Wednesday, 17 September 2025

मिस्टर एन्ड मिसेज 55: गुरुदत्त साहब की विविधता का नायाब नमूना


'तुम दो मिनट रुको मैं अभी शादी करके आती हूं'

'क्या बात है, आजकल आदमी से ज्यादा टेनिस की अहमियत हो गई है'

'तुम्हें खाने को रोटी नहीं मिलती तो बिस्किट क्यों नहीं खाते.. बिस्किट!'

"तो आप एक पैरासाइट हैं जो खुद नहीं कमाते लेकिन अपने दोस्त की कमाए पैसों से काम चलाते हैं,.., जी नहीं मैं वो इंसान हूं जो गुरबत में इधर-उधर हाथ फैलाने की बजाय अपने दोस्त से उधार लेना ज्यादा बेहतर समझता हूं"।

यह कुछ ऐसे डायलॉग्स हैं जो 1955 में आई गुरुदत्त- मधुबाला की क्लासिक कॉमेडी 'मिस्टर एंड मिसेज़ 55' देख चुकने के बहुत समय बाद भी आपके दिमाग में गूंजते रहेंगे और आपको गुदगुदाते रहेंगे। और यह तो केवल बानगी भर है, यह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म इतनी मज़ेदार और रोचक है कि इसे देखना शुरू करने के बाद आप रुक नहीं सकते, और ना ही पूरी फिल्म के दौरान कहीं भी ऐसा लगता है कि हम 60 साल पुरानी फिल्म देख रहे हैं।

आधुनिकता और परम्परा का संगम अनिता यानि मधुबाला, हाज़िरजवाब, टैलेंटेड लेकिन गुरबत का मारा कार्टूनिस्ट प्रीतम यानि गुरुदत्त, हिटलर आंटी सीता देवी यानी ललिता पवार, मज़ाकिया लेकिन सच्चा दोस्त जॉनी वॉकर और गाल में गढ्ढों और बड़ी बड़ी आंखों वाली जूली यानि यास्मीन..... ओ पी नय्यैर का मधुर संगीत, विटी डायलॉग्स और जबरदस्त स्टोरी.... यह फिल्म नहीं देखी तो क्या देखा।

आप भले ही गुरुदत्त की क्लासिक फिल्मों में प्यासा और कागज़ के फूल को शुमार करते हों, लेकिन मिस्टर एंड मिसेज 55 को देखकर पता चलता है कि गुरुदत्त केवल ट्रेजेडी के ही नहीं कॉमेडी के भी किंग थे। छोटे-छोटे डॉयलॉग्स में बड़ी बाते कह देना कोई गुरुदत्त से सीखे।

फिल्म की कहानी कुछ इस तरह है कि सीता देवी जो कि अनिता की आंटी है, महिलाओं की आज़ादी की पक्षधर हैं और वो शादी को महिलाओं की गुलामी का कारण मानती हैं, तलाक कानून की पक्षधर हैं और उनका मानना है कि महिला, मां बाप से मिली जायदाद के कारण या नौकरी वगैरह करके खुद खाने कमाने में सक्षम है तो उसे शादी के बधंन में बंधकर पति की गुलामी करने से गुरेज करना चाहिए और अगर किसी वजह से उसकी शादी हो गई है तो उसे तलाक लेकर इस गुलामी से आजाद हो जाना चाहिए। यही वजह है कि वो अपनी बिन मां-बाप की भतीजी अनिता की शादी भी नहीं करना चाहती। लेकिन अफसोस अनिता के पिता और सीता देवी के भाई अनिता को जायदाद देने की शर्त यह रखते हैं कि उसके 21 साल तक शादी हो जानी चाहिए। ना चाहते हुए भी केवल जायदाद हासिल करने के लिए सीता देवी को अनिता की कॉन्ट्रेक्चुअल शादी प्रीतम (गुरुदत्त) से करानी पड़ती है लेकिन साथ ही वो यह शर्त रख देती है कि प्रीतम अनिता से कभी नहीं मिलेगा और वो जब चाहेंगी प्रीतम को अनिता को तलाक देना पड़ेगा। बेचारा प्रीतम, अनिता को चाहते हुए भी उससे दूर रहने को मजबूर है... आगे कहानी क्या मोड़ लेती है इसके लिए अगर फिल्म ही देखी जाए तो बेहतर है।

Sunday, 31 July 2022

A Talk!!!


 Can I ever hope to accomplish something significant in life?

What motivates you to aim high?

-To be content. to have faith. to have people around me adore and admire me, and to make other people envious (chuckles)

Ok. Do you see any changes in yourself? Your past and present lives should be contrasted. How have you been and how were you?

-Obviously, things have changed. I once become so complicated that I was unable to communicate with others. I was tremendously concerned about everything that made me who I was. I wanted to mimic other people. The situation has altered, though. I have a lot of self-assurance. And I believe I can handle anything in life or anyone. I've stopped caring what other people think of me.

So what exactly is this change? Do you believe it just occurred?

-No. It took place gradually. I gained too much knowledge. I fell a lot, got back up a lot, and eventually made it to where I am now.

Are you now joyful?
 
-Of sure, I say. I lead a unique existence. I've achieved the goals I set for myself ten years ago. a self-assured and brave individual.

So this is not a major accomplishment? You are leading a unique life.

-Hmmm. Sure, it is. But nothing major has occurred.

Big connotes self-assurance, joy, and achievement. Your success is a result of who you are. Everyone succeeds to some extent in life. Just as we keep contrasting our success with some predetermined, externally-focused patterns, not everyone has the confidence to recognise it as an accomplishment. Success knows no bounds. Everyone has their own definition of success and they each achieve it in a different manner. As a natural human nature, yearning for something bigger is not always negative, but how can one minimise the accomplishments and landmarks previously attained? Don't make fun of oneself. You are far better than you give yourself credit for.


Once you see back,
You see the rough road,
Full of rocks, pebbles, stones and mud
that you crossed one by one..
patiently, courageously, steadily
That stumbling on sharp curves,
Those falls that wounded badly,
But, you stood up every-time,
Though the zeal was absent many a time, it was just a compulsion as there was no other way than walking ahead,
But you had the courage and
a hope,
that there will be peace at the end of the road.
you reached at every milestone.
after many milestones here comes another door
push it, open it to see the beauty and to enjoy the world still unexplored,
For you are an explorer who loves to explore
and who enjoys little surprises life holds...

Monday, 12 July 2021

फोक आर्ट और कोरोना वायरस से लड़ाई का दस्तावेजीकरण

 संस्कृति और कला, प्रतीकों और संकेतों से बनती है। सिम्बल्स और साइन्स वो हैं जो किसी कालखण्ड की उन महत्वपूर्ण घटनाओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों अथवा परम्पराओं को बयान करते हैं जिसके कारण वो कालखण्ड विशिष्ट बनता है या जिससे उसकी पहचान होती हैं।

-इन सिम्बल्स के ज़रिए कथाएं, रीति रिवाज, रस्मों के साथ साथ नैतिकता के पाठ भी दे दिए जाते हैं। सभी संकेतों और प्रतीकों से अर्थ जुड़े होते हैं जो जगह, स्थान या संस्कृति के अनुरूप अलग अलग हो सकते हैं।
-गीतों में प्रयुक्त शाब्दिक संकेत हों, नृत्य की भाव भंगिमाएं या चित्रकारी में बनाए गए प्रतीक-यह सभी केवल कलाएं नहीं हैं बल्कि इनमें जुड़े अर्थ के कारण जीवंत इतिहास के दस्तावेज भी हैं। लिखे हुए इतिहास को शायद झुठलाया जा सकता है लेकिन कलाओं के माध्यम से व्यक्त होने वाले प्रतीकात्मक इतिहास को नकारना नामुमकिन है।
-इन्ट्रस्टिंग फैक्ट यह भी है कि जिस तरह से डीएनए मनुष्य के बायोलॉजिकल लक्षणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लेकर जाता है उसी तरह से कला और संस्कृति- विश्वास, परम्पराओं, रिवाज़ों और इतिहास को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक लेकर जाती हैं। कम्यूनिकेशन में इनका बड़ा महत्व है। सेमियोटिक्स पूरी तरह से प्रतीकों और उनके अर्थ पर ही आधारित है।
-दुष्ट कोरोना वायरस से हमारी लड़ाई अब कला के प्रतीकों में उतर चुकी है। मिथिला पेन्टिंग हो, उड़ीसा का पटचित्र, बिहार की मधुबनी, राजस्थान की फड़ पेन्टिंग, मिनिएचर आर्ट या फिर मॉडर्न पेन्टिंग- इन सबमें कोरोना और इससे लड़ाई, उठाए गए कदम, जीत और हार का बहीखाता दर्ज हो रहा है। इतिहास बन रहा है।
-सौ-दो सौ सालों बाद ऐसी कोई बीमारी अगर फिर से आएगी, तो म्यूज़ियम में टंगा हुआ ऐसा ही कोई चित्र शायद उस समय के मानवों को, इस समय के मानवों की कोरोना से लड़ाई के बारे में बताएगा, प्रेरित करेगा, हिम्मत देगा। इतिहास यहीं तो करता है...
पटचित्र पर कोविड का संदेश





राजस्थानी फड़ पेन्टिंग


मिथिला पेन्टिंग



मधुबनी 


राजस्थान की मिनिएचर आर्ट


फोक आर्ट के जरिए ताली और थाली का दस्तावेजीकरण















Sunday, 9 August 2020

भुवाल रियासत के सन्यासी राजा की कहानी, जो मौत के 12 साल बाद फिर लौट आयाः भारत के इतिहास में जड़ा अद्भुत, अनोखा और रहस्यमयी सच

यह सच है, कि सच, कहानी से कहीं ज़्यादा अजीब होता है। ऐसा ही एक सच है भुवाल रियासत के राजकुमार रमेन्द्र कुमार रॉय चौधरी का, जो अपनी मौत के 12 साल बाद लौट आए। 37 साल तक अपनी पहचान पाने के लिए उन्होंने कानूनी केस लड़ा। भुवाल सन्यासी के इस मुकद्मे को भारत में ही नहीं बल्कि विश्व कानून के इतिहास के सबसे आश्चर्यजनक मुकद्मों में से एक माना जाता है। चलिए पढ़ते हैं  यह अजीब-अद्भुत, कहानी जैसा लगने वाला ऐतिहासिक सच।


यह इतिहास कभी पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी रियासत रही भुवाल रियासत से जुड़ा है जिसके अन्तर्गत 2000 गांव आते थे औऱ जिसकी जनसंख्या लगभग पांच लाख थी। देश के विभाजन के बाद यह रियासत पहले पाकिस्तान का हिस्सा बनी और बांग्लादेश बनने के बाद अब यह बांग्लादेश के गाज़ीपुर क्षेत्र में पड़ती है। हालांकि भुवाल रियासत का नाम बदल दिया गया है लेकिन जयदेबपुर स्टेशन अभी भी बांग्लादेश में मौजूद है जहां यह रियासत पड़ती थी। 

लौटते हैं कहानी पर। तो सन् 1700 से भुवाल रियासत हिन्दू ज़मीन्दारों के अधीन थी। 1901 में रियासत के आखिरी राजा राजेन्द्र नारायण रॉय चौधरी की मृत्यू के बाद इस परिवार में विधवा रानी विशालमणि देवी और उनके तीन बेटे और 3 बेटियां रह गए। पूरा परिवार जयदेबपुर राजबाड़ी यानि कि रॉयल पैलेस में रहता था। रियासत के तीन राजकुमारों में से मंझले राजकुमार रमेन्द्र कुमार की यह कहानी है। इन्हें सबसे काबिल और सबसे होशियार माना जाता था। कुमार रमेन्द्र को शिकार का बहुत शौक था। जानवरों से इन्हें बेहद प्यार था। कहते हैं कि रियासत की सम्पत्तियों में कई हाथी, घोड़े, जानवर और यहां तक कि एक चिड़ियाघर भी शामिल था जिनमें अन्य जानवरों समेत पालतू शेर भी थे। 

राजकुमार थे, पैसा था तो शराब पीने से लेकर, मौज मस्ती करने और नर्तकियों पर पैसा लुटाने तक के सभी राजगुण भी इन राजकुमारों में थे। 

1905 में राजकुमार रमेन्द्र का विवाह 13 साल की विभावती देवी से हुआ जो एक पढ़ी लिखी किशोरी थी। उनका भाई सत्येनद्रनाथ बैनर्जी भी बीए पास था। वह भी वहीं जयदेब राजबाड़ी में रहने लगा। वो शिकार और अन्य जगहों पर भी कुमार रमेन्द्र के साथ जाया करता था। 

इसी दौरान अपनी गलत आदतों के चलते रमेन्द्र को सिफलिस रोग हो गया। हालांकि इलाज चल रहा था लेकिन लगातार बीमारी के और बढ़ने के कारण 1909 में रमेन्द्र अपनी पत्नि, सत्येनद्रनाथ, राजपरिवार के डॉक्टर आशुतोष और नौकर-चाकरों के बड़े लाव लश्कर के साथ दार्जिलिंग आ गए। मकसद मरीज की आबोहवा बदलना था। लेकिन हुआ उल्टा। यहां आकर तीन हफ्तों में ही रमेन्द्र की हालत बेहद बिगड़ गई। उन्हें खूनी दस्त, उल्टी, शरीर में कंपकंपी जैसे रोग हो गए। और 7 मई 1909 को शाम साढ़े सात बजे के लगभग डॉ आशुतोष ने उन्हें क्लीनिकली मृत घोषित कर दिया। उस समय उनकी आयु 25 वर्ष थी। 

अगले दिन 8 मई को पास ही नदी किनारे उनका दाह संस्कार कर दिया गया। इस दाह संस्कार में उनकी पत्नी विभावती के अलावा रमेन्द्र के परिवार का कोई सदस्य मौजूद नहीं था। 

अगले दस सालों में रमेन्द्र के बाकी दोनों भाईयों की भी मृत्यू हो गई और ब्रिटिश सरकार के नियमों के हिसाब से कोई उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण भुवाल रियासत को ब्रिटिश सरकार के अधीन कर लिया गया। राजपरिवार को हर महीने एक फिक्स्ड राशि गुजाराभत्ता के तौर पर दी जाने लगी। 

मौत के 12 साल बाद लौट आए रमेन्द्र 

लेकिन 12 साल बाद यानि सन् 1921 में भुवाल रियासत में एक नागा सन्यासी आया और उसने राजबाड़ी के बाहर अपनी धूनी रमा ली। उसकी शक्ल राजा रमेनद्र से बिल्कुल मिलती थी। लोग उन्हें भुवाल सन्यासी कहने लगे। कुछ ही दिनों में राजकुमारा रमेन्द्र जैसे दिखने वाले साधू की चर्चा दूर दूर तक होने लगी। बातें सुनकर रमेन्द्र की छोटी बहन ज्योतिर्मयी भी उनसे मिलने आईं। ज्योतिर्मयी सन्यासी से मिलकर हैरान थी। उनके हिसाब से वो उनका भाई राजकुमार रमेन्द्र था। वहीं राजकुमार रमेन्द्र जिसकी 12 साल पहले मृत्यू हो चुकी थी। हांलाकि सन्यासी खुद को रमेन्द्र मानने को तैयार नहीं था। सन्यासी को जयदेब राजबाड़ी ले जाया गया। दो हफ्तों तक वहां रहने के बाद और काफी याद दिलाने और मान मनोव्वल करने के बाद सन्यासी ने मान लिया कि वहीं राजकुमार रमेन्द्र है। हालांकि उसकी राजपरिवार में लौटने और रियासत की सम्पत्ति में कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन ज्योतिर्मयी ने किसी तरह उसे मना लिया। 

यहां से शुरू हुई भारत के इतिहास की सबसे हैरान करने वाली कानूनी लड़ाई। पहले कोर्ट ऑफ वॉर्ड्स, फिर हाई कोर्ट और फिर लंडन की प्रिवी काउन्सिल में 37 साल तक भुवाल सन्यासी को राजकुमार रमेन्द्र साबित करने की लम्बी कानूनी लड़ाई चली और आखिरकार 30 जुलाई 1946 को बहुत सारे फॉरेन्सिक सबूतों और सैकड़ों गवाहों की गवाही के आधार पर साबित हुआ कि यह सन्यासी वास्तव में राजकुमार रमेन्द्र ही थे। आखिरी फैसला आने की खुशी में इसी शाम जब राजकुमार परिवार के साथ पूजा करने जा रहे थे, तभी उनको अचानक दिल का दौरा पड़ा और ठीक दो दिन बाद उनकी मृत्यू हो गई। 

अब बात करते हैं, उन घटनाओं, सबूतों और गवाहों की जिनसे मिले तथ्यों के आधार पर राजकुमार रमेन्द्र के दाह संस्कार और लौट के आने के बीच की सारी कहानी सामने आई और साथ ही यह साबित हुआ कि भुवाल सन्यासी ही राजकुमार थे। इस कहानी के कुछ प्रमुख किरदार और महत्वपूर्ण घटनाएं थी। इन्हीं की जरिए इस पूरे मामले की सच्चाई को समझते हैं- 


1- सत्येन्द्रनाथ बैनर्जी 

-विभावती का भाई सत्येन्द्रनाथ बैनर्जी शुरू से रमेन्द्र को नापसन्द करता था। इसकी वजह थी, रमेन्द्र का विभावती के प्रति उदासीन व्यावहार। वो अक्सर विभावती को भी रमेन्द्र के खिलाफ भड़काया करता था। 

-सत्येन्द्रनाथ ने रमेन्द्र को उसका जीवन बीमा करवाने के लिए मना लिया था और वो इसके लिए रमेन्द्र को कलकत्ता भी लेकर गया था। बीमा करने वाले ब्रिटिश डॉक्टर ने उनकी शारीरिक जांच की थी। इसी जांच रिपोर्ट ने बाद में भुवाल सन्यासी की फॉरेन्सिक जांच और उन्हें राजकुमार रमेन्द्र साबित करने में अहम् भूमिका निभाई। 

-सत्येन्द्रनाथ ने राजपरिवार के डॉक्टर आशुतोष को अपने साथ मिला लिया था। दोनोंं साजिश के तहत सिफलिस के इलाज के बहाने रमेन्द्र को दार्जीलिंग ले गए थे। यहां आशुतोष ने धीरे-धीरे रमेन्द्र को आर्सेनिक ज़हर देना शुरू किया। नतीजतन रमेन्द्र की हालत और बिगड़ने लगी। आखिरी समय में रमेन्द्र, आशुतोष और सत्येन्द्र का असली चेहरा पहचान गए थे, लेकिन वो कुछ भी करने की हालत में नहीं थे। 

-जब आशुतोष ने उन्हें मृत घोषित किया तब वास्तव में वो बेहोश हुए थे। रात के समय ही उनको दाह संस्कार के लिए ले जाया गया। लेकिन अचानक से तेज़ तूफान और बारिश आ जाने के कारण लोग रमेन्द्र का शरीर वहीं छोड़कर भाग गए। बारिश रुकने के बाद जब सब लोग वापस आए तब रमेन्द्र का शरीर गायब था। 

- गवाही में यह तथ्य सामने आया कि शव गायब होने से घबराए हुए सत्येन्द्रनाथ और डॉ आशुतोष ने विक्टोरिया  हॉस्पिटल से एक और शव का इंतज़ाम किया था और अगले दिन उस शव का राजकुमार रमेन्द्र बताकर दाह संस्कार कर दिया गया। 

हालांकि यह सब साबित नहीं हुआ। 


2- नागा साधू

 -7 मई 1909 की रात को कुछ नागा साधू जब दार्जिलिंग में नदी किनारे वाले शमशान घाट के पास से गुज़र रहे थे तभी आंधी तूफान के बीच उन्हें एक चिता पर रखा शव हिलता दिखाई दिया। पास जाने पर पता चला कि वो व्यक्ति ज़िन्दा था लेकिन उसकी हालत बेहद खराब थी। नागा साधू उसे अपने साथ ले गए। आयुर्वेदिक दवाईयों से उसका इलाज किया और कुछ समय में वो बिल्कुल ठीक हो गया। लेकिन वो अपनी याददाश्त खो चुका था। 

-नागा साधुओं ने उसे सुन्दरदास नाम दिया। 11 साल तक सुन्दरदास नागाओं के साथ पूरे देश में तीर्थ स्थानों पर घूमता रहा। ग्यारहवें साल में उसकी याददाश्त वापस आई। तब नागा गुरू धरमदास ने उसे वापस जाने के कहा। इसके बाद ही सुन्दरदास ढाका स्थित भुवाल रियासत वापस आया जहां सब लोगों ने उसे पहचाना। 


3- कोर्ट में सामने आए तथ्य

-राजकुमार रमेन्द्र धाराप्रवाह बंगाली बोला करते थे। लेकिन 12 साल बाद वापस लौटा भुवाल सन्यासी बंगाली बिल्कुल भूल चुका था। वो उर्दू मिश्रित हिन्दी में बात करते थे। 

-भुवाल राजा को सबने पहचाना लेकिन उनकी पत्नी विभावती ने उन्हें राजकुमार रमेन्द्र मानने से साफ इन्कार कर दिया। बल्कि सत्येन्द्र और विभावती ने बार-बार भुवाल सन्यासी के खिलाफ अपील की। 

-कोर्ट की कार्यवाही के दौरान यह भी सामने आया कि रमेन्द्र की मां विशालमणि देवी को मृत्यू में भी सत्येन्द्र और आशुतोष का हाथ था और उन्हें भी ज़हर देकर मारा गया था, हांलाकि यह भी कभी साबित नहीं हुआ। 

-अकाट्य फॉरेन्सिक सबूतों के आधार पर बिना शक राजकुमार रमेन्द्र और भुवाल सन्यासी एक ही शख्स साबित हुए लेकिन फिर भी यह रमेन्द्र द्वारा बंगाली भूल जाने के कारण, उनमें सिफलिस रोग के कोई लक्षण नहीं मिलने के कारण और कुछ अन्य ऐसे ही कारणों से यह शक हमेशा बना रहा कि वो राजकुमार रमेन्द्र का हमशक्ल कोई बहरूपिया था जिसे कि राजपरिवार केवल इसलिए लेकर आया था कि ब्रिटिश सरकार से रियासत को वापस हासिल किया जा सके। अन्तिम फैसला आने के दो दिन बाद ही रमेन्द्र की मौत हो जाने से यह शक और पुख्ता हुआ। 

बहरहाल, अद्भुत,अनोखे और रोमांचक तथ्यों से भरी इस सत्यकथा पर कई फिल्में और उपन्यास लिखे जा चुके हैं जिनमें से सबसे विश्वसनीय पार्था चटर्जी द्वारा लिखित - 'ए प्रिन्सली इम्पोस्टर: द कुमार ऑफ भुवाल एन्ड सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ इन्डियन नेशनलिज़्म' मानी जाती है। 




 


Tuesday, 24 March 2020

इनकी ज़िन्दगी का एक ही मकसद है स्वदेशी किस्मों और बीज़ों को बचाना और किसानों को जैविक खेती की तरफ लौटाना- मिलिए भारत की बीजमाता से




बीयाने बैंक, कोंभाकणे.., लाल स्याही से लिखी इस इबारत वाले काठ के दरवाज़े को ठेलते हुए जब आप अन्दर पहुंचते हैं तो कहीं कच्ची मिट्टी के घड़ों में रखी धान की किस्में दिखती हैं, कहीं टांड से लटकी हुए मटर और तोरी की स्थानीय फसलें तो कहीं लकड़ी की अल्मारियों में करीने से सजे कांच के जारों में रखे दालों, सब्ज़ियों, दलहनों, तिलहन और सेम के बीज। जी हां, आप देश के पहले स्वदेशी किस्मों की फसलों के बीज बैंक में हैं।
इस बैंक में 53 तरह की फसलों की 114 स्वदेशी किस्मों के बीजों को पारम्परिक आदिवासी तरीकों से संग्रहित किया गया है। देश के अपनी तरह के इस पहले बैंक के पीछे जो व्यक्तित्व है वो हैं श्रीमती राहिबाई सोमा पोपेरे।

सादी महाराष्ट्रियन साड़ी में दिखने वाली इस महिला किसान ने अपनी मेहनत और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर जैव विविधता को कायम रखने, स्वदेशी किस्मों को बचाने और स्थानीय लोगों की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने की दिशा में अभूतपूर्व काम किया है। यहां के लोग इन्हें बीजमाता कहकर पुकारते हैं। इन्हें वर्ष 2020 के प्रतिष्ठित पद्मश्री सम्मान से भी नवाज़ा गया है।  





54 वर्षीय राहिबाई पोपेरे, अहमदनगर, महाराष्ट्र के गांव कोंभाकणे की निवासी हैं। यह स्थानीय महादेव कोली आदिवासी संप्रदाय से हैं। 17 साल की उम्र में शादी होने के बाद राहिबाई जब यहां आईं तो उनके ससुराल की सात एकड़ भूमि में से केवल 3 एकड़ पर मानसून आधारित कृषि होती थी। बाकी समय परिवार के सदस्य एक चीनी मिल में मजदूरी किया करते थे। राहिबाई ने पारम्परिक तरीके से खेती करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने खेत में ही जलकुण्ड बनाए और यहां सब्ज़िया उगानी शुरू की। इसी दौरान उन्होंने देखा कि लगातार संकरित बीज़ों और रासायनिक खाद की खेती करने के कारण गांव के बच्चों में बीमारियां और कुपोषण के मामले बढ़ रहे हैं। स्थानीय किसान लगातार स्वदेशी किस्मों को छोड़कर संकरित बीजों से खेती कर रहे थे और इसकी वजह से धीरे धीरे स्थानीय किस्में खत्म हो रहीं थी।



बस यहीं से राहिबाई के जीवन को मकसद मिला। उन्होंने बड़े जतन से स्वदेशी बीजों और फसलों को संग्रहित करना शुरू किया और साथ ही जैविक खेती के लिए भी लोगों को प्रेरित करने लगीं। उन्होंने लोगों को रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड्स के खतरे के बारे में भी आगाह करना शुरू किया। शुरूआत मुश्किल थी, लोग उनकी कोशिशों का मज़ाक भी उड़ाते थे, लेकिन जैसे जैसे उन्होंने खुद जैविक खेती के ज़रिए स्वदेशी बीजों से अच्छी उपज लेनी शुरु की, उनकी मेहनत का फल मिलने लगा, आस-पास के लोग भी उनकी मुहिम से जुड़ने लगे। आज आधे से ज़्यादा स्थानीय किसान उनकी जैसी खेती कर रहे हैं।

पोपेरे बताती हैं कि पहले किसान बैंक से उधार लेकर संकरित बीज खरीदते थे। रासायनिक खाद और पेस्टिसाइड्स भी लेने पड़ते थे। लेकिन हम उन्हें अपने बैंक से इस शर्त पर बीज देते हैं कि उपज के बाद वो दोगुने बीज वापस करेंगे। स्वदेशी बीजों का इस्तमाल करने से रासायनिक खाद की भी ज़रूरत नहीं पड़ती और किसानों की सालाना लगभग 5000 रुपए की बचत होती है।



फसलों की स्थानीय किस्मों को खोजना, उनका रोपण करना, उनके बीजों को इकट्ठा करना, दूसरों को उन्हें बोने के लिए प्रेरित करना और उनके माध्यम से बीजों को फिर से इकट्ठा करना अब उनका जुनून बन गया है। किसान उनके बैंक में स्वदेशी किस्मों के बीजों को लेने और खेती की पारम्परिक तकनीकों को 
समझने के लिए अक्सर आते हैं। 
उनकी देखादेखी आसपास के गांवों के लोगों ने भी इस तरह को सीड बैन्क्स शुरू किए हैं। कई संस्थाएं भी उनकी सहायता के लिए आगे आई हैं। राहिबाई किसानों और छात्रों को बीच चुनने, मिट्टी की उपज बढ़ाने के तरीके और पेस्ट मैनेजमेन्ट के तरीकों के बारे में प्रशिक्षित भी करती हैं। 

अशिक्षित होने के बावजूद अपनी लगन और मेहनत के चलते राहिबाई ने एग्रोबायोडाइवर्सिटी, जंगली खाद्य स्त्रोतों और पारम्परिक कृषि के तरीकों के बारे में सीखा हैं। उन्होंने लगभग 50 एकड़ की भूमि को संरक्षित करके उसमें 17 तरह की विभिन्न फसलों को उगाने में सफलता पाई है। साथ ही घर के पिछवाड़े एक किचिन गार्डन भी स्थापित किया है। जिसमें 32 अलग- अलग फसलों की 122 किस्में हैं। पोपेरे अब तक अहमदनगर के 3500 किसानों को फसलों की विविधता और जंगली खाद्य स्त्रोतों को संरक्षित रखने इसका प्रशिक्षण दे चुकी हैं। आदिवासी परिवारों की खाद्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए राहिबाई 25,000 घरों में किचिन गार्डन बनाने की योजना पर काम कर रही हैं।

हर इंसान खुद ही अपनी ज़िन्दगी का निर्धारक हैमें विश्वास करने वाली पोपेरे का नाम बीबीसी की 2018 की टॉप 100 महिलाओं में शामिल हैं साथ ही उन्हें 2019 के नारी शक्ति सम्मान से भी सम्मानित किया गया है।                                                       



मिस्टर एन्ड मिसेज 55: गुरुदत्त साहब की विविधता का नायाब नमूना

'तुम दो मिनट रुको मैं अभी शादी करके आती हूं' 'क्या बात है, आजकल आदमी से ज्यादा टेनिस की अहमियत हो गई है' 'तुम्हें ख...