज़रिया इनके पास है। वैसे एक बात और भी है, नीग्रो के अनुसार अब उन्हें यहां काम करते हुए डर नहीं लगता क्योंकि उन्हें मालूम है कि मृत आत्माएंं उनकी रक्षा करेंगी।



इस तस्वीर में ग्रेव क्लीनर थैलियों में भरी लाशों को सामूहिक कब्र में डालने ले जा रहा है जहां इन शवों को इन्हीं के जैसे हज़ारों अजनबी लाशों के बीच डाल दिया जाएगा।



तीस मीटर गहरी सामूहिक कब्र को ताला लगाकर रखा जाता है क्योंकि कई बार तांत्रिक वगैरह जादू-टोने के लिए यहां से हड्डियां निकाल कर ले जाते हैं। हर लाश एक अलग लेबल्ड पॉलिथीन में होती है ताकि बाद में अगर रिश्तेदार संबंधित लाश लेना चाहे तो उसे ढूंढ कर निकाला जा सके।



शवों को हटाने के बाद बचे टूटे-फूटे ताबुतों को कब्रिस्तान के पास ही कूड़े और टूटी फूटी लकड़ियों के ढेर पर डाल दिया जाता है। वो सभी बची हुई चीज़े जो कि रिश्तेदारों को चाहिए उन्हें एक छोटे डिब्बे में भर कर कब्रिस्तान के एक कमरे में जमा करवा दिया जाता है।

ग्वाटेमाला की यह रिपोर्ट जितनी चौंकाने वाली है उससे भी ज्यादा दुखद और इस कड़वी सच्चाई का अहसास कराने वाली है कि अगर आपके पास पैसे नहीं हैं तो मरने के बाद भी आपकी निजता का हनन होना तय है। मरने के बाद आपके मृत शरीर को भी एक वस्तु की तरह ही प्रयोग किया जाएगा। हो सकता है मरने के बाद भी आपको चैन ना नसीब हो बल्कि आपका अंजाम हज़ारो अनजान मुर्दों के नीचे दबी एक प्लास्टिक की थैली में भरी टूटी-फूटी लाश के रूप में हो...


सभी फोटो-रॉयटर्स
स्त्रोत-
http://www.dailymail.co.uk/news/article-2756622/Mummified-corpses-plastic-bags-filled-decomposed-remains-Guatemalan-grave-cleaners-remove-dead-no-longer-afford-crypts.html

http://widerimage.reuters.com/story/reburying-the-dead

बचपन की कविताएं... किसी कविता से जुड़ी कहानी, किसी कविता से जुड़ी रीत, किसी कविता से जुड़ी प्रीत... खो ना जाएं कहीं, इसलिए संजो कर रख ली हैं... :-)


बचपन की कविताएं ऐसी ही होती हैं, जिनमें कहीं तीर होता है और कहीं तुक्का। कहीं कोई भी शब्द, लय या तान अपने आप आकर जुड़ जाती है। यह कविताएं हमें अपने बड़ो से मिली, उन्हें उनके बड़ों से और उन्हें उनके बड़ो से.. और पता नहीं कहां से हमारे बच्चे भी इन्हें खूब सीखते और गाते हैं। किसी किसी कविता में तो शब्दों का भी कोई मेल नहीं, कोई मतलब नहीं बनता.. बस फिर भी लय है, ताल है और मस्ती है... मतलब से मतलब भी किसे है.. इन्हें बोलने और गाने का आनंद ही सबसे बड़ी चीज़ है...



 बचपन की गाड़ी वाली कविता

पान बीड़ी सिगरेट, गाड़ी आई लेट
गाड़ी ने दी सीटी, दो मरे टीटी,
टीटी ने दिया तार, दो मरे थानेदार,
थानेदार ने दी अर्जी, दो मरे दर्जी,
दर्जी ने सिला सूट, दो मरे ऊंट,
ऊंट ने पिया पानी, दो मर गए राजा और रानी..
और खतम हुई कहानी...

(जब बच्चे कहानी सुनने की बहुत जिद किया करते थे, तो अक्सर उन्हें यह कविता दादियां या नानियां सुना दिया करती थीं। )




मोटू पेट

मोटू पेट, सड़क पर लेट,
आ गई गाड़ी,फट गया पेट,
गाड़ी का नंबर एक सौ एक,
गाड़ी पहुंची इंडिया गेट,
इंडिया गेट से आई आवाज़,
चाचा नेहरू जिन्दाबाद

(शायद हमारी पाठ्य पुस्तक का हिस्सा थी यह कविता। बड़ी मजेदार..)






टेसू- झांझी के गीत


अब तो बाज़ारों में टेसू आने ही बन्द हो गए हैं वरना पहले टेसू झांझी का त्यौहार खूब मना करता था। महानवमी से शुरू होकर पूर्णिमा पर टेसू और झांझी के विवाह के बाद इस त्योहार का समापन हुआ करता था। कहते हैं कि तीन टांग पर खड़े होकर टेसू ने महाभारत का पूरा युद्ध देखा था। वो बहुत बड़ा दानवीर और योद्धा था। खाटूश्याम जी के मंदिर में टेसू की भी पूजा होती है। शायद महाभारत काल से ही टेसू और झांझी का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। टेसू के ये गीत पहले खूब प्रचलित थे...


-मेरा टेसू यहीं अड़ा, खाने को मांगे दही बड़ा
दही बड़े में मिर्चे बहुत, मेरे टेसू के नखरे बहुत

-टेसू राजा बीच बाजार, खड़े हुए ले रहे अनार
एक अनार में कितने दाने, जितने कम्बल में है खाने।
कम्बल में है कितने खाने, भेड़ भला क्यों लगी बताने।
एक झुंड में भेड़ें कितनी, एक पेड़ पर पत्ते जितनी।
एक पेड़ पर कितने पत्ते, जितने गोपी के घर लत्ते।
गोपी के घर लत्ते कितने, कलकत्ते में कुत्ते जितने...
एक लाख बीस हज़ार, दाने वाला एक अनार..
टेसू राजा कहे पुकार, लाओ मुझको दे दो चार।

-टेसू रे टेसू घंटार बजईयो,
दस नगरी सौ गांव बसईयो
बस गई नगरी बस गए मोर..
बूढ़ी डुकरिया ले गए चोर.
चोरन के घर खेती भई
खाय डुकरिया मोटी भई।
मोटी हैके पीहर गई।
पीहर में मिले भाई- भौजाई।
सबने मिलकर दई बधाई


ताली वाला गेम


पता नहीं इसकी शुरूआत कब और कैसे हुई, लेकिन आज भी कहीं दो बच्चे आपको लय में एक दूसरे के साथ ताली बजाते और इस गेम को खेलते मिल जाएंगे। इसकी कविता बड़ी अलग है...भानुमती के पिटारे जैसी.. जिसमें हिरन है, धागा है, पत्ते हैं, रसमलाई है, नानी है और समोसे भी...


आओ मिलो, शीलो शालो,
कच्चा धागा, रेस लगा लो।
दस पत्ते तोड़े, एक पत्ता कच्चा।
हिरन का बच्चा,
हिरन गया पानी में,
पकड़ा उसकी नानी ने,
नानी को मनाएंगे,
रसमलाई खाएंगे।
रसमलाई अच्छी,
उसमें से निकली मच्छी।
मच्छी में कांटा।
तेरा मेरा चांटा।
चांटा पड़ा ज़ोर से,
सबने खाए समोसे।
समोसे बड़े अच्छे,
नानाजी नमस्ते...।








अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो

अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
सौ में लगा धागा
चोर निकल के भागा














पट्टी सुखाने वाली कविता

हमारे मम्मी पापा, दादा-दादी के समय में कॉपी किताबों पर नहीं बल्कि लकड़ी की पट्टियों पर पढ़ाई करवाई जाती थी। स्लेट से कुछ अलग इन पट्टियों पर खड़िया से लिखा जाता था और फिर इस लिखे को मिटाने के लिए गीले कपड़े से पोंछते थे। जब पट्टी गीली हो जाती थी तो सारे बच्चे मिलकर उसे धूप में सुखाते थे और यह कविता गाते थे...

राजा आया, महल चिनाया

महल के ऊपर झंडा गड़वाया
झंडा गया टूट, राजा गया रूठ
सूख सूख पट्टी, चंदन गट्टी
झंडा फिर लगाएंगे, राजा को मनाएंगे।






गिनती सिखाने वाली कविता

 जैसे आज के बच्चों को गिनती सिखाने के लिए 'वन टू बक्कल माई शू' जैसी अंग्रेजी कविताएं हैं, वैसे ही पहले लोग एक से दस तक की गिनती ऐसी कविताओं से सीखा करते थे..


एक बड़े राजे का बेटा,
दो दिन से भूखा लेटा
तीन महात्मा सुनकर आए
चार दवा की पुड़िया लाए
पांच मिनट में गरम कराए
छै-छै घंटे बाद पिलाए
सात मिनट में नैना खोले
आठ मिनट नानी से बोले,
नौ मिनट में उठकर आए
दस मिनट में ऊधम मचाएं..





और अंत में सबको चिढ़ाने वाली यह कविता... सबने गाई होगी और अभी भी गाते होंगे...



बदतमीज, 
खद्दर की कमीज
लट्ठे का पजामा, 
बंदर तेरा मामा..


अगर आपको भी बचपन की ऐसी मजेदार कविताएं याद हैं तो शेयर करें :-)

Sunday, 31 August 2014

ऐसा होता है गर्ल्स होस्टल का संडे

भोपाल गर्ल्स होस्टल

भोपाल। आज ना बाथरूम के बाहर लम्बी लाइन लगी है और ना मैस के बाहर भीड़.., किसी को ना तो नहाने की जल्दी है और ना ही पानी चले जाने का डर। सब जगह सन्नाटा छाया हुआ है। मैस में रोज़ाना सुबह 6 बजे ही गैस चढ़ा दी जाने वाली चाय की केतली आज नौ बजे भी एक तरफ पड़ी हुई है। माहौल में रोज की तरह शोर-शराबा नहीं है, बल्कि खामोशी बिखरी हुई है.. क्योंकि आज छुट्टी का दिन है.. जी हां, टुडे इज़ सन्डे।

यह है गर्ल्स होस्टल का सन्डे.., कुछ विशेष, कुछ अलग..। नौ बज रहे हैं लेकिन कोई भी सोकर नहीं उठा है,..और फिर अचानक रूम नंबर नाइन से आवाज़ सुनाई देती है..
"ऊssss (उबासी), घड़ी कहां हैं मेरी?  ओह, नौ बज गए.. ऐश उठ, यार ऐश, ऐ...श , उठ ना..नौ बज रहे हैं, कपड़े नहीं धोने हैं तुझे?"
और ऐश थोड़ा सा नानुकर करने के बाद उठती है, कुछ अलसाई सी, सोई सी...। ऐश से रितु, फिर जया, फिर नेहा, फिर वंदना.. तक सभी धीरे-धीरे नींद की दुनिया से बाहर निकलने लगते हैं। धी-धीरे हलचल बढ़ रही है। हर कमरे में कुछ जीवंतता आती दिख रही है। साढ़े नौ बजने को हैं और अब कहीं जाकर पूरे होस्टल के लोग जागे हैं।
जी हां, लगभग इसी समय शुरू होता है हर सन्डे.., गर्ल्स होस्टल का संडे।
दिन चढ़ने के साथ- साथ माहौल में तेज़ी आ रही है। बहुत सारे काम निपटाने को हैं, और देखते ही देखते हर तरफ से आवाज़े आनी शुरू..
 "यार मीता, मेरे मेहंदी लगा दे ना.., यार मुझे सिर धोना है, पहले मुझे नहाने दे..., भैया चाय बन गई क्या..., टीवी पर देखो ना क्या आ रहा है.., यार जब भी जाले साफ करने की सोचो यह झाड़ू कहां चली जाती है..., मेरे कपड़े बहुत ज्यादा है, पहले मैं धो लूं...., ".. जैसे स्वर हर तरफ से गूंजने लगते हैं। आज के दिन फोन की घंटी भी पूरे दिन बजती है.. यह देखो फिर बजी... "नेहा तुम्हारा फोन"....

और कुछ ही देर में पूरे होस्टल का नज़ारा बदल जाता है। सीमा, माधवी के सिर पर मेहंदी लगा रही है तो मिताली झाड़ू लगाने में व्यस्त है और सोफिया को तो भई सबसे पहले अखबार पढ़ना है।

पूरे होस्टल में कहीं किसी कमरे में इंग्लिश गाने चल रहे हैं, कहीं नए हिंदी फिल्मी गाने तो कहीं जगजीत सिंह की गज़लें.. और म्यूजिक की तानों पर थिरकते हुए हर कमरे के बाथरूम में कपड़े धोए जा रहे हैं।  हां जी, पूरे हफ्ते व्यस्त रहने वाले होस्टलर्स रविवार के दिन ही कपड़े धोते हैं और वो भी म्यूजि़क सुनते हुए। काम के बीच में ही चाय-नाश्ता वगैरह भी निपटा लिया जाता है। इस सारे शोर-शराबे के बीच सुबह की खामोशी कहीं खो गई सी लगती है।
अब एक बजने को है और होस्टल की छत धोबीघाट नज़र आने लगी है। सभी नहा-धो चुके हैं। सबके कपड़े भी धुल चुके हैं। और अब आई खाने की बारी...।

गूगल फोटो
मैस में लाइन लगना शुरू। थाली-कटोरी, चम्मचों के शोर के बीच लड़कियों की आवाज़ें गूंज रही हैं... "भैया जल्दी करो ना, पुलाव बनाने में इतनी देर क्यों लग रही है...?, बहुत जोर से भूख लगी है।"... हर कोई भूख से बेहाल खड़ा है और यह खाना है कि बनने का नाम ही नहीं ले रहा। " अरे हां आज तो सेकेंड सन्डे है, आज तो फीस्ट मिलनी है हम सबको, पता नहीं क्या होगा फीस्ट में"... अरुणिमा चिल्लाती है और अचानक ज़ोर से घंटी बजने लगी... यानि, य़ानि, यानि खाना तैयार हो गया है..। और फिर दो मिनट में सब एक साथ खाना खाते हुए दिखते हैं। कुछ लोग तो टीवी भी खाना खाते वक्त ही देखते हैं... " यार देखो ना, कोई नहीं मूवी तो नहीं आ रही, .. गाने चलने दो ना.., अरे यार कुटुम्ब लगाओ.. ".. यह सब टीवी रूम से आ रही आवाज़े हैं।

खाना खाने के बाद लगभग दो ढाई बजे से फिर से होस्टल में खामोशी छानी शुरू हो जाती है, क्योंकि अब सोने का समय है। सुबह से ही ढेर सारा काम करके सब थक चुके हैं और फिर केवल सन्डे को ही तो दिन में सोने का मौका मिलता है तो सोना ज़रूरी है।

कुछ लोग ऐसे हैं जो शॉपिंग करने, मूवी देखने या फिर आउटिंग पर निकल जाते हैं। कुछ को अपने लोकल गार्जियन के यहां भी जाना होता है, और जो कहीं नहीं जाते वो सो जाते हैं..और फिर सबके सोने के साथ ही फिर से चुप्पी और सन्नाटे का साम्राज्य छा जाता है, फोन आने भी बन्द..।

इस चुप्पी को तोड़ती है शाम पांच बजे की चाय की घंटी। फोन आने एक बार फिर शुरू हो जाते हैं और धीरे-धीरे सब कप हाथ में पकड़े मैस में आ जुटते हैं। चाय आराम से पी जाती है। इस दौरान ढेर सारी बातें, गपशप और गॉसिप का दौर भी चलता है.. और अब शुरू होती हैं होस्टल में मस्तियां।

हर कोई फ्रेश, चाय पीकर तैयार.. सब खुश और मस्त नज़र आने लगते हैं। इस वक्त या तो तेज़ म्यूजिक पर डांस पार्टी हो सकती है या फिर साथ बैठकर टीवी पर कोई मूवी देखी जा सकती है, या हो सकता है कि घूमने का प्लान बन जाए तो लेक पर भी जाया जा सकता है। सात साढ़े सात बजे तक लगभग सभी होस्टल लौट आते हैं और तब जमता है पार्टी का असली रंग... डांस का रंग और शोर-शराबे का रंग। किसी भी एक कमरे में सब इकट्ठे हो जाते हैं और चलता है तेज़ म्यूजिक और फिर डांस...
" पारुल आ ना.., चलो ना श्वेता डांस करते हैं,... अच्छा फिज़ां के गाने लगा दूं.., किसी और पे डांस करना है तो बोल.. " .. पूरे होस्टल में खुशनुमा माहौल छा जाता है।
गाने और डांस के माहौल के बीच एक बार फिर बजती है रात के खाने की घंटी, दिन की आखिरी घंटी...लगभग नौ, साढ़े नौ बजे और सब फिर दौड़ते हैं मैस की तरफ।  उसके बाद डिनर का दौर.., उसके बाद मूड हुआ तो फिर टीवी, नहीं तो टैरेस पर घूमते हुए बातों का दौर और या फिर ... टाटा, बाय, बाय.. हम तो चले सोने..।

तो कुछ यूं बीतता है छुट्टी का दिन, गर्ल्स होस्टल में सन्डे का दिन.., और जैसे जैसे दिन खत्म हो रहा है, रात गहरा रही है, सन्नाटा फिर से छाने लगा है। खामोशी फिर बढ़ने लगी है, सुबह के इंतज़ार में...।

(मेरे द्वारा अपने होस्टल पर लिखा गया यह फीचर नवभारत, भोपाल में 2002 में प्रकाशित हुआ था। )

Tuesday, 5 August 2014

पचास साल तक लोहे की बेड़ियों में जकड़े रहने के बाद मिली आज़ादी....राजू हाथी की आत्मकथा

    प्रस्तावना (प्रोलॉग)

    मैंने तो कभी जाना ही नहीं कि हाथी होना क्या है। पचास साल तक लोहे की कंटीली बेड़ियों में बंधा रहा। 27 बार बेचा और खरीदा गया। हर बार एक नया महावत.. हर बार नए मालिक द्वारा स्वामित्व दिखाने और अनुशासन सिखाने के घंटो मारना..., महावत भीख के लिए पूरे दिन सड़कों पर घुमाता था.. चिलचिलाती धूप हो, कड़ी सर्दी हो या बारिश, मैं हर समय खुले आकाश के नीचे रहा.. खाने को मिला कागज़ और प्लास्टिक,  भूख या दर्द से कराहने पर मिली बेडि़यों और नुकीले अंकुश की मार... और डॉक्टर येदुराज कहते हैं कि मेरा मानवीयता से भरोसा उठ गया है...

    जब पचास साल बाद राजू की आजादी की घड़ी आई तो उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े

    आप लोग मेरे विशालकाय शरीर को और साढ़े पांच टन वज़न को देखकर सोचते होंगे कि मैं बहुत बलशाली हूं, मुझे दर्द नहीं होता..., लेकिन मेरे दर्द की कहानी सुनकर आप भी सिहर उठेंगे। आज मैं आज़ाद हूं और आपको अपनी कहानी सुना पाने की हालत में हूं। मेरी इस कहानी के दो ही चैप्टर्स हैं। एक मेरे पहले पचास साल जब बेड़ियों में रहना ही मेरी जिंदगी थी और एक आज का दौर जब मैं धीरे-धीरे जान रहा हूं कि हाथी होना क्या है...


    मार पिटाई, बेड़ियों का बचपन और 27 बार बिकना-   

     मैं पचास साल का मखना नर हाथी हूं। मेरा नाम राजू है। शायद महावत ने ही मुझे यह नाम दिया होगा या पता नहीं यह नाम कैसे पड़ा पर अब मैं इसी नाम से जाना जाता हूं। अपने बचपन के बारे में ज्यादा कुछ याद नहीं। तब शायद मैं बहुत छोटा था, कुछ महीने का.. तभी शिकारी मुझे जंगल से पकड़ लाए थे और मुझे मेरे पहले मालिक को बेच दिया। तब पहली बार उसने मुझे जंजीर से बांधा। मुझे मारा, इतना मारा कि डर के मारे मुझे उसकी हर बात मानने को मजबूर होना पड़ा। वो जो कहता था मैं करता था, वरना मार पड़ती थी। नुकीले अंकुश की मार या फिर कंटीली झाड़ियों की मार। दो साल तक मैं उसके पास रहा और फिर जब मैं दो साल का हुआ तो उसने मुझे बेच दिया।

     फिर एक नया स्वामी, नया अनुशासन, फिर से मार... मेरी बेड़िया जो एक बार पैरों में पड़ गई थीं , मुझे नहीं पता था कि अब यह पचास साल बाद खुलेंगी। उस नए मालिक ने मेरे चारो पैरों को जंजीर से बांध दिया और मुझे घंटो मारता रहा। तब तक मारता रहा जब तक मैंने उसके इशारे समझने नहीं सीख लिए। वो जब कहे तब बैठने का इशारा, वो जब कहे तब उठने का इशारा, सूढ़ उठाने का इशारा, सिर हिलाने का इशारा....। इतना सिखाकर दो साल तक  उसने भी मेरे से खूब मेहनत करवाई.. पैसे कमाए.., और फिर मुझे बेच दिया एक नए मालिक के हाथों.. थोड़े से ज्यादा पैसो के लालच में। 

    कभी एक साल में तो कभी दो सालों में... 27 बार मुझे बेचा गया। उत्तर प्रदेश के 29 गांवों में रहा मैं। एक बार तो मेरा मालिक मुझे बेचने के लिए बिहार के सोनपुर हाथी मेले में भी ले गया था। वहां भी मेरे जैसे बहुत थे। बेड़ियों में बंधे हुए लाचार हाथी। उन्हें देखा तो बस लगने लगा कि यहीं शायद हम हाथियों की किस्मत होती है। बार बार बिकना... बार-बार मार खाना, मालिक का पेट भरने के लिए दिन भर कड़ी मेहनत करना और खुद भूखे पेट सो जाना।  हर बार नयी जगह, नया मालिक, नया अनुशासन का पाठ और बेरहम पिटाई। कुछ नहीं बदलता था तो मेरे पैरों की बेड़ियां... वो कांटेदार बेड़िया जिन्हें मनुष्य स्पाइक्ड शैकल्स कहते हैं। 


    पचास साल तक इन्हीं लोहे की कांटेदार जंजीरों में जकड़ा रहा मैं

    मुझे याद है मेरे सारे मालिक अपनी खोली में सोते थे लेकिन मैं हमेशा खुले आसमान के नीचे ही रहा। कड़ाके की ठंड हो, चिलचिलाती धूप या फिर रिमझिम होती बारिश... मेरी बेड़ियां खुले आसमान के नीचे ही बंधती थी। रात हो या दिन मैं वहीं मैदान में बांध दिया जाता था। 

    महावत के लिए भीख मांगी, और मुझे प्लास्टिक और कागज़ पर गुजारा करना पड़ा
    मालिक के लिए दिन भर भीख मांगने के बाद भी मुझे हमेशा भूखा रहना पड़ता था
    एक के बाद एक बिकते हुए मैं अपने आखिरी मालिक तक पहुंचा जो एक ड्रग एडिक्ट था। उसने इलाहाबाद के एक गांव में मुझे रखा था। मेरे पैर की बेड़ियों में जाने कब की जंग लग चुकी थी। वो मेरे सीधे पैर के मांस में इस कदर पैबस्त हो गई थीं कि वहां एक खोह जैसी बन गई थी। मेरे पैर में पस पड़ गया था। चलने में बहुत तकलीफ होती थी। पर क्या करूं नहीं चलता, महावत का आदेश नहीं मानता तो फिर से पिटाई सहनी पड़ती। इसलिए मैं चलता था.. पैर से पस रिसता रहता था, शरीर पर पिटाई के और भी खुले जख्म थे, पर चलना पड़ता था.. करतब दिखाने के लिए, भीख मांगने के लिए.., जो महावत कहे वो करने के लिए.. ।

     मेरा महावत मुझे संगम किनारे ले जाता था। वहां कई लोग मेरी पूजा करते थे और मेरे महावत को पैसे देते थे। लोग मुझे मिठाई या पूरियां वगैरह दे देते थे, और मैं भूख का मारा उन्हें खा लेता था। मेरे किसी भी महावत ने मुझे कभी भरपेट तो क्या थोड़ा सा भी खाना नहीं दिया। जिंदगी भर लगभग भूखा रहा मैं। क्या करता..,  सड़क पर जो कागज या प्लास्टिक पड़ा मिल जाता था.., या फिर सब्जियों के छिलके,.. बस उसी को खाकर अपना पेट भरना सीख लिया। सड़क पर चलते कभी पेड़ दिखते तो वो भी खाने के लिए महावत नहीं रुकने देता था। जब संगम पर नहीं जाता था तो मुझे लेकर सड़कों पर घूमता था और मुझसे सूढ़ उठाकर भीख मंगवाता था। 
    मुझे कई बार लोगों को घुमाने के लिए भी इस्तेमाल किया... लेकिन मेरे खाने और आराम का कभी ध्यान नहीं रखा। वो खुद थक जाता था तो आराम करता था, लेकिन मेरा आराम उसे मंजूर नहीं था। मेरे लिए तो बस वही बेड़ियों वाला बाड़ा था जहां मुझे हर शाम थक कर चूर होने के बाद बांधा जाता था और खाना या पानी भी नहीं दिया जाता था।... रात को भूख के कारण जब मैं कई बार चिंघाड़ता था तो कभी कभार आस-पास के लोग आकर सब्जी के छिलके या बचा खाना डाल जाते थे जिसे खाकर किसी तरह काम चलता था ...और कई बार तो इस पर भी महावत की मार ही पड़ती थी। 
    मेरे दांत और पूछ के बात तक बेच दिए मालिक ने- 

    उसने मेेरे दांत तोड़कर तो बहुत पहले बेच दिए थे। लोगों को कहता था कि हाथी की पूंछ के बालों को घर में रखने से अच्छा भाग्य आता है... और लोग कुछ सौ रुपए देकर मेरी पूछ के बाल खरीदने को तैयार हो जाते थे। तब बड़ी बेरहमी से वो मेरी पूंछ के बाल तोड़कर उन लोगों को बेच देता था। 


50 साल बाद आई आज़ादी की घड़ी-  


मैंने तो कभी आज़ादी का मतलब जाना ही नहीं था। लेकिन पचास साल तक ऐसी ही दशा में रहने के बाद शायद किसी को मेरी हालत पर रहम आ गया होगा और उसने जुलाई  2013 में वाइल्डलाइफ एसओएस नाम की समाजसेवी संस्था को मेरे बारे में बता दिया। वो लोग अच्छे थे। जब उन्हें मेरे बारे में पता चला तो उन्होंने मुझे छुड़ाने की कोशिशें शुरू कर दीं। उन्होंने कागज़ी कार्यवाही की और कोर्ट का आदेश प्राप्त किया। मेरा इंतज़ार एक साल और चला और आखिरकार एक साल बाद कोर्ट ने मुझे छुड़ाने का आदेश दिया और तब वो लोग मुझे छुड़ाने के लिए आए। 


2 जुलाई, 2014 को शुरू हुई मुझे आज़ाद कराने की मुहिम- 

2 जुलाई शाम को साढ़े छ बजे के लगभग वाइल्डलाइफ एसओएस के पशु चिकित्सक डॉक्टर येदुराज, चार महावतों, एक वाइल्डलाइफ बायोलॉजिस्ट, और चार आपातकालीन स्टाफ के साथ मुझे छुड़ाने आए। उनके साथ उत्तर प्रदेश के 20 फॉरेस्ट ऑफिसर और पुलिस के जवान भी थे। वो मुझे ले जाने के लिए एक दस पहियों वाला बहुत बड़ा ट्रक लेकर आए थे। 

पहले तो मैं उन लोगों को देखकर डर गया लेकिन फिर उनका व्यवहार मुझे मेरे महावत से कुछ अलग लगा। उनकी आंखों में मेरे लिए प्यार था। जब वो लोग मुझे छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे तभी मेरा महावत उनसे लड़ने आ गया, उसने मेरे चारों पैरों में और बेड़ियां बांध दी, इतनी कसकर कि मुझे बेहद दर्द होने लगा। इतना दर्द कि मैं बयान नहीं कर सकता। और फिर महावत ने मुझे उन लोगों पर हमला करने का आदेश दिया...। मैं हमला कर भी देता लेकिन एक तो मेरे पैरों में दर्द और दूसरे वो लोग बिना डरे वहां खड़े हुए थे, मुझे छुड़ाने की जिद कर रहे थे... । मैंने हमला नहीं किया। उस दिन पहली बार मुझे लगा कि शायद मेरी आज़ादी के दिन आ गए हैं और मेरी आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे..। बहुत रोया मैं उस दिन। 

और आखिरकार उन लोगों ने मेरे महावत से लड़कर मुझे छुड़ा ही लिया। वो लोग मुझे अपने ट्रक में ले गए। उन्होंने मुझे खाने को आम, केले और कटहल दिए। जब मैं ट्रक में चढ़ गया तो उन्होंने मुझे कुछ दवाएं भी दी जिससे मुझे नींद सी आने लगी थी। 

4 जुलाई, 2014 को कटी मेरी बेड़ियां और मिली आज़ादी- 

3 जुलाई की रात को लगभग 16 घंटे की यात्रा करके हम 350 मील दूर मथुरा, उत्तर प्रदेश के 'ऐलीफेन्ट केयर एंड कंजर्वेशन सेंटर' पहुंचे। मुझे वहां पहुंचकर पता चला कि डॉक्टर येदुराज पूरे रास्ते मेरे ही ट्रक पर बैठकर आए थे ताकि वो मेरा ख्याल रख सकें। मैं अभिभूत था। समझ नहीं आ रहा था कि ये लोग क्या करना चाहते हैं। फिर वो लोग मुझे ट्रक से उतारकर एक जंगल जैसी जगह ले गए..., और फिर डॉक्टर येदुराज ने मेरे पैर की कांटेदार बेड़ियां खोलने की शुरूआत की।

डॉक्टर येदुराज ने मेरे पैरों की बेड़ियां काट दी
वो समय इतना कठिन और दर्द भरा था.. कंटीली लोहे की बेड़िया मेरे पैर के मांस में घुस गईं थी। डॉक्टर येदुराज ने धीरे-धीरे करके उन्हें निकाला। मुझे बहुत दर्द हो रहा था, लेकिन वो बड़े प्यार से मेरे पैरों से वो जंग लगी बेड़ियां निकालने में लगे रहे। पूरे पैंतालीस मिनट बाद मेरी बेड़ियां निकली और मैं पांच दशकों की गुलामी से मुक्त हो गया। चार जुलाई की सुबह मेरे लिए आज़ादी लेकर आई। डॉक्टर और उनके साथियों ने मेरे पैर पर दवाईयां लगाई, मुझे फल खाने को दिए जो पहले मुझे कभी मिले ही नहीं थे। इतना प्यार मैंने कभी देखा ही नहीं था...। जानते हैं उस रात वहां सात और भी हाथी थे जो मुझे देखने के लिए वहां आ गए थे। और जब मेरे पैर से बेड़ियां खुल गईं तब पहली बार मैं अपने होश में बिना बेड़ियों के ज़मीन पर चला...

50 साल बाद मिली बेड़ियों से आज़ादी... 'बिना बेड़ियों के पहला कदम'

पैरों में बिना लोहे के बोझ के विचरने का सुख क्या होता है, कितना हल्कापन महसूस होता है... यह मैंने उस दिन जाना। भरपेट खाना क्या होता है, सिर के नीचे छत का मतलब क्या होता है, यह मैंने उस दिन जाना। उस दिन मुझे पता चला कि मारपीट नहीं करने वाले लोग भी होते हैं...

अब लगभग एक महीना हो चला है। मैं धीरे-धीरे ठीक हो रहा हूं। मेरे शरीर पर बहुत सारे जख्म थे जिन पर मेरे किसी भी मालिक ने कभी ध्यान नहीं दिया। लेकिन यहां के लोग बड़े प्यार से मेरी देखभाल करते हैं। मुझे खाने को देते हैं। मेरे जख्मों पर दवाई लगाते हैं। मुझे नहलाते हैं, खिलाते हैं... और सबसे बड़ी बात यह सब करने के बाद वो मुझे लोहे की जंजीर से नहीं बांधते, मेरी नाक, कान या बगल में अंकुश नहीं चुभाते और ना ही मुझे भीख मांगने के लिए पथरीली सड़कों पर ले जाते हैं। मैं आत्मसम्मान की जिंदगी जी रहा हूं और शायद अब मेरी जिंदगी खुशी खुशी गुजरेगी।

अपने दोस्तों के साथ राजू (हर्ड ऑफ होप)
यहां मेरे और भी दोस्त हैं। दो मेरी ही तरह नर हाथी हैं- भोला और राकेश और पांच मादा हाथी भी हैं। जिनमें से चंचल, लक्ष्मी और साईं गीता मेरी अच्छी दोस्त हैं। मुझे पता चला है कि मेरी ही तरह इन सबको भी बुरे मालिकों और स्वार्थी लोगों से आज़ाद करवाकर यहां रखा गया है। मेरे और पांचो मादा हथिनियों के ग्रुप को यहां के लोग 'हर्ड ऑफ होप' कहते हैं। यहां पूल भी है, जिसमें हम सब खूब नहाते हैं, खेलते हैं, मस्ती करते हैं...। हम साथ घूमते हैं, खाना खाते हैं और हमेशा खुश रहते हैं।

उपसंहार (एपिलॉग)
जब मैं यहां आया था तो बेहद डरा हुआ था, तब डॉक्टर येदुराज कहते थे कि मेरा मानवता से विश्वास उठ चुका है। लेकिन अब उनके साथियों और खुद उनके प्यार और देखभाल के कारण मैं फिर से अपने आप से और मनुष्यों से प्यार करना सीख रहा हूं। मेरा अच्छाई में विश्वास फिर से बनने लगा है।

अगर आप भी मुझसे और मेरे दोस्तों से मिलना चाहते हैं तो मथुरा में हमारे ऐलीफेन्ट केयर एंड कंजर्वेशन सेंटर आईए। यह आगरा स्थित ताजमहल से केवल 45 मिनट की दूरी पर है। और अगर आप मेरे जैसे अन्य मुश्किल में पड़े हाथियों की सहायता करना चाहते हैं, या मेरे और मेरे साथियों की देखभाल के लिए अनुदान देना चाहते हैं या फिर मेरे बारे में और जानना चाहते हैं तो इस वेबसाइट को विज़िट कीजिए-  http://www.wildlifesos.org/



('वाइल्डलाइफ एसओएस डॉट ओआरजी' और 'डेली मेल, यूके' की रिपोर्ट पर आधारित)


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