जो मंज़िल चुनी, उस तक पहुंच कर ही दम लिया और रच कर रही इतिहास: पद्मश्री से सम्मानित भारतीय महिलाओँ की कहानी
यह भारत की वो महिलाएं हैं जिन्होंने हर
बंधन को तोड़कर, हर मुश्किल से लड़कर ना केवल अपने सपनों को साकार किया है बल्कि समाज
और देश के विकास में भी अपना योगदान दिया है। सरकार ने इस साल 141 पद्म पुरस्कार
दिए हैं और उन्हें पाने वालों में 34 महिलाएं हैं। चलिए इन
पद्म पुरस्कार विजेताओं में से कुछ से मिलते हैं-
1-
सफाई कर्मचारी से विधान सभा का सफर- भागीरथी देवी
·
“कौन कहता है आसमां में सूराख हो नहीं सकता, एक
पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो”
आसमां में सूराख करने का यह करिश्मा कर दिखाया
हैं इस साल पद्म पुरस्कार पाने वाली भागीरथी देवी ने जो रामनगर, पश्चिम चम्पारण से
बिहार विधान सभा की सदस्या हैं। भागीरथी देवी पश्चिम चम्पारण के नरकटियागंज के एक
महादलित परिवार से आती हैं। कभी यह नरकटियागंज के ब्लॉक विकास कार्यालय में मात्र
800 रूपए माह की तन्ख्वाह पर काम करने वाली सफाई कर्मचारी हुआ करती थीं। साइकिल पर
घूम कर काम करने वाली भागीरथी देवी ने
गांव की लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया है। महिलाओं के संगठन
बनाकर लोगों को घरेलू हिंसा और दलित हिंसा के बारे में जागरूक करने में भी इनकी
महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
2-
पेड़-
पौधों को जानने वाली तुलसी अम्मा
·
अब मिलिए कर्नाटक की तुलसी गौड़ा जी से। 72 साल
की तुलसी अम्मा मूलत: हलक्की आदिवासी हैं।
इनके पास चिकित्सकीय पौधों से जुड़े ज्ञान का भण्डार है। किसी भी तरह की औपचारिक
शिक्षा नहीं होने के बावजूद तुलसी अम्मा ने पर्यावरण को संरक्षित करने में अतुलनीय
योगदान दिया है। यह अब तक 30,000 से ज़्यादा पौधे रोप चुकी हैं और फॉरेस्ट
डिपार्टमेन्ट की नर्सरीज़ की देखभाल करती हैं।
3-
महाराष्ट्र
की ‘सीड मदर’
·
सफल होने के लिए बस दृढ़ इच्छा शक्ति चाहिए, इस
सोच को और प्रगाढ़ करती हैं- महाराष्ट्र की 56 वर्षीय आदिवासी महिला राहिबाई सोमा
पोपोरे। इन्होंने खुद से एग्रो बायो- डाइवर्सिटी के संरक्षण के बारे में सीखा है
और आज यह अपने इस काम के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने लगभग पचास
एकड़ की कृषि भूमि का संरक्षण किया है जहां ये 17 अलग अलग तरह की फसलें उगाती हैं।
इन्होंने खाली पड़ी ज़मीनों पर जल संरक्षण करने के अपने तरीके विकसित किए हैं।
पोपेरे, किसानों और छात्रों को सही बीज चुनने, मिट्टी को उपजाऊ रखने और कीड़ों से
फसल को बचाने की ट्रेनिंग देती हैं। लोगों की सहायता करने के लिए यह स्वसहायता
समूह भी चलाती हैं। इनकी इन्हीं खूबियों के चलते इन्हें ‘सीड मदर’ के नाम से जाना जाता है।
4-
केरल की
पारम्परिक कठपुतली कला की अन्तिम जीवित जानकार
·
81 साल की मूज़िक्कल पंकाजक्क्षी केरल की
पारम्परिक कठपुतली कला नोक्कूविद्या पावाक्कली की अकेली जानकार हैं। यह बेहद
मुश्किल कठपुतली कला है जिसे सीखने के लिए कड़ा प्रशिक्षण और बेहद मेहनत लगती है।
इस कला में कलाकार को कठपुतलियों को अपने अपर लिप पर बैलेंस करना होता है और उनकी
चालों को नियंत्रित करने के लिए धागों के साथ आंख की पुतलियों को भी लगातार चलाना
पड़ता है। यह अपने स्टायल और अलग तरीके से अंजाम दिए जाने के कारण एक दुर्लभ
विद्या मानी जाती है। पंकाजक्क्षी पांच दशकों से इसे कर रही हैं। फिलहाल वो इस
कठपुतसी विधा की एकमात्र जानकार हैं जो खत्म होने के कगार पर है। उन्हें इस विद्या
को जीवित रखने के लिए पद्म पुरस्कार से नवाज़ा गया है।
5-
हल्दी क्रांति की जनक ट्रिनिटी सय्यू
·
मेघालय की ट्रिनिटी सय्यू का नाम हल्दी की खेती
के साथ जुड़ चुका है। सय्यू अपने गांव की 800 से ज़्यादा महिलाओं को जैविक खेती के
ज़रिए शुद्धतम और उच्चतम किस्म की हल्दी की खेती करने का प्रशिक्षण दे चुकी हैं।
इनके स्वसहायता समूह की महिला किसान लाकाडोंग किस्म की हल्दी की खेती करती हैं जो
खाना बनाने में इस्तमाल होने के साथ ही एक एन्टी इन्फ्लेमेट्री, एन्टी डायबीटिक और
एन्टी कैन्सरस चिकित्सकीय गुणों वाली उपज भी है। सय्यू जैयन्तिया हिल आदिवासी
महिला हैं जहां मातृसत्तात्मक सत्ता चलती है। परिवार की सम्पत्ति महिलाओं को मिलती
है। अपनी मां से मिली पारिवारिक सम्पत्ति और कृषि के गुणों का सय्यू बेहद कौशल के
साथ संरक्षण कर रही हैं।
6-
सिर पर
मैला ढोने वाली ऊषा चोमर बनी महिला शक्ति की पहचान
·
जिजीविषा, इच्छाशक्ति, कड़ी मेहनत और हौसले का
जीता-जागता उदाहरण हैं, राजस्थान के अलवर जिले में रहने वाली ऊषा चोमर। मात्र 10
साल की उम्र में शादी होने के बाद जब वो अपने ससुराल पहुंची तो उन्हें सिर पर मैला
ढोने के काम में लगा दिया गया। समाज में हर कोई उन्हें तिरस्कृत नज़रों से देखता
था और उस काम से बचने का कोई रास्ता भी नहीं था। तब ऊषा की मुलाकात सुलभ इंटरनेशनल
के डॉ बिन्देश्वर पाठक से हुई, जिनसे प्रेरणा लेकर उन्होंने अपने जैसी मैला ढोने
वाली महिलाओं को एकत्र किया और जूट और पापड़ बनाने जैसे कामों की शुरूआत की।
धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता बढ़ी और ऊषा मैला ढोने के उस काम से बाहर निकल आईं। यह
उनकी कोशिशों का ही परिणाम है कि आज अलवर में कोई मैला ढोने वाली महिला नहीं रह गई
है। आज उनके बच्चे स्कूल और कॉलेज में पढ़ रहे हैं, समाज में उनका मान सम्मान है
और वो सुलभ इन्टरनेशनल की प्रेसिडेन्ट भी बन गई हैं।
7-
माइक्रोक्रेडिट
बैंकिंग सिस्टम की जनक -चिन्ना अम्मा
- चिन्ना पिल्लई मदुरै के पास के एक छोटे से गांव से हैं। लेकिन छोटी जगह इनकी बड़ी सोच और बड़ी सफलता में बाधा नहीं बन पाई। चिन्ना ने अपने गांव की गरीबी से जूझने के लिए और ग्रामीण महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए आसपास के गांवों की महिलाओं के साथ मिलकर खुद का एक माइक्रोक्रेडिट बैंकिंग सिस्टम शुरू किया जिसके ज़रिए ज़रूरतमन्दों को बेहद कम दर पर कर्ज़ दिया जाता है। उनकी इस छोटी से कोशिश ने बहुत सी महिलाओं को गरीबी से बाहर निकालकर आत्मनिर्भर बनने में भी मदद की। इन्हें 1999 में स्त्री शक्ति पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। उस समय के प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने चिन्ना अम्मा को पुरस्कार देते समय उनके पैर भी छुए थे। इन्हें इनके काम के लिए 1999 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था।
यह भारत की वो गौरवशाली नारियां हैं जिन्होंने हर बंधन, हर रोक, हर
परम्परा को तोड़कर अपने लिए रास्ता साफ किया है। जो फेमिनिज़्म की सही पहचान हैं,
जिन्हें ना तो पित्रसत्तात्मक सोच रोक पाई और ना ही इन पर थोपी गई वर्ण व्यवस्था।
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