बुजुर्गों ने बयान किया देश का 90 साल का इतिहास..... जानिए कैसा था कल का भारत, पढ़िए उन सुनहरे दिनों की दास्तानें, देश विभाजन का दर्द, वो बदलाव जिन्होंने देश और देशवासियों को बदल दिया और कुछ आपबीती घटनाएं....
बच्चों की बातें तो आपने बहुत सुनी होंगी क्योंकि वो तो बड़ों को पकड़कर जबरदस्ती उन्हें अपनी बातें सुनाने में माहिर होते हैं और आप चाहें या ना चाहें, उनकी बातें सुननी ही पड़ती हैं। युवाओं के लिए अपनी बातें कहने, सुनने और उन पर बहस करने के लिए ऑफिस, क्लब और सोशल मीडिया उपलब्ध हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि बुज़ुर्ग लोग किससे अपनी बातें कहते होंगे और क्या कहते होंगे। खास तौर से दिल्ली जैसे शहर में जहां अमूमन परिवार में सभी लोग काम करते हैं, ऐसे में अपनी नौकरियों से रिटायर हो चुके बुज़ुर्ग जो कि उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं जहां शरीर की कमज़ोरी उन्हें कोई काम भी नहीं करने देती, आपस में मिलकर क्या बातें करते होंगे और क्या कहते होंगे..। हमने इसके बारे में जानने की कोशिश की और कॉलोनी के पार्क में दोपहर देर तक नीम के पेड़ तले, तो कभी पार्क में ही बनी छतरी के नीचे बैठने वाले बुजुर्गों से बातें की और उनके अनुभव सुने।
और तब जाना कि ये बुजुर्ग जीवंत इतिहास हैं..., यह वो काल पंचांग हैं जिनके ऊपर 90 सालों की तारीखें और घटनाएं अंकिंत हैं। यह अनुभवों की पिटारियां हैं। इनके पास ना केवल आंखो देखा आज और कल का वर्णन है बल्कि ये देश और समाज में हो रहे बदलावों के भी साक्षी रहे हैं। इन बुज़ुर्गों ने जब अपने दिल के द्वार खोले तो कहीं से भारत का स्वर्णिम इतिहास निकला तो कहीं से विभाजन का दर्द, किसी ने बदलाव के कारणों की बात की तो किसी ने अपनी निजी पीड़ा को साझा किया। इन काल पंचांगों पर अंकित कल से लेकर आज तक के अंतरों को भी हमने जाना। जो कुछ, जैसा कुछ इन अनुभवी बुजुर्गों से सुनने को मिला, आपके सामने ला रहे हैं...
प्रेम प्रकाश गुप्ता (77 वर्ष)-
आर पी दूबे (84 वर्ष)-
बच्चों की बातें तो आपने बहुत सुनी होंगी क्योंकि वो तो बड़ों को पकड़कर जबरदस्ती उन्हें अपनी बातें सुनाने में माहिर होते हैं और आप चाहें या ना चाहें, उनकी बातें सुननी ही पड़ती हैं। युवाओं के लिए अपनी बातें कहने, सुनने और उन पर बहस करने के लिए ऑफिस, क्लब और सोशल मीडिया उपलब्ध हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि बुज़ुर्ग लोग किससे अपनी बातें कहते होंगे और क्या कहते होंगे। खास तौर से दिल्ली जैसे शहर में जहां अमूमन परिवार में सभी लोग काम करते हैं, ऐसे में अपनी नौकरियों से रिटायर हो चुके बुज़ुर्ग जो कि उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके हैं जहां शरीर की कमज़ोरी उन्हें कोई काम भी नहीं करने देती, आपस में मिलकर क्या बातें करते होंगे और क्या कहते होंगे..। हमने इसके बारे में जानने की कोशिश की और कॉलोनी के पार्क में दोपहर देर तक नीम के पेड़ तले, तो कभी पार्क में ही बनी छतरी के नीचे बैठने वाले बुजुर्गों से बातें की और उनके अनुभव सुने।
और तब जाना कि ये बुजुर्ग जीवंत इतिहास हैं..., यह वो काल पंचांग हैं जिनके ऊपर 90 सालों की तारीखें और घटनाएं अंकिंत हैं। यह अनुभवों की पिटारियां हैं। इनके पास ना केवल आंखो देखा आज और कल का वर्णन है बल्कि ये देश और समाज में हो रहे बदलावों के भी साक्षी रहे हैं। इन बुज़ुर्गों ने जब अपने दिल के द्वार खोले तो कहीं से भारत का स्वर्णिम इतिहास निकला तो कहीं से विभाजन का दर्द, किसी ने बदलाव के कारणों की बात की तो किसी ने अपनी निजी पीड़ा को साझा किया। इन काल पंचांगों पर अंकित कल से लेकर आज तक के अंतरों को भी हमने जाना। जो कुछ, जैसा कुछ इन अनुभवी बुजुर्गों से सुनने को मिला, आपके सामने ला रहे हैं...
अब अध्यापकों में चरित्र नहीं बचा है..
प्रेम प्रकाश गुप्ता (77 वर्ष)-
रोहतक, हरियाणा के मूल निवासी पीपी गुप्ता जी 40 साल पहले दिल्ली आकर बस गए थे। वो बरसों पहले सरकारी स्कूल में गणित के अध्यापक के पद से सेवामुक्त हो चुके हैं और फिलहाल घर पर ही रहते हैं। बात शुरू करते ही वो मुस्कुराते हुए बोले- “तुम मेरा अनुभव छोड़ो पहले मैं तुम्हें अपना अनुभव बताता हूं। एक बार जब मैं चांदनी चौक में कहीं जा रहा था तो वहीं एक सरदारजी टकरा गए और मैंने उनसे ऐसे ही पूछ लिया- क्यों पाप्पे जी आज का ज़माना कैसा है तो तुरंत सरदारजी ने जवाब दिया.....अरे की गल कर करते हो जी, यह भी कोई ज़माना है, ज़माना तो हमारे समय में था, जब घर जाओ या किसी रिश्तेदार के पास, बड़े लस्सी के गिलास से खातिर होती थी। आज वो ज़माना कहां है? बहू-बेटे कनेड्डा जा कर बस गए हैं। जब हम उनसे मिलने जाते हैं बहू बड़ी खुश होती हैं, खूब खातिरदारी करती हैं और पैर छूकर पूछती है, पापा- आपको आने में दिक्कत तो नहीं हुई.., आपका जाने का टिकिट तो कन्फर्म हो गया है ना...? बहू के और रिश्तेदार भी वहां रहते हैं, हमसे मिलने आते हैं तो सब यहीं पूछते हैं...अच्छा हुआ जी बेटे-बहू से मिलने आ गए.. वैसे वापसी कब की है?... मतलब पहुंचो बाद में, पहले यह बता दो कि कब वापस जाओगे..।
अब बारी थी अपना खुद का अनुभव बताने की। और इस पर गुप्ता जी अपने अध्यापन काल को याद करते हुए कहीं खो गए और कहने लगे- “जब हम बच्चे थे ना तब पब्लिक स्कूल नहीं होते थे, केवल सरकारी स्कूल होते थे और तब अध्यापकों की इज़्जत होती थी, वो हर बच्चे पर मेहनत करते थे। छात्र अगर कुछ सीखते नहीं थे तो उनको थप्पड़ पड़ता था और थप्पड़ भी ऐसा कि हिन्दुस्तान का नक्शा आपके गाल पर छप जाता था, और मजाल है कि कोई मां-बाप आकर अध्यापक से कुछ कह जाए। क्य़ोंकि वो जानते थे कि तब अध्यापक बच्चों की भलाई के लिए, उन्हें सुधारने के लिए उन पर हाथ उठाते थे। मेरा भी एक सरदार टीचर था जो गणित पढ़ाता था। उसकी डांट और चांटे की बदौलत ही मैं गणित सीख पाया और इतनी अच्छी सीखी कि मैं गणित का ही टीचर बन गया। मैं भी जब अध्यापक बना तो छात्रों के लिए डंडा लेकर जाता था। मुझे दिल्ली के गगन विहार के सरकारी स्कूल में नौंवी और दसवीं कक्षा में सरदार छात्रों के सेक्शन को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गई थी। वो इतने विकट शैतान थे कि एक तो उनका सेक्शन ही अलग बना दिया गया था और दूसरे कोई उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं होता था। लेकिन मैं अपना डंडा लेकर जाता था... मेरा खौफ था बच्चों में। किसी की हिम्मत नहीं कि काम करके ना लाए। बच्चे दूर से भी देख लेते थे, तो कहते थे.. निकल ले भाई, यह तो पीपी गुप्ता दिखे है...। मैं जब उस स्कूल से रिटायर हुआ तो अगले टीचर को अपना डंडा देकर आया कि इसी से सबको सीधा करना। और देख लो मेरा पढ़ाया एक बच्चा फेल नहीं हुआ। सब बढ़िया से बढ़िया काम कर रहे हैं। जब अध्यापक में चरित्र होगा, उसकी नीयत बच्चे को नुकसान पहुंचाने की नहीं, उसका भला करने की होगी, वो ट्यूशन पढ़ाने की बजाय क्लास में ही हर बच्चे को अपनी जिम्मेदारी समझकर उस पर ध्यान देगा तब क्या मजाल किसी अभिभावक की कि वो उसे छात्रों को सजा देने या मारने से रोके। ऊंगली मार पर नहीं अध्यापक के चरित्र पर उठती है। और आज के अध्यापकों में तो चरित्र ही नहीं बचा है, तो छात्र कहां से उसका सम्मान करेगा। बिना चरित्र के जब वो मारता है तो छात्र और उसके मां-बाप भी आवाज़ उठाते हैं।
अब बारी थी अपना खुद का अनुभव बताने की। और इस पर गुप्ता जी अपने अध्यापन काल को याद करते हुए कहीं खो गए और कहने लगे- “जब हम बच्चे थे ना तब पब्लिक स्कूल नहीं होते थे, केवल सरकारी स्कूल होते थे और तब अध्यापकों की इज़्जत होती थी, वो हर बच्चे पर मेहनत करते थे। छात्र अगर कुछ सीखते नहीं थे तो उनको थप्पड़ पड़ता था और थप्पड़ भी ऐसा कि हिन्दुस्तान का नक्शा आपके गाल पर छप जाता था, और मजाल है कि कोई मां-बाप आकर अध्यापक से कुछ कह जाए। क्य़ोंकि वो जानते थे कि तब अध्यापक बच्चों की भलाई के लिए, उन्हें सुधारने के लिए उन पर हाथ उठाते थे। मेरा भी एक सरदार टीचर था जो गणित पढ़ाता था। उसकी डांट और चांटे की बदौलत ही मैं गणित सीख पाया और इतनी अच्छी सीखी कि मैं गणित का ही टीचर बन गया। मैं भी जब अध्यापक बना तो छात्रों के लिए डंडा लेकर जाता था। मुझे दिल्ली के गगन विहार के सरकारी स्कूल में नौंवी और दसवीं कक्षा में सरदार छात्रों के सेक्शन को पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गई थी। वो इतने विकट शैतान थे कि एक तो उनका सेक्शन ही अलग बना दिया गया था और दूसरे कोई उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं होता था। लेकिन मैं अपना डंडा लेकर जाता था... मेरा खौफ था बच्चों में। किसी की हिम्मत नहीं कि काम करके ना लाए। बच्चे दूर से भी देख लेते थे, तो कहते थे.. निकल ले भाई, यह तो पीपी गुप्ता दिखे है...। मैं जब उस स्कूल से रिटायर हुआ तो अगले टीचर को अपना डंडा देकर आया कि इसी से सबको सीधा करना। और देख लो मेरा पढ़ाया एक बच्चा फेल नहीं हुआ। सब बढ़िया से बढ़िया काम कर रहे हैं। जब अध्यापक में चरित्र होगा, उसकी नीयत बच्चे को नुकसान पहुंचाने की नहीं, उसका भला करने की होगी, वो ट्यूशन पढ़ाने की बजाय क्लास में ही हर बच्चे को अपनी जिम्मेदारी समझकर उस पर ध्यान देगा तब क्या मजाल किसी अभिभावक की कि वो उसे छात्रों को सजा देने या मारने से रोके। ऊंगली मार पर नहीं अध्यापक के चरित्र पर उठती है। और आज के अध्यापकों में तो चरित्र ही नहीं बचा है, तो छात्र कहां से उसका सम्मान करेगा। बिना चरित्र के जब वो मारता है तो छात्र और उसके मां-बाप भी आवाज़ उठाते हैं।
मामा, मौसी, चाचा, ताऊ के रिश्ते खत्म हो गए, रह गए केवल अंकल-आंटी
मूलत इलाहाबाद के निवासी आर पी दूबे अपना गांव फूलपुर छोड़कर तब आए जब घर में सदस्य ज्यादा हो गए और ज़मीन कम। उस ज़माने को याद करते हुए बताते हैं कि उस समय सरकारी नौकरियों की कोई कमी नहीं थी। सन् 1958 में उन्हें टेलीफोन डिपार्टमेन्ट में नौकरी मिली। तब महंगाई भी ज्यादा नहीं थी। लोग आराम से जीते थे। अपनी नौकरी के दौरान वो 14 महीने बगदाद में भी रहे। जब ईरान और ईराक की लड़ाई चल रही थी तब भारत सरकार ने वहां कार्यरत सभी भारतीयों को वापस बुला लिया था और तभी वो वापस भारत आए।
दूबे जी उन दिनों को याद करके बताते हैं कि उन दिनों लोगों को सबकी फिक्र हुआ करती थी। लेकिन आज के लोग अपने संस्कार भूल चुके हैं। आज किसी को किसी की फिक्र नहीं। तब परिवार का मतलब हुआ करता था मम्मी-पापा, बहू-बेटे, पोते और पोतियां। तब बच्चों को मामा, बुआ, मौसिया, चाचा वगैरह सब रिश्ते मिला करते थे और बच्चे रिश्तों की अहमियत समझते थे। लेकिन सरकार द्वारा हम दो हमारे दो का नारा दिए जाने के बाद और नसबन्दी लागू किए जाने के बाद, और कुछ महंगाई भी बढ़ जाने के कारण अब तो परिवारों में लोग ही नहीं दिखते। आज तो परिवार से मां-बाप भी अलग होते जा रहे हैं। परिवार का मतलब रह गया है केवल पति-पत्नि और बच्चे। दादा-दादी तो गायब ही हो चुके हैं परिवारों से। और तो और जिस तरह से लोग आजकल दो बच्चे पैदा करने से भी कतराने लगे हैं, वो दिन दूर नहीं जब मामा, मौसी, चाचा, ताऊ जैसे रिश्ते बचेंगे ही नहीं, रहेगा तो केवल आंटी-अंकल का रिश्ता। हमारी हिन्दू शादियों में हर रिश्तेदार के लिए रस्में हैं, मामा भात लाता है, तो जीजा सेहरा बांधता है, भाभी कंगना खिलाती है तो ताऊ-चाचा बहू की विदाई कराके लाते हैं...लेकिन अब जब घरों में यह रिश्ते ही नहीं रहे हैं, तो शादियों की रस्में भी बोझ और बेकार लगने लगी हैं। आज लोग अपनों से ज्यादा गैरों को पूछने लगे हैं।
टीके पन्त (82 वर्ष)
दूबे जी उन दिनों को याद करके बताते हैं कि उन दिनों लोगों को सबकी फिक्र हुआ करती थी। लेकिन आज के लोग अपने संस्कार भूल चुके हैं। आज किसी को किसी की फिक्र नहीं। तब परिवार का मतलब हुआ करता था मम्मी-पापा, बहू-बेटे, पोते और पोतियां। तब बच्चों को मामा, बुआ, मौसिया, चाचा वगैरह सब रिश्ते मिला करते थे और बच्चे रिश्तों की अहमियत समझते थे। लेकिन सरकार द्वारा हम दो हमारे दो का नारा दिए जाने के बाद और नसबन्दी लागू किए जाने के बाद, और कुछ महंगाई भी बढ़ जाने के कारण अब तो परिवारों में लोग ही नहीं दिखते। आज तो परिवार से मां-बाप भी अलग होते जा रहे हैं। परिवार का मतलब रह गया है केवल पति-पत्नि और बच्चे। दादा-दादी तो गायब ही हो चुके हैं परिवारों से। और तो और जिस तरह से लोग आजकल दो बच्चे पैदा करने से भी कतराने लगे हैं, वो दिन दूर नहीं जब मामा, मौसी, चाचा, ताऊ जैसे रिश्ते बचेंगे ही नहीं, रहेगा तो केवल आंटी-अंकल का रिश्ता। हमारी हिन्दू शादियों में हर रिश्तेदार के लिए रस्में हैं, मामा भात लाता है, तो जीजा सेहरा बांधता है, भाभी कंगना खिलाती है तो ताऊ-चाचा बहू की विदाई कराके लाते हैं...लेकिन अब जब घरों में यह रिश्ते ही नहीं रहे हैं, तो शादियों की रस्में भी बोझ और बेकार लगने लगी हैं। आज लोग अपनों से ज्यादा गैरों को पूछने लगे हैं।
तब भारत में दूध-दही की नदियां बहती थी
टीके पन्त (82 वर्ष)
उत्तरांचल के निवासी टीके पन्त रेलवे के सुपरिनटेन्डेन्ट के पद से रिटायर होने के बाद बेटे बहू के साथ ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। पन्त जी बताते हैं कि गांव में रहने के दिन, सुनहरे दिन हुआ करते थे। तब दूध-दही की कोई कमी नहीं थी। उन दिनों गरीब से गरीब घरों में भी बच्चे दोनों टाइम दूध पीया करते थे। समय वो था कि अगर किसी के घर में दूध नहीं है तो वो पड़ौस के घर से दूध मांग लाता था और पड़ौसी आराम से लोटा भर दूध यूंही दे भी दिया करते थे। तब सभी घरों में गाएं होती थी। पन्त जी बताते हैं कि हमने खूब मलाई खाई है। आज के लोग तो मलाई के नाम से मुंह सिकोड़ते हैं कि मोटे हो जाएंगे लेकिन तब हर कोई, छोटा या बड़ा मलाई खाता था और उन दिनों कोई मोटा भी नहीं हुआ करता था क्योंकि काम ही इतने थे करने को। पन्त जी उन पोखरों, उन तालाबों को बड़ा याद करते हैं जो गांवों में हुआ करते थे और जिनको देखकर दूर से कपड़े उतारकर वो और उनके दोस्त उसमें कूदने भाग कर आया करते थे और घंटों सभी नहाया करते थे। पर आज आलम यह है कि पोखरें गायब हो गईं हैं। तालाब तो छोड़ दो नदियां तक नहाने लायक नहीं बची हैं और कहीं एक आध है भी तो वहां या तो किसी फैक्ट्री का कचरा गिरता है या नालियां खुलती हैं या फिर वो बुरी तरह से प्रदूषित हो चुकी हैं। तब सरकारी स्कूल हुआ करते थे और उनका स्तर बहुत अच्छा होता था। तब गांव-गांव वैद्य हुआ करते थे और लोगों को उनका इलाज खूब फलता भी था। तब ना तो पहले सी बीमारियां थी ना इतनी दवाएं। तब लोगों में लिहाज था। आज लोगों में लिहाज खत्म हो गया है। पन्त जी इस बदलाव का मुख्य कारण बाज़ारीकरण और टीवी को मानते हैं। उनके अनुसार आज हर चीज़ पैसे में तोली जाती है। आज शिक्षा बदल गई है, स्वास्थ्य बदल गया है और लोगों का चरित्र बदल गया है। आज का भारत वो भारत नहीं रहा जब लोगों में शरम थी और दिलों में प्यार था। लोगों के पास टीवी नहीं थे तो लोग गर्मियों की शामों और सर्दी की दोपहरों में बाहर एक दूसरे के साथ बैठकर सुख-दुख बांटा करते थे। सब एक दूसरे से हुए थे। कोई अकेला नहीं था। पर आजकल तो अकेलेपन की ही बीमारियां हो गई हैं। औद्योगीकरण को कोसते हुए पन्त जी कहते हैं कि इस औद्योगीकरण ने हमारे देश की दिशा बदल दी। यह कृषि को खा गया, देश की ताज़ी और मुक्त आवोहवा को खा गया और देशवासियों को खा गया।
ओमप्रकाश दत्ता (85 साल)
“हम हिन्दुओं को मुसलमानों से एक मुसलमान ने ही बचाया, और वो भी एक बदमाश मुसलमान ने”
आज़ादी से पहले रावलपिंडी जिले के एक गांव में रहने वाले ओमप्रकाश दत्ता भारत विभाजन के समय केवल 18 साल के नौजवान थे। उस समय को याद करते हुए बताते हैं कि “पहले हमारे गांव में सब एक साथ रहा करते थे। लेकिन 1947 में जब विभाजन की शुरुआत हुई तो सब जगह तनाव का माहौल हो गया। लोग एक दूसरे की जान लेने पर उतारू हो गए। यह उन दिनों की बात है जब भारत की तरफ से खूनआलूदा रेलगाड़ियां आया करती थी जिनमें केवल लाशें होती थीं। यहां से भी मुसलमान खासतौर से सिखों को यूं ही मार-काट करके गाड़ियों में भरकर भेज दिया करते थे। दत्ता जी बताते हैं कि जब विभाजन का शोर मचा तो सब अपना जमा जमाया घर, सामान सब छोड़कर बस जान बचाकर भागने में लगे थे। जिस ज़मीन पर बरसों रहे, जनम हुआ, बाप-दादा का नाल गढ़ा था, वो अचानक से पराई हो गई। तब हमारे गांव में मुस्लिमों की टोलियां हाथों में तलवारें लेकर घुसी चली आईं थी। सारे लोग नारा लगा रहे थे.. नारा-ए तकबीर.. नारा-ए तकबीर.. अल्लाह हू अकबर.. और बस मुसलमान जो रास्ते में मिलता उसे मारते काटते चले आ रहे थे। लोगों के घर जला दिए गए, उस वक्त सब के सर पर खून सवार था। हमारे गांव में जो सिख थे वो गुरुद्वारे में जाकर बन्द हो गए और सारे हिन्दु ठाकुरद्वारे चले गए। और जब इतनी सारी संख्या में मुसलमान तलवारे लेकर आते दिखाई दिए तो सिखों ने अपनी तलवारें निकालकर खुद ही अपने बच्चों, पत्नियों और मां-बहनों को मार डाला कि उन्हें मुसलमानों के हाथों ना मरना पड़े। उस समय गुरुद्वारे से खून के फव्वारे बह रहे थे”।
“हम हिन्दुओं को तो एक मुसलमान ने ही बचाया और वो भी 17-18 साल के एक बदमाश मुसलमान ने जिससे कोई बात करना पसन्द नहीं करता था। मुस्लिम आगे बढ़े आ रहे थे और हम 20-25 हिन्दू अपने परिवारों के साथ ठाकुरद्वारे में छिपे बैठे थे। इत्तेफाक से वो मुसलमान उस गांव से गुज़र रहा था। हमारे हिन्दू परिवारों में से एक का मुखिया उसे जानता था। जब उसने उस मुसलमान से मदद की गुहार लगाई तो वो अकेला तलवार लिए मुसलमानों के जत्थे के आगे खड़ा हो गया और उनसे बोला कि यह सब मेरे साथ हैं। उसकी आवाज़ में इतनी ताकत थी कि एक बार में मुसलमानों की भीड़ ने रास्ता छोड़ दिया, दोनों तरफ तलवारें लिए मुसलमान खड़े थे और वो अकेला लड़ता हम 40 -50 लोगों को बिल्कुल सुरक्षित निकाल कर अपने गांव ले गया। उसका गांव बदमाशों का गांव था जहां सारे चोरी-चकारी करने वाले और उठाईगीरे रहा करते थे। उसने हमें दो कमरे दे दिये कि एक में महिलाएं रहेंगी और एक में पुरुष। हमें एक चक्की दे दी और गेंहूं दे दिया कि आप हमारे हाथ का नहीं खाते इसलिए यह चक्की रखी है और यह गेंहूं। खुद आटा पीसो और बनाकर खाओ। दो दिन तक हम वहां रहे उसके बाद भारतीय आर्मी वहां आईं और हमें शरणार्थी शिविरों में ले गई”। दत्ता जी कहते हैं कि मैं आज भी मुसलमानों से नफरत नहीं कर सकता, क्योंकि मैं वो मंज़र आजतक नहीं भूला हूं जब मुझे ही नहीं, मेरे समेत बहुत से हिन्दू परिवारों को एक मुसलमान ने ही बचाया था और वो भी एक ऐसे मुसलमान ने जिसे सब बदमाश कहा करते थे...।
मदन किशोर (76 साल)
“हम हिन्दुओं को तो एक मुसलमान ने ही बचाया और वो भी 17-18 साल के एक बदमाश मुसलमान ने जिससे कोई बात करना पसन्द नहीं करता था। मुस्लिम आगे बढ़े आ रहे थे और हम 20-25 हिन्दू अपने परिवारों के साथ ठाकुरद्वारे में छिपे बैठे थे। इत्तेफाक से वो मुसलमान उस गांव से गुज़र रहा था। हमारे हिन्दू परिवारों में से एक का मुखिया उसे जानता था। जब उसने उस मुसलमान से मदद की गुहार लगाई तो वो अकेला तलवार लिए मुसलमानों के जत्थे के आगे खड़ा हो गया और उनसे बोला कि यह सब मेरे साथ हैं। उसकी आवाज़ में इतनी ताकत थी कि एक बार में मुसलमानों की भीड़ ने रास्ता छोड़ दिया, दोनों तरफ तलवारें लिए मुसलमान खड़े थे और वो अकेला लड़ता हम 40 -50 लोगों को बिल्कुल सुरक्षित निकाल कर अपने गांव ले गया। उसका गांव बदमाशों का गांव था जहां सारे चोरी-चकारी करने वाले और उठाईगीरे रहा करते थे। उसने हमें दो कमरे दे दिये कि एक में महिलाएं रहेंगी और एक में पुरुष। हमें एक चक्की दे दी और गेंहूं दे दिया कि आप हमारे हाथ का नहीं खाते इसलिए यह चक्की रखी है और यह गेंहूं। खुद आटा पीसो और बनाकर खाओ। दो दिन तक हम वहां रहे उसके बाद भारतीय आर्मी वहां आईं और हमें शरणार्थी शिविरों में ले गई”। दत्ता जी कहते हैं कि मैं आज भी मुसलमानों से नफरत नहीं कर सकता, क्योंकि मैं वो मंज़र आजतक नहीं भूला हूं जब मुझे ही नहीं, मेरे समेत बहुत से हिन्दू परिवारों को एक मुसलमान ने ही बचाया था और वो भी एक ऐसे मुसलमान ने जिसे सब बदमाश कहा करते थे...।
देश के विभाजन ने सबकुछ बदल दिया
मदन किशोर (76 साल)
मदन किशोर जी भी लाहौर पाकिस्तान के फिरोजपुर जिले के मोगामण्डी के रहने वाले हैं। 1952 में वो हिन्दुस्तान आए। मदन किशोर जी बताते हैं कि देश के विभाजन ने लोगों के दिलों से प्यार गायब करके ऐसी नफरत की दीवारें पैदा की जो कभी नहीं टूटी। भारत और पाकिस्तान का विभाजन क्या हुआ, लोगों के दिलों का विभाजन हो गया, विश्वास खंडित हो गया। ऐसी हवा चली कि अपने ही अपनों के दुश्मन बन गए। वो पड़ौसी जिनसे बिना जाति और भेदभाव के सालों से सुख दुख बांटा था, जो सुबह-शाम का खाना और मिलना-मिलाना साथ करते थे, अब उनका नाम नहीं उनकी जाति याद रहने लगी। मदन किशोर जी कहते हैं कि आजादी के बाद बहुत कुछ बदल गया। भारत पहले जैसा भारत रहा ही नहीं और अब तो इतना खुलापन आ गया है कि लोगों के दिलों में एक दूसरे के लिए इज्जत नहीं बची है। हर इंसान सिर्फ अपने बारे में सोचने लगा है। उन दिनों घर बड़े हुआ करते थे, दालान और छतें हुआ करती थी, अन्न से भंडारघर भरा रहता था। अब घर छोटे हो गए, भंडारघरों में मुट्ठी भर सामान रहने लगा है तो लोगों के दिल भी छोटे हो गए। आजकल के दिल्ली जैसे शहरों के बच्चे तो यह ही नहीं जानते कि छत क्या होती है...।
एसएस चौहान (69 वर्ष)
आज किसी सब्जी में पहले सा स्वाद नहीं..
एसएस चौहान (69 वर्ष)
गढ़वाल के मूल निवासी चौहान साहब दिल्ली बिजली विभाग (डेसू) से सेवानिवृत्त हो चुके हैं और सालों से दिल्ली में रहते हैं। इस उमर में भी खासे मजबूत और खूब पैदल चलने वाले चौहान जी बताते हैं कि आज पहले जैसा खाना-पीना और पहनना नहीं बचा है। पहले लोग पक्का खाते थे, देसी घी के अलावा केवल सरसों का तेल होता था। खाना लगभग देसी घी में ही बनता था। लोग मज़बूत होते थे। आजकल के बच्चों को तो जंकफूड ने जकड़ लिया है। दिल यह देखकर बड़ा दुखता है कि चिप्स, अचार, पापड़ जैसी चीज़े जो हमारी मांए अपने पड़ौसी महिलाओं के साथ मिलकर यूहीं घर पर बना लिया करती थी और जो साल भर तक चला करते थे और जिनका स्वाद भी लाजवाब होता था, आज हम वो सब चीज़े दोगुने-तिगुने दामों पर विदेशी कम्पनियों से खरीदते हैं। आज किसी सब्जी को खा लो, सबका स्वाद एक सा होता है, और तब हर सब्जी में ऐसा बेहतरीन स्वाद आता था कि खाना खाकर आत्मा तृप्त हो जाती थी। तब खेती को पहले दर्जे का आय साधन, व्यापार को दूसरे दर्जे का और नौकरी को तीसरे दर्जे की चीज़ समझा जाता था, किसानों की बड़ी इज्जत थी, और आज खेती सबसे निचले दर्जे की चीज़ हो गई है। चौहान जी कहते हैं कि देश की इस हालत के पीछे मीडिया बहुत हद तक जिम्मेदार है। खुलेपन के चक्कर में पोते- दादा से और बेटी- मां से ऐसी बातें करती हैं जो पहले हमउम्र के लोग भी करने से कतराते थे। आज के लोगों में स्वीकार करने की नहीं बहिष्कार करने की भावना आ गई है। हर चीज़ का बाज़ारीकरण हो गया है।
बीएस रावत (80 साल)
एक्स सर्विसमेन की दास्तान
बीएस रावत (80 साल)
पौड़ी, गढ़वाल के निवासी रावत जी को सारे लोग एक्स सर्विसमेन कहकर बुलाते हैं। वो आर्मी में हवलदार थे। अपनी नौकरी के दौरान लेह में पोस्टिंग हुई जहां वो सात महीने तक रहे। वहां काफी समय तक बर्फ में खड़े रहने के कारण इसी दौरान उनके दोनों पैर गल गए और काटने पड़े। आज वो व्हील चेयर पर हैं। अपने बारे में बताते हुए रावत जी की आंखें भर आती हैं। देश के लिए अपने पैर गंवा दिए लेकिन मलाल बस इसी बात का है कि सरकार ने उन्हें कोई मान नहीं दिया। आज वो पेंशन पर अपनी ज़िदंगी बसर कर रहे हैं। जब मैंने उनके परिवार के बारे में रावत जी से पूछना चाहा तो उन्होंने सवाल नजरअंदाज कर दिया। भरी आंखों से केवल इतना कहा कि ज़िंदगी ठीक कट रही है। यार-दोस्त, पड़ौसी आज भी सर्विसमेन कहकर बुलाते हैं तो इज्जत का अहसास होता है, अच्छा लगता है वरना आज के ज़माने में किसी को कौन पूछता है...।
दो बातें मेरी भी सुनिए
मैंने पहले भी बुज़ुर्गों से बातें की हैं लेकिन इस बार का अनुभव बिल्कुल अलग था। सभी ने इतने खुले दिल से अपने अनुभव बांटे और मैंने महसूस किया कि वो सभी इस बात से बेहद खुश थे कि कोई उनकी बात सुनना चाहता है और दुनिया को बताना चाहता है। मैंने तो इनसे सिर्फ अपने अखबार के लिए एक स्टोरी करने के लिहाज़ से बात की थी, लेकिन इस अनुभव ने मुझे भी यह अहसास कराया कि आज के ज़माने में बोझ समझे जाने वाले अधिकतर बुजुर्ग शायद अपना मन मसोसकर जी रहे हैं, जब उनकी बातें सुनने और समझने वाला कोई नहीं है। घर के मुखिया से बदलकर घर का बोझ बन जाने या किसी काम का ना रह जाने तक का सफर और अहसास इनके लिए बहुत कष्टदायक होते है। अपनी दुनिया में मगन हम लोग अक्सर इनकी उपस्थिति को ही नज़रअंदाज़ कर देते हैं। इनसे कहना और इनकी सुनना नहीं चाहते। लेकिन अगर कभी मौका मिले तो आप भी अपने घर के बुज़ुर्गों के साथ बैठकर उनकी बातें ज़रूर सुनिए। भले ही आप उन पर अमल ना करना चाहें, लेकिन इनसे बात करने के बाद, इनकी आंखों में जो खुशी और अपने लिए प्यार आपको दिखेगा, यकीन मानिए उसे आप हमेशा सहेज कर रखना चाहेंगे।
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