यहां औरत की चिता तभी जलती है जब मायके वाले लकड़ियों के पैसे दे दें...
--आगरा के बनिया समुदाय में प्रचलित है ये कुप्रथा
-शादी के बाद अगर बूढ़ी होकर भी औरत की मौत हो तो चिता के लिए लकड़ी मायके वालों को ही देनी पड़ती है
बात सुनने में और पढ़ने में शायद अजीब लगे, लेकिन अगर अपने घर में मौजूद बड़े-बुज़ुर्गों से आप पूछेंगे तो शायद उन्हें इस प्रथा की जानकारी हो। ताजमहल के शहर आगरा के वैश्य समुदाय में यह प्रथा बरसों से चली आ रही है कि ब्याही हुई लड़की की मृत्यू के बाद उसके दाह संस्कार का खर्चा लड़की के मायके वालों को उठाना पड़ता है।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लड़की की उम्र क्या है, भले ही वो अभी ब्याही गई हो या शादी के दस साल बीत चुके हों, भले ही वो सास बन चुकी हो या पोते, पोतियों की दादी। और भले ही आपके बेटे या पोते कितने ही अमीर क्यों ना हो, और मायके वाले कितने ही गरीब क्यों ना हो...पुरखों की बनाई हुई रीत के अनुसार मौत के बाद शव के दाह संस्कार में लगने वाली लकड़ियों का पूरा खर्चा उसके मां-बाप या अगर वो नहीं है तो भाई-बहन या फिर मायके में जो भी रिश्तेदार मौजूद है, उसे उठाना होता है।
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जी हां, लड़कियों को यूं ही घरवाले बोझ नहीं समझते। अब तक जितने भी कानून बनाए गए हैं वो दहेज प्रथा को रोकने के लिए हैं, लेकिन हिन्दू समाज में मां बाप द्वारा शादीशुदा लड़कियों पर रीति रिवाज के नाम पर किए गए खर्चो की लिस्ट दहेज के खर्चे से कहीं ज्यादा लम्बी है।
मायके की त्रासदी सिर्फ लड़कियों के लिेए दहेज जुटाने पर खत्म नहीं हो जाती। एक बार लड़की की शादी हो जाने के बाद, साल भर तक तीज त्यौहारों पर सामान भेजना, ज़िंदगी भर होली-दीवाली पर त्यौहार भेजना, लड़की के बच्चों की शादी या नामकरण, कनछेदन समारोह से लेकर उनकी शादियों तक में अच्छा खासा सामान देने से लेकर लड़की के मरने के बाद शव को जलाने के लिए लकड़ियों तक का प्रबंध मायके वालों को करना पड़ता है।
सफदरजंग अस्पताल में डॉक्टर एकता बंसल, जिनकी ससुराल आगरा में है, की बुआ सास की मौत के बाद जब उनके लड़के डॉ बंसल की सास से अपनी मां की लकड़ियों के लिए पैसे मांगने आए, तब उन्हें इस प्रथा के बारे में पता चला। डॉ एकता बंसल ने जब अपनी सास से पूछा कि बुआजी की चिता की लकड़ियों के पैसे आप क्यों दोगी, तो उनकी सास ने बताया कि यहां ऐसा ही होता है, औरत के मरने के बाद उसके मायके वालों द्वारा दी गई लकड़ियों पर ही उसे जलाया जाता है। यही रीत है। डॉक्टर बंसल को समझ में नहीं आया कि इस बुरी प्रथा के बारे में क्या कहे। जब हमने उनसे इस बारे में बात की तो उन्होंने दो टूक कहा "यह कैसी प्रथा है। मतलब अगर किसी ने लड़की पैदा कर ली तो गुनाह ही कर लिया। मां-बाप पहले उसकी शादी, दहेज का खर्चा दे, फिर साल भर तक तीज त्यौहार भेजते रहें, फिर लड़की के बच्चों के पैदा होने पर, नामकरण पर और यहां तक कि शादी पर भी भात दें और मरने के बाद उसकी अर्थी और दाह संस्कार का खर्चा भी वहीं उठाए। हद हो गई, इसलिए तो लोग लड़किया पैदा करने से डरते हैं।"
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दो लड़कियों की मां और कॉन्वेंट स्कूल में अध्यापिका समीक्षा सिंघल बड़े रोष के साथ कहती हैं कि "यह प्रथा नहीं गंदगी है और मैं कभी भी अपने घरवालों को ऐसा नहीं करने दूंगी। अपनी मां के मरने के बाद मैं तो मामा से अर्थी और लकड़ियों का खर्चा लेने नहीं जाऊंगी और ना अपने भाई और पापा को जाने दूंगी। अगर मामा देंगे तो भी मना कर दूंगी। भई वो हमारी मां है, हमें पाला-पोसा,बड़ा किया और हम उनकी मौत के बाद उनके दाह संस्कार तक का खर्चा नहीं उठा सकते।"
हांलाकि बहुत से बड़े बुज़ुर्ग यह कह कर इस प्रथा का समर्थन करते हैं कि यह तो लड़कियों की भलाई के लिए ही है कि ज़िदंगी भर भले ही वो किसी दूसरे घर में रही लेकिन कम से कम मरते समय तो उन्हें अपने खुद के घर यानि मायके की चुनरी और लकड़ियां नसीब हो रही हैं।
आपको यह भी बता दें, कि घर के पुरुष सदस्यों के मरने पर ऐसा नहीं होता। उनकी मौत पर उनके बच्चे ही सारा इंतज़ाम करते हैं क्योंकि पुरुषों का तो वह घर उनका अपना होता है, बस महिला सदस्यों की मौत के बाद ही उनके मायके से लकड़िया मंगायी जाती है, क्योंकि वो दूसरे परिवार से आती हैं।
इसे आगरा के वैश्य परिवारों की महिलाओं की त्रासदी ही कहा जा सकता है कि पूरी ज़िदंगी एक घर और परिवार को देने के बावजूद वो पराए घर की ही बेटियां रहती है और मरने के बाद भी उनका दाह संस्कार तब तक नहीं होता जब तक मायके वाले आ कर अपने पैसों से उनकी चिता ना सजा जाएं।
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