एक देसी दशहरा मेले की सैर...
कितना वक्त हो गया आपको किसी मेले में गए हुए...? ..यहां मैं लायन्स क्लब या आरडब्ल्यूए, या मंदिर समिति या किसी समाजसेवी संस्था द्वारा आयोजित मेले में जाने की बात नहीं कर रही हूं जिनकी दिल्ली जैसे महानगरों में त्यौहार आते ही बाढ़ आ जाती है और जहां ब्रांडेड खाना, ब्रांडेड खिलौने, महंगे झूलों, स्टेज पर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों और सज संवर कर आए लोगों का हुजूम होता है....। यहां बात उन मेलों की हो रही है जिन्हें दिखाने के लिए बचपन में हम अपनी मम्मी-पापा से ज़िद किया करते थे और खूब भीड़-भाड़ वाले ऐसे मेलों में वो हमें ले जाते थे। वहां बहुत सी ऐसी चीज़े होती थी जो आज के सुसभ्य और सुसंस्कृत मेलों से गायब हो चुकी हैं।
खैर कल मेरे बेटे की ज़िद पर हम लोग उसके स्कूल के रास्ते में लगने वाले ऐसे ही एक मेले में गए। और यकीन मानिए जब हम उस मेले में गए तो बहुत सी तो पुरानी यादें ताज़ा हो गई और बहुत सी चौंकाने वाली चीज़े भी दिखी...
आदर्श रामलीला कमेटी द्वारा आयोजित इस दशहरा महोत्सव मेले का आयोजन पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में चांद सिनेमा के पास हर साल किया जाता है। यह मेला दिल्ली की एलीट सोसाइटी के लिए नहीं है क्योंकि इसमें ज्यादातर त्रिलोकपुरी निवासी, शशि गार्डन निवासी या सीधे शब्दों में कहें तो निचले तबके के लोग आते हैं। इसलिए यह मेला भी दिल्ली के इलीट मेलों से बिल्कुल अलग था बिल्कुल देसी और देहाती टाइप मेला था। यहां दर्शक वर्ग भी वैसा ही था।
यहां हमें बहुत सी ऐसी चीज़े देखने को मिली जो अब या तो मेलो से गायब हो चुकी है या फिर कस्बाई इलाकों या छोटे शहरों के मेलों में ही देखने को मिलती हैं,और कुछ ऐसी भी जो बदलते समय के साथ इनमें शामिल हो गई हैं लेकिन जो कभी भी इन मेलों की पहचान नहीं रहीं...।
यह देखिए फूलों की बैकग्राउन्ड में तस्वीर खिंचवाता एक परिवार। इस मेले में अलग अलग बैकग्राउन्ड के साथ तस्वीरे खिंचवाने की व्यवस्था की गई थी। जैसे मोटरसाइकिल के साथ, कार के साथ, पहाड़ी बैकग्राउन्ड में या फिर रेगिस्तानी बैकग्राउन्ड में। 50 रुपए में अपने मनपसन्द स्टाइल में तस्वीरे खिंचवाओं और 15 मिनट में उस तस्वीर को ले जाओ। आपके घर में पापा, मम्मी, दादा या दादी की ऐसी कोई ना कोई तस्वीर ज़रूर होगी...। आजकल भले ही हमें ऐसी तस्वीरे देखकर हंसी आएं लेकिन एक ज़माने में इन तस्वीरों का ज़बरदस्त क्रेज़ हुआ करता था।
और यह रंग-बिरंगे गुब्बारों पर निशाने लगाने वाला खेल। पहले पांच रुपए में पांच बार निशाना लगाते थे लेकिन अब महंगाई के कारण 10 रुपए में चार निशाने लगाने को मिलते हैं। यह निशाने मैंने भी बचपन में खूब लगाए हैं, आप सबने भी लगाए होंगे, वरना आपके मम्मी-पापा ने तो शर्तिया लगाए होंगे। आज के मेलों से यह निशाने वाले रंगीन गुब्बारे लगभग गायब हो गए हैं। लेकिन यकीन मानिए इन गुब्बारों पर लंबी नाल वाली बंदूक से निशाना लगाने में बड़ा मज़ा आता है। कभी मौका मिले तो लगा कर देखिएगा।
यहां का एक मुख्य आकर्षण था मौत का कुंआ। यह लकड़ी की खपच्चियों से बनी विशाल कुंए जैसी आकृति होती है जिसकी गोल दीवारों पर ऊपर तक मोटरसाइकिलें और कारें दौड़ती हैं।बीस रुपए की टिकिट में मौत के कुंए का यह खेल देखने का रोमांच आपको शानदार एक्शन फिल्म देखकर भी नहीं मिलेगा। इस कुंए में मोटरसाइकिल दौड़ाने के लिए तो हिम्मत चाहिए ही लेकिन देखने के लिए भी बहुत हिम्मत की दरकार है। गोल गोल चलती हुई मोटरसाइकिल और कारें कई बार ऊपर दर्शकों के पास तक आ जाती हैं और अगर आप खुश होकर इन्हें पैसे देना चाहें तो यह जांबाज खिलाड़ी ऊपर रेलिंग तक आकर आपके हाथ से खुद वो ईनाम ले जाते हैं।
और यह हैं इस मेले की सबसे ज्यादा चौंकाने वाली चीज़ जो मैंने पहले कभी किसी मेले में नहीं देखी थी। यह है एम के बूगी बूगी संस्कृत आदर्श कला केंद्र का पंडाल। था तो यह आदर्श कला केंद्र लेकिन दरअसल यहां कोमल धमाका के नाम से दस मिनट तक फिल्मी गानों पर मॉडल जैसी दिखने वाली लड़कियों द्वारा डांस किया जा रहा था। 20 रुपए की टिकिट लेकर अंदर जाने की इजाज़त सिर्फ पुरुषों को थी। किसी भी महिला को पंडाल में जाना मना था।
आयोजक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए विशेष तरीका अपना रहे थे। जब पंडाल पूरा भर जाता था और नाचने के लिए मॉ़डल आ जाती थी तो ज़रा सा पर्दा हटा दिया जाता था ताकि बाहर खड़ी भीड़ को उसकी झलक मिल जाए और फिर एक मिनट में ही पर्दा खींच दिया जाता था। कुछ कुछ टीज़र एडवर्टाइज़िंग जैसा...। इस पंडाल के बाहर सबसे ज्यादा भीड़ थी। सारे शो हाउसफुल जा रहे थे और यहां बहुत से पुलिसवाले भी जमा थे। सीटियों और तालियों की आवाज़े बाहर तक आ रही थीं।
वैल... मुझे कहना पड़ेगा कि यह पुराने तरह के मेलों में एक नई उपस्थिति है क्योंकि मैंने बचपन में देखे किसी भी मेले में ऐसे पंडाल नहीं देखे।
यह है रिंग फेंककर ईनाम जीतने वाला गेम। यह खेल तो बहुत आम है और बहुत मज़ेदार भी। आप सभी ने खेला होगा। यहां 20 रुपए में तीन बार रिंग्स फेंकने का मौका मिल रहा था। जो भी चीज़ आपकी रिंग में आ गई वो आपकी। ध्यान से देखिए यहां पीछे की तरफ एक सौ रुपए की गड्डी भी रखी है। यानि 20 रुपए में 100 रुपए की गड्डी जीतने का मौका...।
इसके अलावा भी यहां बहुत से ऐसे खेल थे जिनमें हर किसी को खेलने और जीतने का मौका मिलता है। जैसे बॉल मारकर गिलास गिराने का खेल, नंबर की सीरीज बनाने का खेल, माचिस से मोमबत्ती जलाने का खेल.. इत्यादि। यहां झूलों की भी कोई कमी नहीं थी और जाइन्ट व्हील तो इतना ज्यादा जाइंट था कि बैठने के ख्याल से ही डर लगने लगे।
कोलम्बस, मैरी गो राउंड, ड्रैगन ट्रेन जैसे लगभग सारे झूले यहां थे और हर झूले कि टिकिट थी मात्र 20 रुपए। यहां एक मैजिक शो भी था जिसमें देखते देखते एक लड़की नागिन में बदल जाती है। मैं वो शो भी नहीं देख पाई क्योंकि हाउसफुल था और साथ ही एक शीशों का घर जिसमें तरह तरह के शीशे लगे थे जो आपको अलग अलग शेप और शक्ल का दिखाते हैं।
खैर कल मेरे बेटे की ज़िद पर हम लोग उसके स्कूल के रास्ते में लगने वाले ऐसे ही एक मेले में गए। और यकीन मानिए जब हम उस मेले में गए तो बहुत सी तो पुरानी यादें ताज़ा हो गई और बहुत सी चौंकाने वाली चीज़े भी दिखी...
आदर्श रामलीला कमेटी द्वारा आयोजित इस दशहरा महोत्सव मेले का आयोजन पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में चांद सिनेमा के पास हर साल किया जाता है। यह मेला दिल्ली की एलीट सोसाइटी के लिए नहीं है क्योंकि इसमें ज्यादातर त्रिलोकपुरी निवासी, शशि गार्डन निवासी या सीधे शब्दों में कहें तो निचले तबके के लोग आते हैं। इसलिए यह मेला भी दिल्ली के इलीट मेलों से बिल्कुल अलग था बिल्कुल देसी और देहाती टाइप मेला था। यहां दर्शक वर्ग भी वैसा ही था।
यहां हमें बहुत सी ऐसी चीज़े देखने को मिली जो अब या तो मेलो से गायब हो चुकी है या फिर कस्बाई इलाकों या छोटे शहरों के मेलों में ही देखने को मिलती हैं,और कुछ ऐसी भी जो बदलते समय के साथ इनमें शामिल हो गई हैं लेकिन जो कभी भी इन मेलों की पहचान नहीं रहीं...।
यह देखिए फूलों की बैकग्राउन्ड में तस्वीर खिंचवाता एक परिवार। इस मेले में अलग अलग बैकग्राउन्ड के साथ तस्वीरे खिंचवाने की व्यवस्था की गई थी। जैसे मोटरसाइकिल के साथ, कार के साथ, पहाड़ी बैकग्राउन्ड में या फिर रेगिस्तानी बैकग्राउन्ड में। 50 रुपए में अपने मनपसन्द स्टाइल में तस्वीरे खिंचवाओं और 15 मिनट में उस तस्वीर को ले जाओ। आपके घर में पापा, मम्मी, दादा या दादी की ऐसी कोई ना कोई तस्वीर ज़रूर होगी...। आजकल भले ही हमें ऐसी तस्वीरे देखकर हंसी आएं लेकिन एक ज़माने में इन तस्वीरों का ज़बरदस्त क्रेज़ हुआ करता था।
और यह रंग-बिरंगे गुब्बारों पर निशाने लगाने वाला खेल। पहले पांच रुपए में पांच बार निशाना लगाते थे लेकिन अब महंगाई के कारण 10 रुपए में चार निशाने लगाने को मिलते हैं। यह निशाने मैंने भी बचपन में खूब लगाए हैं, आप सबने भी लगाए होंगे, वरना आपके मम्मी-पापा ने तो शर्तिया लगाए होंगे। आज के मेलों से यह निशाने वाले रंगीन गुब्बारे लगभग गायब हो गए हैं। लेकिन यकीन मानिए इन गुब्बारों पर लंबी नाल वाली बंदूक से निशाना लगाने में बड़ा मज़ा आता है। कभी मौका मिले तो लगा कर देखिएगा।
यहां का एक मुख्य आकर्षण था मौत का कुंआ। यह लकड़ी की खपच्चियों से बनी विशाल कुंए जैसी आकृति होती है जिसकी गोल दीवारों पर ऊपर तक मोटरसाइकिलें और कारें दौड़ती हैं।बीस रुपए की टिकिट में मौत के कुंए का यह खेल देखने का रोमांच आपको शानदार एक्शन फिल्म देखकर भी नहीं मिलेगा। इस कुंए में मोटरसाइकिल दौड़ाने के लिए तो हिम्मत चाहिए ही लेकिन देखने के लिए भी बहुत हिम्मत की दरकार है। गोल गोल चलती हुई मोटरसाइकिल और कारें कई बार ऊपर दर्शकों के पास तक आ जाती हैं और अगर आप खुश होकर इन्हें पैसे देना चाहें तो यह जांबाज खिलाड़ी ऊपर रेलिंग तक आकर आपके हाथ से खुद वो ईनाम ले जाते हैं।
और यह हैं इस मेले की सबसे ज्यादा चौंकाने वाली चीज़ जो मैंने पहले कभी किसी मेले में नहीं देखी थी। यह है एम के बूगी बूगी संस्कृत आदर्श कला केंद्र का पंडाल। था तो यह आदर्श कला केंद्र लेकिन दरअसल यहां कोमल धमाका के नाम से दस मिनट तक फिल्मी गानों पर मॉडल जैसी दिखने वाली लड़कियों द्वारा डांस किया जा रहा था। 20 रुपए की टिकिट लेकर अंदर जाने की इजाज़त सिर्फ पुरुषों को थी। किसी भी महिला को पंडाल में जाना मना था।
आयोजक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए विशेष तरीका अपना रहे थे। जब पंडाल पूरा भर जाता था और नाचने के लिए मॉ़डल आ जाती थी तो ज़रा सा पर्दा हटा दिया जाता था ताकि बाहर खड़ी भीड़ को उसकी झलक मिल जाए और फिर एक मिनट में ही पर्दा खींच दिया जाता था। कुछ कुछ टीज़र एडवर्टाइज़िंग जैसा...। इस पंडाल के बाहर सबसे ज्यादा भीड़ थी। सारे शो हाउसफुल जा रहे थे और यहां बहुत से पुलिसवाले भी जमा थे। सीटियों और तालियों की आवाज़े बाहर तक आ रही थीं।
वैल... मुझे कहना पड़ेगा कि यह पुराने तरह के मेलों में एक नई उपस्थिति है क्योंकि मैंने बचपन में देखे किसी भी मेले में ऐसे पंडाल नहीं देखे।
यह है रिंग फेंककर ईनाम जीतने वाला गेम। यह खेल तो बहुत आम है और बहुत मज़ेदार भी। आप सभी ने खेला होगा। यहां 20 रुपए में तीन बार रिंग्स फेंकने का मौका मिल रहा था। जो भी चीज़ आपकी रिंग में आ गई वो आपकी। ध्यान से देखिए यहां पीछे की तरफ एक सौ रुपए की गड्डी भी रखी है। यानि 20 रुपए में 100 रुपए की गड्डी जीतने का मौका...।
इसके अलावा भी यहां बहुत से ऐसे खेल थे जिनमें हर किसी को खेलने और जीतने का मौका मिलता है। जैसे बॉल मारकर गिलास गिराने का खेल, नंबर की सीरीज बनाने का खेल, माचिस से मोमबत्ती जलाने का खेल.. इत्यादि। यहां झूलों की भी कोई कमी नहीं थी और जाइन्ट व्हील तो इतना ज्यादा जाइंट था कि बैठने के ख्याल से ही डर लगने लगे।
कोलम्बस, मैरी गो राउंड, ड्रैगन ट्रेन जैसे लगभग सारे झूले यहां थे और हर झूले कि टिकिट थी मात्र 20 रुपए। यहां एक मैजिक शो भी था जिसमें देखते देखते एक लड़की नागिन में बदल जाती है। मैं वो शो भी नहीं देख पाई क्योंकि हाउसफुल था और साथ ही एक शीशों का घर जिसमें तरह तरह के शीशे लगे थे जो आपको अलग अलग शेप और शक्ल का दिखाते हैं।
Comments
Post a Comment