Monday, 23 November 2015

ग़र बर्रुअत जमीं अस्त, हमीअस्त हमीअस्त हमीअस्त...


कौन कहता है जीत-ए-जी जन्नत मयस्सर नहीं होती... बस एक बार नज़ारा-ए-कश्मीर हो जाए ..

धरती पर जन्नत है कश्मीर.. और इस जन्नत का सबसे खूबसूरत हिस्सा है गुलमर्ग

चिनारों के दरख्त, देवदारों के विटप... जिधर देखों उधर सब्ज़ रंग का नज़ारा... गुलमर्ग में पहुंचे तो आंखे गुलज़ार हो गईं थी... पहाड़ों पर बर्फ नहीं थी, मगर घाटी की खूबसूरती पर खुद कुदरत निसार हो गई थी...



धुंधले स्लेटी कोहरे से झांकते पहाड़, ज़मीन पर नज़र की सीमा तक बिछा हुआ हरा मखमली कालीन, बलखाती सड़क, नर्म ठंडी हवा और खुश होते हम...यह गुलमर्ग की सुबह थी। गुलमर्ग घाटी में बीचोबीच बने अपने होटल के कमरे की खिड़की से सुबह-सुबह जब पर्दा हटाया तो कुदरत की खूबसूरती का ऐसा खूबसूरत नज़ारा देखने को मिला जो अब से पहले कहीं नज़र नहीं आया था। 




 यूं तो पूरा कश्मीर ही खुद खुदा की बनाई खूबसूरत पेंटिंग लगता है लेकिन गुलमर्ग घाटी पर तो मानो भगवान ने बहुत जतन से ब्रश चलाए हैं।

अगस्त माह में सूरज सुबह सात बजे तक निकल आता है और फिर शुरु होता है बादल, पहाड़ों और सूरज के बीच छुपा-छिपी का खेल। कभी बादल छिप जाते हैं, कभी सूरज और कभी पहाड़। यहां पलक झपकते मौसम बदल जाता है...अभी धूप, अभी बूंदाबांदी, पल भर पहले गर्मी और पल भर बाद ठंड....
 बॉलीवुड और गुलमर्ग का भी बहुत गहरा याराना है। पूरे कश्मीर में और खासकर गुलमर्ग में जगह-जगह ऐसी जगहें हैं जहां बॉलीवुड फिल्म के लिए  शूटिंग हो चुकी है।


इन दोनों मंदिरों की तस्वीरें देखिए.. और पहचानने की कोशिश कीजिए। कुछ याद आया..
 पहाड़ों पर मस्ती में भांग घोटते लोग, ढोलक की थाप पर जय-जय शिव शंकर
 करती मुमताज और उनके साथ कदम से कदम मिलाते सुपरस्टार राजेश खन्ना। जी हां, सही पहचाना. यह दोनों वहीं मंदिर हैं जिनमें फिल्म 'आप की कसम' का सुपरहिट गाना 'जय-जय शिव शंकर' फिल्माया गया था। 

ऊपर वाला मंदिर गुलमर्ग की प्रवेश सीमा पर बने बस स्टेंड पर बना है। शांत और भीड़ से दूर इस मंदिर से पूरी गुलमर्ग घाटी का नज़ारा होता है। 

दूसरा मंदिर मशहूर शंकराचार्य मंदिर  है जो काफी प्रसिद्ध है। लोग दूर दूर से यहां के दर्शन करने आते हैं। 




यहां और भी ऐसे बहुत से प्वॉइंट्स हैं जहां फिल्मों की शूटिंग हुई है। यहां के लोगों से, घोड़ो वालों से आप बात करेंगे तो वो आपको बड़े जतन से बताते हैं कि वो कितने स्टार्स से मिल चुके हैं।


यहीं विश्व का सबसे ऊंचा गोल्फ कोर्स भी हैं। गुलमर्ग की पूरी घाटी का नज़ारा एक बार में लेना चाहें तो गोंडोला यानि केबल कार से सबसे ऊंची पहाड़ी पर ज़रूर जाए जहां पूरे साल बर्फ रहती है और जहां से लगभग 15 किलोमीटर आगे पाकिस्तान की सीमा है। इस जन्नत की खूबसूरती के बारे में और क्या कहा जाए बस किसी मशहूर कवि की इन्हीं लाइनों से सबकुछ बयां हो जाता है कि..


पहाड़ों के जिस्मों पर बर्फों की चादर
चिनारों के पत्तों पर शबनम का बिस्तर
हसीं वादियों में महकती है केसर
कहीं झिलमिलाते हैं झीलों के ज़ेवर
है कश्मीर दुनिया में जन्नत का मंज़र।


Monday, 28 September 2015

इस कहानी को पढ़ते समय दिमाग का इस्तमाल ना करें.. यह किस्सा तर्कों और अर्जित ज्ञान की सीमाओं से परे हैं :-)



सम्भापुर में एक 10 साल का लड़का रहता था- चंद्रभान। उसे दुनिया से कोई मतलब नहीं था। उसका कोई भी दोस्त नहीं था, उसे प्यार था तो केवल किताबों से। उसकी प्रिय किताबें थी गणित, रसायन शास्त्र (केमिस्ट्री), भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) और जीव विज्ञान (बायोलॉजी) की किताबें। दिन रात चंद्रभान केवल किताबों में डूबा रहता था। खाता था तो हाथ में किताबें, सोता था तो भी किताबों के साथ.. अपनी बातें भी वो किताबों के साथ ही करता था।

एक दिन दूसरे ग्रह दूरामी से आए एक एलियन मॉन्स्टर ने उसका अपहरण कर लिया जो कि उसकी स्टडी टेबल के नीचे छिपा हुआ था। दूरामी का एलियन 'भूलखा' धरती ग्रह पर रहने वाले लोगों के बारे में पता लगाने के लिए आया था। भूलखा काफी दिनों से चंद्रभान की गतिविधियां देख रहा था और एक दिन वो उसका अपरहण करके अपने साथ दूरामी ले गया।

जब चंद्रभान दो तीन घंटों तक किताबों के पास नहीं आया तो किताबें परेशान हो गईं। गणित की किताब से निकला अर्थमैटिको, फिजिक्स का फिजिक्सा, बायोलॉजी से बायोलाल जी और केमिस्ट्री से केमिकेलिया... यह चारों मिलकर मंत्रणा करने लगे कि आखिर चंद्रभान गया तो गया कहां।

बायोलाल जी ने टेबल के नीचे के माइक्रोऑर्गेनेज़ि्म्स से पूछा कि क्या उन्हें चंद्रभान के बारे में पता है, तो वहीं केमिकेलिया टेबल के ऊपर जग में रखे पानी के हाइड्रोजन और ऑक्सीजन अणुओं से चंद्रभान के बारे में मालूमात हासिल करने लगे।
आखिरकार कमरे के वायुमंडल में उपस्थित नाइट्रोजन एटम ने केमिकेलिया को बताया कि उसने एक एलियन को चंद्रभान को ले जाते देखा है। बाहर निकले तो उपस्थित अन्य अणुओं, बैक्टीरिया और वायरस ने भी बायोलाल जी को सारी कहानी सुना दी।

अब चारों को अपने परम मित्र चंद्रभान की जान बचानी थी। चारों ने दूरामी प्लेनेट जाकर चंद्रभान को छुड़ाने की ठान ली। सबसे पहले बायोलाल जी ने वायुमंडल में उपस्थित बेक्टीरियल कोशिकाओं (cells) का प्रयोग करके चारों को अमीबॉइड शेप्स में बदल दिया, जिससे वो चारों किसी भी शेप में आ सकते थे।

अब फिजिक्सा ने ग्रेविटेशनल फोर्स को रिवर्स करके उसे लेविटेशनल (levitational) फोर्स में तब्दील कर दिया। गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होते ही चारों उड़ते हुए, हवा में तैरते हुए प्लेनेट अर्थ से बाहर निकल गए। सब स्पेस में पहुंच चुके थे।

अागे का काम केमिकेलिया ने संभाला, उसने स्पेस में सफर कर सकने वाली लाइट के फोटॉन पार्टिकल्स से एक स्पेस रॉकेट बनाया, चारो उसमें बैठे और अब फिजिक्सा ने उसे रॉकेट में लाइट ईयर्स की स्पीड दे दी। अब अर्थमैटिको ने लाइटईयर स्पीड को 100 से गुणा करके उसे सौगुना तेज़ कर दिया। इस तरह चारों फोटॉन रॉकेट में बैठ कर 100 लाइट ईयर्स प्रति माइक्रोसैंकेंड की स्पीड से उड़े और 5 मिनट में 10 गैलेक्सीज़ पार करके दूरामी ग्रह पहुंच गए।
 
दूरामी ग्रह इनर्ट गैस हीलियम का बना था। वहां चारों तरफ अजीब सी बायोलॉजिकल सरंचना वाले करोड़ों एलियन मॉन्सटर्स थे। किसी को भी उनको मारने का तरीका नहीं सूझ रहा था। तब अर्थेमैटिको ने दिमाग चलाया और उसने सारे मॉन्सटर्स को ज़ीरो से मल्टिप्लाई कर दिया। सारे मॉन्सटर्स गायब हो गए। अब वहां केवल उनका चीफ भूलखा बचा था। जो कि हीलियम गैस के महल के अंदर था जो कि बहुत मज़बूत था।

महल की दीवारों को तोड़ने के लिए कैमिकेलिया ने हीलियम अणुओं के बीच न्यूक्लियर फिज़न की क्रिया कराई जिससे जबरदस्त एनर्जी निकली और हीलियम का महल ब्लास्ट हो गया। अब चारों भूलखा तक पहुंच चुके थे।

भूलखा ने चंद्रभान को अपनी ज़ेनॉन की लेबोरेट्री में कैद कर रखा था। फिज़िक्सा, केमिकेलिया और बायोलाल जी उससे लड़ते रहे, पर भूलखा पर कोई वार काम नहीं कर रहा था। बायोलॉजिया ने जब उसकी शारीरिक संरचना का अध्ययन किया तो पता चला कि भूलखा मर नहीं सकता और वो अपने शरीर के अणुओं को बिखरा (disintegrate) सकता था। इसी तरह से वो बार-बार उनका हर वार झेल रहा था।

सबने मिलकर एक योजना बनाई, अब की बार कैमिकेलिया ने सल्फ्यूरिक एसिड का वार किया, जैसे ही उससे बचने के लिए भूलखा ने अपने शरीर के अणुओं को डिसइन्टीग्रेट किया, बायोलाल जी ने फटाफट उसके थोड़े से अणु समेट कर अर्थमैटिको को पकड़ा दिए.. और अर्थमैटिको उन अणुओं से भूलखा के शरीर के बाकी अणुओं को डिवाइड करता चला गया। लगातार -लगातार डिवीजन (भाग) होने के कारण भूलखा संभल भी नहीं पाया और छोटा होता चला गया। इतनी देर में फिजिक्सा ने फोर्थ डाइमेंशन तैयार कर ली।
अर्थमैटिको ने लगातार डिवीज़न के बाद बिल्कुल छोटे हो चुके भूलखा को उस फोर्थ डाइमेंशन में फेंक दिया। फिजिक्सा ने तुंरत फोर्थ डाइमेंशन को बंद कर दिया और भूलखा वहीं कैद होकर रह गया।

चारों ने मिलकर चंद्रभान को मुक्त कराया और अपने दोस्त को लेकर सब सही सलामत धरती पर वापस लौट आए।

आज भी भूलखा कई गैलेक्सियों परे स्पेस में बनी फोर्थ डाइमेंशन में कैद है। वो इंतज़ार कर रहा है कि कब फोर्थ डाइमेंशन के बारे में लोग जाने, और कोई आकर उसे निकलने का रास्ता बताएं.....।


कारों और बाइक की दोस्ती की अनोखी कहानी पढ़िए.

जी हां डस्टबिन को भी बुरा लग सकता है, आखिर तो वो अपना काम कर रहा है... पढ़िए डस्टबिनाबाद और रीसाइक्लाबाद की कहानी

फलों और सब्ज़ियों के बीच दोस्ती की शुरूआत की कहानी


Saturday, 12 September 2015

रंग लाई फूयो, ऑल्टिया और मर्सिडीज़िया की दोस्ती



गाज़ियाबाद की एक आधुनिक सोसाइटी की बेसमेन्ट पार्किंग में एक ऑल्टो कार और एक हीरो हौन्डा बाइक रहा करते थे। दोनों में गहरी दोस्ती थी। कार का नाम था ऑल्टिया और बाइक थी फूयो। दोनों की दोस्ती इतनी गहरी थी कि एक दिन भी अगर दोनों एक दूसरे से बात ना करें तो परेशान हो जाते थे। कभी ऑल्टिया गर्मी से परेशान फूयो को अपने ठंडे एसी की हवा दिया करती थी तो कभी फूयो, ऑल्टिया के थके हुए टायरों की अपने किक स्टार्टर से मालिश कर दिया करता था। सारे त्यौहार, छुट्टियां दोनों साथ मनाते थे। दोनों एक दूसरे के साथ खूब मस्ती किया करते थे।

फिर एक दिन अचानक ऑल्टिया गायब हो गई। फूयो ने उसका बहुत इंतज़ार किया। अन्य साथी कारों, स्कूटरों और बाइकों से भी पूछा पर किसी को मालूम नहीं था। हफ्ता गुज़र गया। फूयो बहुत उदास रहने लगा। उसकी दोस्त जाने कहां चली गई थी। .. और फिर एक दिन ऑल्टिया की जगह एक चमचमाती नई ग्रे रंग की बड़ी कार खड़ी होने लगी। 

फूयो को हैरानी हुई। उसने उस नई कार से बात करने की कोशिश की, उसका हाल-चाल पूछा, लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। वो अपनी अकड़ में रहने वाली गुरूर से भरी हुई कार थी। जिसे फूयो से मामूली बाइक से दोस्ती करना पसंद नहीं था। जब फूयो ने  उससे एक बार और पूछा तो उस ग्रे कार ने अपनी हैडलाइट झटकते हुए गुस्से से कहा कि देखो- आय एम मर्सिडीज़ीया.., मैं अपने फ्रेंड्स बहुत सोच-समझ कर बनाती हूं, हर किसी से दोस्ती नहीं कर सकती। इसलिए आगे से मुझसे बात करने की कोशिश मत करना।

फूयो बेचारा दुखी हो गया। अब वो अकेला था। बात करने के लिए, खेलने के लिए कोई नहीं था। मर्सिडीज़िया तो उसकी तरफ देखती तक नहीं थी, खेलना तो दूर की बात रही। एक दिन वो ऐसे ही दुखी होकर ऑल्टिया को याद कर रहा था.. " ओ ऑल्टिया, मेरी दोस्त, तुम कहां चली गईं, तुम होती तो हम कितनी मस्ती करते।.. " वो बड़बड़ा ही रहा था कि मर्सिडीज़िया की हैरानी भरी आवाज़ आई- " तुम ऑल्टिया को कैसे जानते हो? " 

फूयो हैरान, उसने मर्सिडीज़िया को बोला कि तुमसे पहले यहां ऑल्टिया ही रहा करती थी। उससे मेरी गहरी दोस्ती थी, और फिर एक दिन वो गायब हो गई और तुम उसकी जगह आ गईं। मर्सिडीज़िया की आंखों में आंसू आ गए। वो बोली कि जानते हो मैं ऑल्टिया की बड़ी बहन हूं। वो एक कार कार्निवल में मुझसे बिछड़ गई थी। तब से उसे ढूंढ रही हूं। उसकी तलाश में दिल्ली, बम्बई, हैदराबाद.. और जाने कहां कहां गई पर वो मुझे नहीं मिली। आज पता चला कि वो यहां थी। क्या तुम उसे ढूंढने में मेरी मदद करोगे?

फूयो भी हैरान था। उसने प्रॉमिस किया कि वो ज़रूर मदद करेगा। उस दिन से मर्सिडीज़िया और फूयो दोस्त बन गए, दोनों साथ रहने लगे, घूमने लगे और एक साथ ऑल्टिया को ढूंढने की कोशिश करने लगे। 

एक दिन दोनों साथ पेट्रोल भरवाने पहुंचे थे कि अचानक फूयो को दूसरी तरफ बीमार, परेशान ऑल्टिया दिख गई। उसमें ड्राइविंग सीट पर एक गुंडा सवार था। फूयो चुपके से उसके पास पहुंचा और ऑल्टिया से पूछा कि वो वहां कैसे आई। 

ऑल्टिया, फूयो को देखकर खुश हो गई। उसने बताया कि यह आदमी उसे चुरा कर लाया है और अब वो उसे स्क्रैप यार्ड भेजने की तैयारी कर रहा है, जहां उसे मार दिया जाएगा। फूयो तुरंत मर्सिडीज़िया के पास पहुंचा और उसे सारी बात बताई। दोनों ने मिलकर ऑल्टिया को छुड़ाने की तरकीब सोच ली थी। 

जब ऑल्टिया को लेकर वो चोर पेट्रोल पंप से निकला, फूयो कार के सामने आकर लेट गया। उस चोर ने हड़बड़ी में ब्रेक लगाए और वो फूयो को रास्ते से हटाने के लिए कार से बाहर निकला। जैसे ही वो बाहर निकला, तैयार खड़ी मर्सिडीज़िया ने उसे टक्कर मार दी। चोर बेहोश होकर ज़मीन पर गिर गया। 

फौरन फूयो उठा। वो, ऑल्टिया और मर्सिडीज़िया वहां से दौड़ पड़े। तीनों बहुत तेज़ भागे और एक नई जगह जाकर रुके। ऑल्टिया भी आज़ाद होकर और  बिछड़ी हुई बहन से मिलकर बहुत खुश थी। उस दिन से तीनों वहीं साथ-साथ रहेने लगे। वो हमेशा दोस्त रहे। उनकी दोस्ती के किस्से आज भी कार वर्ल्ड में किवदंती की तरह सुनाए और गुनगुनाए जाते हैं।




अब पढ़िए डस्टबिनाबाद और रीसाइक्लाबाद की अनोखी कहानी

पढ़ाकू हैं? तो पढ़ डालिए उस पढ़ाकू लड़के की कहानी जिसकी जान उसकी दोस्त किताबों ने बचाई

एक किस्सा उस दौर का जब फलों और सब्ज़ियों में दोस्ती नहीं थी


Tuesday, 8 September 2015

यह तब की बात है जब फलों और सब्ज़ियों के बीच दोस्ती नहीं थी...

एक समय था जब फल और सब्जियां अलग अलग रहते थे। दोनों में दोस्ती कायम करने में चेरी और शिमला मिर्च का बहुत बड़ा योगदान है। कैसे... जानने के लिए सुनते हैं यह कहानी..

 बहुत समय पहले धरती पर टमाटर के रस की नदी बहा करती थी। नदी के इस तरफ था फ्रूट किंगडम यानि फलों का साम्राज्य और दूसरी तरफ था वेजीटेबल किंगडम यानि सब्जि़यों का साम्राज्य।


फ्रूट किंगडम के राजा थे महामहिम आम और महारानी थी चेरी.. दोनों की जोड़ी एक और शून्य की जोड़ी थी, अलग किस्म की, अजीब जोड़ी लेकिन बेजोड़। फ्रूट किंगडम का शानदार क्यूकम्बर पैलेस, खीरे से बना था। उसमें केले के खम्बे थे और लाल बेर जड़ित खीरे की दीवारें।
महाराजा आम जब तरबूज़ की शानदार अंगूर जड़ी, लाल बग्घी में बैठकर प्रजा के बीच आते थे तो सेब, खुबानी, चीकू, केले और बाकी सारी फलों की प्रजा उनका शानदार स्वागत करती थीं।


नदी के दूसरी तरफ वेजीटेबल किंगडम के महाराजाधिराज थे बैंगन राजा और उनकी महारानी थीं, शिमला मिर्च। इनका महल भिंडी से निर्मित था जिसमें पत्ता गोभी के बड़े-बड़े पर्दे और फूलगोभी के झूमर लटका करते थे। महाराजा की शाही सवारी कद्दू में मटर की नक्काशी करके बनाई गई थी। महल के दोनों ओर गाजर सिपाही तैनात रहते थे।


दोनों अमीर राज्य थे, खुशहाल, खूबसूरत, सुखी और अपने में मगन। बस नदी की सीमा लांघकर कभी किसी ने दूसरे राज्य में जाने की कोशिश नहीं की।

पर नारी मन को क्या कहा जाए.. एक बार महारानी चेरी जब टमाटर नदी किनारे शहतूत के बागों में घुम रहीं थी अचानक उनकी नज़र नदी के पार सेम की बेलों पर पड़ गईं.. रानी का मन वेजीटेबल किंगडम की सैर को मचल गया। तुरंत खीरा महल पहुंची और महाराज आम से मन की बात बताई।

महाराजा आम ने उनसे कहा कि सदियां बीत गई, कभी भी हमारे पूर्वजों ने उस तरफ जाने की कोशिश नहीं की। हम अलग हैं और वो सब्जि़यां अलग, हम आपको वहां जाने की इजाज़त नहीं दे सकते। रानी चेरी नहीं मानी, रूठ कर बैठ गईं।
हारकर राजा आम ने उन्हें बुलाया और कहा कि अगर आप वहां जाना चाहती हैं तो जाएं, लेकिन हम कभी उस तरफ नहीं गए हैं और ना ही जानते हैं कि वहां के निवासी कैसे हैं। अगर आपको आते देख उन्होंने आप पर हमला कर दिया तो...

 इस पर रानी चेरी बोली कि हम वहां दोस्ती का पैगाम लेकर जाएंगे। उनको भी यहां आने के लिए आमंत्रित करेंगे और फलों और सब्जियों के बीच की यह दूरी हमेशा के लिए खत्म कर देंगे।

राजा आम को यह विचार पसंद आया, लेकिन फिर भी उन्होंने एहतियात बरतने को कहा। रानी से कहा कि हम आपको पूरी तैयारी के साथ वहां भेजेंगे, ताकि अगर वो आपसे मित्रवत् व्यवहार ना करें तो आप उन्हें जवाब दे सकें।

तैयारियां शुरू हुईं।

रानी के लिए अन्नानास का शानदार जहाज बनाया गया, जिसके चारों तरफ हरे कांटों का रक्षाकवच था। रानी को टमाटर नदी सुरक्षित पार कराकर वेजीटेबल किंगडम पहुंचाने की जिम्मेदारी सेनापति अमरूद को दी गईं।
सेनापति अमरूद ने अन्य सब्जियों के लिए खीरे की नावें बनवाईं। सबसे पहले इन नावों में नारियल सेना को उतारा गया। नारियल सेना के पीछे संतरों की सेना चली। इसके बाद बीच में रानी का अन्नानास जहाज और दोनों तरफ अखरोट और खुबानियों भरी नावें चली।

नारियल सेना सब्जि़यों की तरफ से किसी भी तरह के आक्रमण को झेलने में सक्षम थी। संतरे की सेना का हथियार था खट्टा रस और उसके बाद आ रहे आड़ू, खुबानी और अखरोट बम के गोलों की तरह दुश्मनों को मार गिराने में सक्षम थे।

 रानी का काफिला नदी पार करने चला। जैसे ही वेजीटेबल किंगडम की मिर्ची और नींबू सेना को गुप्तचर प्याज ने इसकी खबर दी कि दूसरी तरफ से दलबल के साथ महारानी चेरी इधर आ रही हैं, उन्होंने बैंगन राजा तक बात पहुंचाई। तुरंत बैंगन राजा ने आपात बैठक बुलाई। सारी सब्जियां चिंतिंत थी। जो आज तक नहीं हुआ, होने जा रहा था। फल राज्य से कोई उनके सब्जी राज्य आ रहा था। तब महारानी शिमला मिर्च ने सलाह दी कि महाराज चिंतित मत होईए। अपनी मिर्ची और नींबू सेना को तैयार रखिए। भुट्टे मिसाइल भी मंगवा लीजिए, लेकिन तुरंत हमला मत करिएगा। पहले उन्हें यहां आने दीजिए। क्या पता वो लड़ने के लिए नहीं बल्कि दोस्ती का पैगाम लेकर आईं हों।


बैंगन राजा को महारानी कैप्सिकम की बात जंच गई। तुरंत अपने सेनापति टिंडे को नदी किनारे भेजा। चेरी रानी का काफिला वहां पहुंच चुका था। सेनापति अमरूद आगे आए और उन्होंने वेजीटेबल किंगडम के सेनापति टिंडे से मुलाकात की। उन्हें बताया कि महारानी चेरी सब्जियों के राज्य में घूमना चाहती हैं।

सेनापति टिंडा यह पैगाम लेकर बैंगन राजा के पास गए।

बैंगन राजा ने रानी चेरी और उनके सारे लाव लश्कर को पहले दिन जिमीकंद के गैस्ट हाउस में रुकाया, जहां मटर के सीक्रेट कैमरे लगे थे।
एक दिन तक रानी चेरी और उनके सभी साथियों की सारी गतिविधियां देखने के बाद बैंगन राजा को यकीन हो गया कि महारानी चैरी वाकई दोस्ती का पैगाम लेकर आई हैं। उन्होंने तुरंत महारानी को कद्दू महल बुलाया और उनकी शानदार आवभगत की गई। महारानी कैप्सिकम भी महारानी चेरी से मिलकर बहुत खुश हुईं।

एक हफ्ते तक महारानी चेरी वहां रहीं और विदाई के समय उन्होंने महारानी केप्सिकम और महाराजा बैंगन को खूब सारे अखरोट, काजू, बादाम और अन्य फल उपहारस्वरूप दिए। बैंगन राजा ने भी महारानी चेरी को मटर, सेम, भिंडी आदि देकर विदा किया। चेरी महारानी ने उन्हें अपने फ्रूट किंगडम आने के न्यौता भी दिया।

खुशी-खुशी रानी विदा होकर वापस फ्रूट किंगडम पहुंची और राजा आम से सारी बात बताई। उस दिन से फलों और सब्जियों में दोस्ती हो गई। टमाटर की नदी पर अरबी का पुल बना दिया गया और दोनों राज्य के निवासी एक दूसरे से मिलने जुलने लगे, दोनों के बीच दोस्ती की गांठ जुड़ चुकी थी।


पढ़िए कैसे किताबों ने बचाई पढ़ाकू चन्द्रभान की जान

डस्टबिनाबाद और रीसाइक्लाबाद के बीच हो गई लड़ाई, सुलझी कैसे..? जानिए यह कहानी पढ़ के..

दो कारों और एक बाइक की दोस्ती की दास्तान..
  

Monday, 8 June 2015

मुक्तेश्वर! चट्टानों, पानी, सूरज , हवा, मिट्टी और पहाड़ियों की जुगलबंदी...


और सहसा मैं ठिठक गई... दुर्गम पथरीली चढ़ाई और सीधी ढलान पर बैठ-बैठ कर चढ़-उतर कर यहां तक पहुंचे पैरों की थकावट जाने कहां गुम हो गई.. सामने थी नक्काशीदार चट्टाने, कहीं उभरी, कहीं ढलकी और कहीं लम्बवत रूप लेती.. एक के ऊपर एक, सब आगे निकलने की चाह में.. और उन पर ऊपर से गिर रही थी पानी की कल-कल धार...  सुरम्य छोटी घाटी में चट्टानों के बीच गहरे हरे रंग से नीबुंए रंग की छटा  बिखेरते पानी का रूप और पारदर्शी तले से झांकते चिकने, गोल पत्थर... स्वर्ग का अहसास करा रहे थे...। मुझे याद हो आया योग निद्रा में जाने के बाद सबसे खूबसूरत जगह की सैर करना... कुछ ऐसी ही तस्वीर बना करती थी...। और, आज मानों मेरी स्वप्नों से साकार होकर वो जगह सामने उतर आई थी। पैरों से चप्पलों का बोझ हटाकर जब इस झरने के पानी को छुआ तो शीतलता कब तलवों से दिमाग तक पहुंच कर इसे ठंडक दे आईं, पता ही नहीं चला... मैं तो प्रकृति के इस सौंदर्य में मगन थी...

भालगढ़ झरना

पानी तेरे रूप अनेक.. बह जाए तो नदी, गिर जाए झरना, ठहर जाए तो शांत झील और हिलोरें ले तो समुद्र...
पानी के इस झरनीय रूप का यह दर्शन मिला मुझे मिला भालगढ़ में।

वहीं भालगढ़ झरना जो नैनीताल से लगभग 60 किलोमीटर ऊपर मुक्तेश्वर पहुंचने के बाद देखने को मिलता है। अधिकतर पर्यटक बस मुक्तेश्वर महादेव मंदिर और चौथी जाली को अपनी घूमने की सूची में शामिल करते हैं...। लेकिन यहां आने के बाद अगर आपने भालगढ़ झरना नहीं घूमा तो आप प्रकृति के सौंदर्य को करीब से देखने का मौका गवां देंगे।

इसी जून की 3 तारीख को हम दिल्ली से लगभग 350 किमी की यात्रा लगभग 7 घंटे में तय करके हलद्वानी, काठगोदाम, नैनीताल, भीमताल और भुवाली होते हुए मुक्तेश्वर पहुंचे थे। शाम लगभग 5 बजे जब हम मुक्तेश्वर पहाड़ी पर बसे किसना ऑर्चर्ड रिज़ॉर्ट पहुंचे तो दिल्ली की भीषण गर्मी बहुत पीछे छूट चुकी थी। गाड़ी से उतरते ही सर्द हवा के झोंकों ने हमें मैदानी इलाकों के दिसंबर मौसम की याद दिला दी। हम सब अपनी अटैचियों में से गर्म कपड़े और शॉल निकाल ही रहे थे कि हमारे स्वागत के लिए लाल बुरास शर्बत पहुंच गया। किसना ऑर्चर्ड में आने वालों का स्वागत इसी बुरास शर्बत से किया जाता है। बुरास यहीं पहाड़ी में उगने वाला एक पौधा है जिसका शर्बत बेहद शीतल और तेज़ मिठास लिए होता है। बुरास शर्बत पीकर हम अपने कमरों की


और चले और यहीं कमरे की खिड़की से हमें सूर्यास्त के दर्शन हुए। बेहद खूबसूरत सूर्यास्त....। दिल्ली की ऊंची इमारतों और धूल भरे वातावरण के बीच सूर्योदय और सूर्यास्त का नज़ारा अगर कहीं से कभी दिखता भी है तो धुंधला दिखता है, लेकिन यहां हमारी आंखों और क्षितिज पर पहुंचे भास्कर के बीच थी केवल पारदर्शी, ठंडी हवा और मिट्टी की सौंधी महक..।

पहले दिन रिज़ॉर्ट में ही ब़ॉन फायर का मज़ा लेकर हम सोने चले गए। मैनेजर साहब हमें पहले ही आगाह कर चुके थे कि हम सुबह पांच बजे अपने कमरे की बालकनी से ही पहाड़ी सूर्योदय का नज़ारा ले सकते हैं, सो हम सब सुबह पांच बजे ही उठ गए थे।

बालकनी से सामने पूरब में धीरे-धीरे आगमन करते रविदेव का नज़ारा वाकई दर्शनीय था...,  मानों खुद हिमराज सूर्यदेव के रथ को धीरे-धीरे ठेलकर आकाश में पहुंचाने की चेष्टा कर रहे हों... दिवाकर की पहली मृदुल रश्मियां जब हम तक पहुंची तो मन प्रफुल्लित हो उठा। हम बुत बने प्रकृति की इस लीला का अवलोकन करते रहे। धीरे-धीरे सूरज ऊपर चढ़ा और हम भी तैयार होकर मुक्तेश्वर घूमने की तैयारी में लग गए। लगभग नौ बजे स्नानादि करके और नाश्ता ले चुकने के बाद हम अपने पहले पड़ाव मुक्तेश्वर महादेव मंदिर जाने के लिए निकल पड़े।

मुक्तेश्वर महादेव मंदिर
गाड़ी से यहां पहुंचने में लगभग 25 मिनट लगे। यूं तो यह ज्यादा दूर नहीं था लेकिन संकरी पहाड़ी सड़क, अंधे मोड़ और दोनों तरफ से आते वाहनों के कारण हमें इतना समय लग गया था। मुक्तेश्वर महादेव के बगल से ही एक रास्ता यहां के दूसरे दर्शनीय स्थल चौथी जाली के लिए कटता है, लेकिन हम उस रास्ते से नहीं गए। हम पहले मुक्तेश्वर महादेव मंदिर पहुंचे। लगभग आधा किलोमीटर ऊंची चढ़ाई चढ़ने और 30 सीढ़ियां पार करने के बाद हमारे सामने मुक्तेश्वर महादेव मंदिर था। मंदिर के मुहाने पर लकड़ी की चौकोर मेहराब बनी थी और उस से बंधी थी बहुत सी घंटियां। यह दृश्य इतना सादा और सौम्य है कि भक्ति अपने आप ही मन में समाने लगती है। मुक्तेश्वर महादेव मंदिर की सादगी ही उसका सबसे बड़ा आकर्षण हैं। यहां और नामी पहाड़ी मंदिरों जैसी भीड़भाड़, दिखावा और साज सज्जा का पूरी तरह अभाव है... कुछ हैं तो बस अनअलंकृत  मंदिर और सहज आराधना की खुशी....।

 ऊपर चोटी पर बने मंदिर के दरवाज़े पर भी असंख्य घंटियां बंधी हैं। प्रत्येक श्रद्धालु जब इन घंटों को बजाता है तो आवाज़ पूरी घाटी में गूंजती सी लगती है। यहां मदिंर से घाटी का सुंदर नज़ारा भी होता है।

मंदिर के दर्शन करके प्रशाद लेने के बाद हम पीछे के रास्ते से ही जंगल होते हुए चौथी जाली के लिए निकल पड़े।दोनों तरफ ऊंचे लंबे पेड़ों के बीच जाती पगडंडी से होकर निकलना प्रकृति के और करीब पहुंचने का अहसास दिला रहा था। हवा इतनी शीतल थी कि रोम-रोम से ऊष्णता का अंतिम कण तक निकल गया। यहां भी लगभग आधा किलोमीटर चलने के बाद हम चौथी जाली पहुंचे।

चौथी जाली

चौथी जाली दरअसल चट्टान के मुहाने पर बना एक बड़ा छेद है। कहते हैं कि जो इस छेद से होकर गुज़रता है, चौथ माता उसकी हर मनोकामना पूरी करती है। हांलाकि यहां तक पहुंचना बिल्कुल आसान नहीं, रास्ता दुर्गम है और खतरनाक भी लेकिन फिर भी इच्छा पूर्ति की कामना और विश्वास को साथ लेकर लोग यहां तक आते हैं और पहाड़ के मुहाने पर बने इस छिद्र से गुज़रकर चौथ माता से आशीर्वाद ग्रहण करते हैं।

यहीं पास में एडवेंचर स्पोर्ट्स भी कराए जाते हैं। रोप वे पर लटककर पहाड़ी पार करना उनमें से एक है। अगर आपको ऊंचाई से डर नहीं लगता, या अगर लगता भी है, तो भी इस स्पोर्ट को ज़रूर करें। पूरे सुरक्षा मानकों के साथ कराए जाने वाले इस खेल में जब आप रस्सी पर लटककर घाटी के बीचों-बींच पहुंचते हैं तो हवा में लटककर नीचे अंतहीन फैली सुरसा घाटी का जो नज़ारा होता है उसका शब्दों में वर्णन संभव ही नहीं है। आप अगर यह नहीं करते तो यकीन मानिए एक बेहतरीन अनुभव पाने का मौका गंवा देंगे। हम तो इस अनुभव को बड़े जतन से बांधकर ले आए हैं।


 यहीं वो पड़ाव था जहां से गुज़रने के बाद शायद हमारी भी मुक्तेश्वर यात्रा पूर्ण हो चुकी थी, लेकिन भला हो उस स्थानीय गरड़िये का जिसने हमें भालगढ़ झरने के बारे में बताया और हम वहां गए और एक अनुभव और लिया... चट्टानों, पानी, हवा और सूरज की किरणों की जुगलबंदी का अद्भुत यादगार अनुभव....।


शाम लगभग पांच बजे तक हमारी मुक्तेश्वर यात्रा पूरी हो चुकी थी। हम वापस रिज़ोर्ट पहुंच चुके थे।
केवल एक या दो दिन की योजना बनाकर आप भी यहां आ सकते हैं और यहां कदम-कदम पर प्रकृति से साक्षात्कार का मौका पा सकते हैं। यहां कोई बाज़ार नहीं जहां रुककर आप अपने खरीददारी की इच्छा को पूरी कर सकें, और ना ही कहीं भी दिखावट की ज़रा सी भी झलक...... मुक्तेश्वर में अगर कुछ है तो बस प्रकृति से समीपता... बेहद समीपता का अहसास और सादगी से भरी मनमोहक सुन्दरता...










Monday, 27 April 2015

"ज़रा सी भी आहट होती है तो लगता है कि फिर से भूकंप आ गया" ... दिल में तबाही की तस्वीरें और जेब में पशुपतिनाथ का प्रसाद लेकर भारत लौटे मदन शर्मा की आपबीती

26 तारीख को रात नेपाल से वापस हिन्दुस्तान पहुंचे मदन शर्मा
25 तारीख की दोपहर लगभग 12 बजे का समय था। मैं और मेरे भाई साहब पशुपतिनाथ मंदिर और बागमती नदी के दर्शन करने के बाद पास की ही छोटी सी पहाड़ी के दूसरे तरफ बसे पार्वती मंदिर को देखने जाने के लिए पहाड़ी चढ़ रहे थे। मौसम गर्म था लेकिन तेज़ ठंडी हवाएं भी चल रही थीं। हम उस पहाड़ी के रास्ते में जगह जगह दिखने वाले बंदरों को देखते हुए धीरे-धीरे चल रहे थे कि अचानक धरती डोल उठी..। पहला झटका ज़बरदस्त था, हम पहाड़ी से गिरते-गिरते बचे। अभी संभल भी नहीं पाए थे कि दूसरा झटका लगा..। पहाड़ी अचानक से कांपने लगी, पहले तो समझ नहीं आया क्या हुआ, लेकिन फिर एक के बाद एक झटके खाने के बाद समझ आ गया कि भूकंप आया है...। कुछ देर पहले तक जहां शांति का आलम दिख रहा था अचानक दहशत फैल गई.। पहाड़ी का रास्ता चढ़ते लोग एक दूसरे का हाथ पकड़ कर डरे सहमे से खड़े हो गए थे। मैंने भी भाईसाहब को कस कर पकड़ लिया और धीरे-धीरे हम नीचे बैठ गए। आस-पास के बंदरों तक में डर का माहौल दिख रहा था, पहाड़ी के लगभग सारे बंदर एक जगह इकट्ठे हो गए थे। नीचे से शोर और दीवारें टूटने के धमाकों की आवाज़ें आ रही थीं। सब लोगों के बीच डर का माहौल था। पहाड़ीं पर जगह-जगह चाय नाश्ते और दूसरे सामानों की छोटी-छोटी दुकानें खोले बैठे दुकानदार, महिलाएं सभी डरकर दुकानों से बाहर आ गए थे और नीचे शहर में हर झटके के साथ आती बरबादी का मंज़र देख रहे थे...। लोगों की चीख-ओ-पुकार की आवाज़ें, रह-रह कर पहाड़ी का डोलना.., लगातार झटके आना..और खुद को बचाने की जद्दोजहद.. लगभग डेढ़ घंटे तक यहीं सब चलता रहा। हममें से कोई भी डर के मारे ना तो पहाड़ी से ऊपर जा रहा था और ना ही नीचे उतर रहा था। क्योंकि यहां से शहर में तबाही का आलम साफ नज़र आ रहा था, ताश के पत्तों की भांति इमारतें और मंदिर ढह रहे थे। अचानक से ही सामान्य सा माहौल मातम में बदल चुका था।

लगभग डेढ़ घंटे बाद भी पहाड़ी से उतरने की हिम्मत नहीं हुई। पास ही एक चाय-नाश्ते की छोटी सी दुकान थी। मुझे और भाईसाहब के साथ अन्य लोगों को भी बहुत भूख  लग रही थी, सो उस दुकान की मालकिन से पूछा कि क्या उसके पास मैगी है? ... उसने जवाब दिया कि साहब है तो लेकिन दुकान के अंदर जाकर उसे बनाएगा कौन। अगर कहीं फिर भूकम्प आ गया और दुकान गिर गई.. मरने का खतरा था। उसकी बात सही थी इसलिए हम कुछ नहीं बोले। फिर कुछ देर बाद वो महिला खुद ही बोली कि आप लोगों के लिए चाय बना देती हूं लेकिन आप सब लोग रास्ते से सामान हटा दीजिए जिससे अगर कोई झटका लगे तो मैं फौरन भागकर बाहर आ जाऊंगी। उस समय वो महिला चाय पैसे कमाने के लिए नहीं, बल्कि हमारी परेशानी और भूख को देखते हुए बनाने के लिए तैयार हुई थी। चाय बनी, हम सबने पी.. और इस दौरान रह-रहकर भूकंप के झटके आते रहे।



शाम चार बजे के लगभग हम लोगों ने आखिरकार पहाड़ी से उतरकर अपने होटल में पहुंचने का मन बनाया। हिम्मत जवाब दे चुकी थी, लेकिन इसके अलावा और कोई चारा नहीं दिख रहा था। सामान लेने और वापस भारत लौटने की सूरत तलाशने के लिए होटल पहुंचना ज़रूरी था। हम लोग जब नीचे उतरे तो हर तरफ खौलनाक तबाही का मंजर था। सड़के फट गईं थीं, मकान, इमारतें और मंदिर मलबे में तब्दील हो गए थे और उस मलबे से लगातार चीख-पुकार की आवाज़े आ रही थीं। उनके नीचे लोग फंसे हुए थे और बहुत से स्थानीय निवासी उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे थे। किसी तरह होटल तक पहुंचे, तब तक बीच-बीच में भी भूकंप के झटके आते रहे थे। उस समय तो ऐसा लग रहा था कि कहीं अगला पल हमारा आखिरी पल ना हो। होटल को भी थोड़ा नुकसान पहुंचा था। जब हम वहां पहुंचे तो होटल मैनेजर हमें वहां से निकालकर दूसरे मज़बूत होटल में पहुंचाने का इंतज़ाम कर चुका था। हम लोगों को पास के ही दूसरे मज़बूत होटल ले जाया गया। वहां खाने का तो कोई इंतज़ाम नहीं था, अधिकतर बैरे, कुक वगैरह भूकंप आने की वजह से अपने घरवालों के पास गांवों में चले गए थे। जो घर से नाश्ता ले गए थे, उसी को खाकर किसी तरह भूख शांत की। लोग होटल की लॉबी में चल रहे टीवी पर खबरें सुन रहे थे। रात में हममें से कोई भी नहीं सो सका था, पूरी रात झटके आते रहे, हर झटके के बाद लोग भागकर सड़क पर आ जाते थे। वहां के स्थानीय लोग तो सड़कों पर ही चादर बिछाकर सो रहे थे।

किसी तरह राम-राम करके रात बीती। उस रात कोई भी नहीं सोया था। हमारी तरह और पर्यटकों को भी अब घर जाने की जल्दी थी। घर के फोन भी लगातार पहुंच रहे थे और मेरी पत्नी-बच्चे सभी जल्दी से जल्दी वापस भारत लौट आने को कह रहे थे। जल्दी हमें भी थी। लेकिन हमारी फ्लाइट दो दिन बाद की थी। और अब यहां रुकना हमारे मन में नहीं था। 26 तारीख की सुबह ही मैंने अपने एक रिश्तेदार से संपर्क किया जो काफी ऊंची पोस्ट पर थे और उन से बात करके उसी दिन दोपहर सवा दो बजे वाली एयर इंडिया की भारत वापसी की फ्लाइट में अपने लिए और अपने भाई साहब के लिए सीटें बुक कीं। हमें एक सीट 32,000 रुपए की पड़ी थी, लेकिन हमें इस बात का सुकून था, कि भारत वापसी की राह दिख रही थी। न्यूज़ चैनल्स पर खबरें सुनकर यह भी पता चल चुका था कि भारतीय रेस्क्यु विमान वहां दवाईयां, खाना और राहत सामग्री लेकर पहुंच चुके हैं। बस एयरपोर्ट जाने की तैयारी ही कर रहे थे कि हमें यह खबर मिली कि भूकंप के कारण रनवे पर भी क्रैक आ गया था जिसके कारण एयर इंडिया ने अपनी फ्लाइट कैंसिल कर दी थी।
नेपाल की धरती बार-बार डोल रही थी और साथ ही आई इस खबर ने मायूसी के बादल घने कर दिए थे। लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। हमारी तरह और भी देशों के पर्यटक वापस पहुंचने का रास्ता तलाश रहे थे। हम लोगों ने योजना बनाई कि किसी तरह अगर हम सोनोली बॉर्डर तक पहुंच जाएं तो वहां से सड़क मार्ग द्वारा बस से हिन्दुस्तान पहुंचा जा सकता है। अपना सामान लेकर बाहर निकले.. टैक्सी वालों से बात की, लेकिन कोई भी टैक्सी वाला वहां जाने को तैयार नहीं था। बहुत लोगों से बात करने के बाद, आखिरकार एक टैक्सी वाला आठ हज़ार रुपए में हमें सोनोली बॉर्डर छोड़ने को तैयार हुआ। लेकिन इस शर्त पर कि हमें ले जाने से पहले वो अपने परिवार से जाकर मिलेगा और अगर परिवार की हामी होती है तभी वो हमें छोड़ने जाएगा। टैक्सी वाला अपने परिवार से मिलने गया और उसके परिवार ने उसे हमारे साथ जाने की इजाज़त नहीं दी।

हमारे सारे रास्ते फिर से बंद हो गए थे। हमने भारतीय दूतावास जाने की सोची, लेकिन काफी लोग बता रहे थए कि वहां से कोई मदद नहीं मिल पा रही है। अब केवल भारतीय सेना से ही मदद की उम्मीद बची थी। टीवी पर लगातार खबरें आ रही थीं कि भारतीय सेना के विमान लगातार नेपाल पहुंच रहे हैं। हमारे पास सुबह बुक कराई हुई एयर इंडिया की फ्लाइट के बोर्डिंग पास थे। तो बस उन्हें लेकर एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े। पर मुश्किल अभी खत्म नहीं हुई थी। एयरपोर्ट जाने के लिए भी कोई भी टैक्सी वाला तैयार नहीं था। बहुत मुश्किल से 1000 रुपए में एक टैक्सी वाला जाने को तैयार हुआ। होटल से मात्र 20 मिनट की दूरी वाले त्रिभुवन एयरपोर्ट पर हम ढाई घंटे में पहुंचे। क्योंकि टैक्सी जिस भी रास्ते से निकलती, वो बंद मिलता, कहीं टूटी इमारतों का मलबा था, तो कहीं टैंट लगे थे और कहीं खुद स्थानीय लोग ने अपना अस्थायी निवास बनाया हुआ था, और कहीं रेस्क्यू ऑपरेशन चल रहा था। इसी दौरान एक बार और ज़बरदस्त झटका लग चुका था। धरती अब भी रह-रह कर डोल रही थी। कई जगह से घुमाने के बाद आखिरकार 3 बजे के लगभग टैक्सी वाले ने हमें एयरपोर्ट पहुंचाया।

त्रिभुवन एयरपोर्ट ठसाठस भरा हुआ था। इंच भर भी जगह नहीं दिख रही थी। एयरपोर्ट पर 15 से 20000 लोग मौजूद थे। किसी तरह से हम धक्का मुक्की करके अंदर पहुंचे तो जान में जान आई। सामने इंडियन एयरफोर्स ने टैंट लगा रखे थे। लगातार लोगों को दवाईयां, गर्म कपड़े, खाने के पैकेट वगैरह बांटे जा रहे थे। पता चला कि हर घंटे भारत का एक विमान वहां राहत सामग्री लेकर पहुंच रहा था और वापसी में भारतीयों को ले जा रहा था। हमारे एयरफोर्स के फौजी भाई सारे लोगों की हर संभव सहायता कर रहे थे। भारतीय विमानों के अलावा चीन के विमान भी लगातार आ रहे थे। दो दिन से भूखे लोग एयरफोर्स से मिला खाना खाकर बहुत सुकून में थे। एक बार तो खाने को लेकर भगदड़ भी मच गईं। लोगों ने अपने परिवार वालों के लिए खाने के पैकेट लूट लिए। लेकिन भीड़ और लोगों की परेशानी का मज़ंर देख कर एयरफोर्स के फौजी उनको बिना कुछ कहे उनकी मदद की कोशिश कर रहे थे।

बहुत सारे लोग रनवे के पास जमा थे और जैसे ही कोई प्लेन उड़ने के लिए तैयार होता, लोग दौड़कर रनवे पर पहुंच जाते कि पहले उन्हें चढ़ा लिया जाए।  बहुत से भारतीयों का वहां मौजूद दूतावास के लोगों से झगड़ा भी हुआ क्योंकि वो उन लोगों को अंदर नहीं जाने दे रहे थे जिनके पास बोर्डिंग पासेस नहीं थे। आखिरकार एक बुज़ुर्गवार ने पीएमओ फोन करने की धमकी दी और कहां कि अगर उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया गया और उस प्लेन में नहीं चढ़ने दिया गया जो कि सरकार की तरफ से भारतीयों को बचाने के लिए भेजा गया है तो वो इसके खिलाफ शिकायत करेंगे। किसी तरह मामला सुलझा और फिर सभी भारतीयों के नाम लिख लिखकर उन्हें कतार में खड़ा किया जाने लगा।

मेरा नंबर लगभग ढाईसौवां रहा होगा और मेरे भाई साहब मुझसे और थोड़ा पीछे थे। इतवार की उस शाम उस कतार में लगने के बाद पहली बार मुझे दिल से सुकून का अहसास हुआ। एयरपोर्ट पर मुस्तैद भारतीय एयरफोर्स के जवानों को डटा देखकर, हर घंटे पहुंच रहे भारतीय विमान को देखने के बाद और मोदी जी के नाम का बोलबाला महसूस करने के बाद, दो दिन में पहली बार मुझे विश्वास हुआ कि मैं सलामत अपने घर पहुंच जाऊंगा।

6 बजे के लगभग एयरफोर्स का मालवाहक जहाज दवाईयां और खाद्य सामग्री लेकर रनवे पर आया। पहले उसे खाली किया गया और फिर हमें उसमें चढ़ाया गया। उस मालवाहक जहाज में एयरबस की तरह सीटें नहीं थीं। औरतों और बुज़ुर्गों को साइड में सामान रखने की सीटों पर बिठाया गया और बाकी लोगों को विमान में अंदर नीचे बिठा दिया गया। एयरफोर्स के जवान बार-बार आग्रह कर रहे थे कि जितने ज्यादा से ज्यादा लोग विमान में आ सकते हैं आ जाएं। बस किसी तरह विमान में बैठ जाएं तो हम आपको सकुशल भारत ले जाएंगे। लगभग साढ़े चार सौ भारतीय उस मालवाहक विमान में टिक गए और रात आठ बजे जब उस विमान ने उड़ान भरी, हमनें नेपाल की धरती से विदा ली और अपने देश लौट चले। इस वापसी की यात्रा के दौरान लोगों के चेहरों पर जो सुकून और खुशी का आलम था वो बयान से परे हैं। केवल हम बचने वाले ही नहीं, हमें बचाने वाले एयरफोर्स के जवानों के चेहरे भी खुशी और संतोष से दमक रहे थे। मैं तेईस तारीख की रात को यहां नेपाल घूमने के लिए भाई साहब के साथ पहुंचा था। दो दिन की भगदड़, बदहवासी के बाद अब जोड़ रहा था कि इस यात्रा के दौरान क्या खोया क्या पाया...। मोबाइल के कैमरे में तबाही के मंजर कैद थे, अटैजी में पशुपतिनाथ मंदिर का प्रसाद., .बगल में भाई साहब थे, दिमाग में प्रकृति के इस क्रोध की तस्वीरें और दिल में घर लौटने की खुशी...।  दस बजे हमारे विमान ने दिल्ली लैंड किया और हम उस जलजले से निकलकर सकुशल अपनी भारत की धरती पर लौट आए।
(नेपाल से बचा कर लाए गए गाज़ियाबाद निवासी श्री मदन शर्मा से बातचीत पर आधारित)


Sunday, 19 April 2015

खुशरंग-ए-फितरत



रंग-ए-ईमानदारी
वक्त- अप्रेल 2004 का कोई दिन, सुबह लगभग नौ बजे का वक्त, नोएडा सेक्टर 8

खट खट (दरवाज़ा खुला)
 नमस्ते अंकल जी,
नमस्ते बेटा, मैंने पहचाना नहीं,
पहली लड़की- अंकल यह आपका बल्ब है, आपके घर के बाहर लगा हुआ था... हम यहीं पास में किराए पर रहते हैं।
दूसरी लड़की-  अंकल एक्चुली कल रात को ग्यारह बजे के लगभग जब लाइट फ्लक्चुएट कर रही थी ना, तब हमारे कमरे का बल्ब फ्यूज़ हो गया था। दूसरा बल्ब था नहीं हमारे पास। हम नीचे देखने भी आए थे कि कोई दुकान खुली हो तो..। लेकिन कोई दुकान नहीं खुली थी, तो आपके घर के बाहर लगा बल्ब दिख गया और हम इसे उतार कर ले गए।

पहली लड़़की- अब हमारा काम हो गया अंकल, हमने नया बल्ब खरीद लिया है, इसलिए आपका बल्ब वापस करने आए हैं।
(और बल्ब वापिस करके स्वाभिमान से भरी दोनों लड़कियां अपने कमरे को लौट चली, पीछे अंकल को भौचक छोड़..)
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रंग-ए-उसूल
वक्त- फरवरी 2002 का कोई दिन, सेंट्रल जेल, भोपाल से होकर अखबार के दफ्तर में पहुंचना

सर- तुमने जेल की लेडी वॉर्डन से बातों-बातों में कुछ पूछा इस बारे में कि जेल में क्या होता है?
लड़की- जी सर, वो लड़की नई नई वॉर्डन बनी है, उसे अभी ज्यादा कुछ पता नहीं है, लेकिन फिर भी उससे मेरी दोस्ती हो गई और उसने मुझे काफी सारी बातें बताई जो कि जेल में होती हैं।

सर- तो उस पर रिपोर्ट तैयार करों।
लड़की- रिपोर्ट, मतलब सर?
सर- अरे उस लड़की ने जो बातें बताईं, उन सबको लिखकर एक बढ़िया रिपोर्ट तैयार करों, कल के पेपर में छापेंगे।
लड़की- नहीं सर, उसने मुझे दोस्त समझकर सारी बातें बताईं हैं, मुझे अपने घर ले जाकर चाय-नाश्ता कराया,  मैं उसे धोखा नहीं दे सकती।
सर- (मुस्कुराते हुए), अरे पागल लड़की, यह धोखा नहीं है, अखबार में अनऑफिशियल सोर्सेज से रिपोर्टिंग ऐसे ही की जाती है..।
लड़की- की जाती होगी सर, मैं ऐसा नहीं करूंगी। जेलर ने मुझे उससे मिलवाया था, हमारे पेपर का नाम भी उसे मालूम है, अब अगर हमारे पेपर में वो सारी बातें छपेंगी तो जेलर को समझ आ जाएगा कि ......... ने ही बताई होंगी। फिर बेकार में उसके लिए परेशानी नहीं होगी,,? और फिर मेरी और उसकी दोस्ती खराब हो जाएगी, मैं ऐसा नहीं कर सकती।
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रंग-ए-बेफिक्री

वक्त- साल 1996 के किसी महीने का कोई दिन, स्वामीबाग, आगरा का गेट

दो लड़कियों की गेट से निकलती साइकिलें, अचानक से एक लड़की की साइकिल फिसली और वो साइकिल समेत गिर पड़ी और फिर उससे टकराकर दूसरी भी गिर पड़ी...

साइकिलें सड़क पर पड़ी छोड़ दोनों लड़कियां उठ कर ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी, पेट पकड़कर...वहीं साइकिलों के पास पलोथी मार कर बैठ गईं और हंसने लगी...., अपने गिरने पर खुद पर ही हंस रही थी दोनों।

गेट का चौकीदार आया, और एक लड़की के कंधे को हिलाते हुए बोला... बेटा, साइकिल उठा लो और साइड में बैठ कर हंस लो, तुम लोगों की वजह से ट्रेफिक रुक रहा है...।

दोनों लड़कियों ने घूम कर देखा... गेट के दोनों तरफ स्कूटर, साइकिल और मोपेड पर लोग रुके हुए थे और बीच में पड़ी साइकिलों और उनके पास ज़मीन में बैठी हंसती हुई लड़कियों को घूर रहे थे...।

लड़कियां सॉरी- सॉरी बोलती हुई उठी, साइकिलें उठाई, उन्हें लेकर साइड में आईं, स्टैंड पर लगाया और फिर... दोनों का हंसना फिर चालू....।
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रंग-ए- दोस्ती


वक्त- साल 1995 के किसी महीने का कोई दिन, दोपहर का समय, कमलानगर, आगरा

साइकिलों पर जाती तीन सहेलियां, उनमें से एक टॉम ब्यॉय

टॉम ब्यॉय लड़की सामने से आते सिलेंडर वाले से टकराई.., दोनों की साइकिलें गिर पड़ी,
गुस्से में भन्नाते सिलेंडर वाले ने टॉम ब्यॉय लड़की को कॉलर पकड़कर उठाया और बोला, साले साइकिल चलानी नहीं आती तो चलाता क्यों हैं...?
टॉम ब्यॉय लड़की ने कॉलर पर से सिलेंडर वाले के हाथ हटाए और बोली, भाई साहब आपको लड़कियों से बात करने की तमीज़ नहीं है....?

सिलेंडर वाले को सांप सूंघ गया, हैरानी से टॉम ब्यॉय लड़की को देखते हुए पीछे हुआ, अपनी साइकिल छोड़ उसकी साइकिल उठाई और उसे पकड़ाते हुए बोला,  साइकिल देख के चलाया करो बहनजी...।

टॉम ब्यॉय लड़की ने सिलेंडर वाले को घूरते हुए उससे साइकिल लीं और अपनी दोनों सहेलियों के पास पहुंची जो अभी भी दूर खड़ी हंस रहीं थीं...। सिलेंडर वाला अभी भी उस लड़की को हैरानी से देख रहा था....।

पास पहुंचकर टॉम ब्यॉय लड़की ने अपनी हंसती हुई सहेलियों से पूछा.., तुम लोगों को शरम नहीं आती, तुम्हारी दोस्त वहां गिर गई, एक आदमी उससे बदतमीज़ी कर रहा है, और तुम यहां खड़े होकर हंस रही हो..।

एक सहेली का जवाब- क्यों तुझे ही बड़ा लड़का बनने का शौक है ना, तुझे हमारी ज़रूरत कहां से पड़ गई।
दूसरी सहेली- और बेटा वैसे तो बड़ा लड़का जैसा बन कर घूमती है, आज लड़ाई हुई तो अपना लड़की होना याद आ गया...।
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Tuesday, 13 January 2015

जीवनदायी उपासना के तीन पर्व



भारत त्यौहारों का देश है, जहां हर मौसम खुशियों का त्यौहार लेकर आता है। यहां के अधिकांश पर्व ऋतुओं, धरती और सौर मंडल के परिवर्तन से जुड़े होते हैं- चाहे वो लोहड़ी हो, मकर संक्रांति हो या फिर पोंगल.. सबके पीछे छिपी है एक परंपरा, एक आस्था और खुशहाली, हरियाली, धन-धान्य, पूजा-पाठ और एक दूसरे से मिल कर खुशियां बांटने की चाह। नए वर्ष के आगमन के साथ ही चले आते हैं उत्तर भारत के मकर संक्रांति, पंजाब की लोहड़ी और दक्षिण भारत के पोंगल जैसे त्यौहार और इनके साथ ही गुजरात और राजस्थान का पूरा आसमान रंग जाता है रंग-बिंरगी, बलखाती, पेंच लड़ाती पतंगों से।

क्या आप जानते हैं इन त्यौहारों, इन परंपराओं की वजह और ज़रूरत...? हम अापको बताते हैं। दरअसल अलग अलग रूपों में, देश के अलग अलग हिस्सों में मनाए जाने वाले ये जीवनदायी पंचतत्वों को पूजने के त्यौहार हैं।  लोहड़ी का त्यौहार जहां अग्नि तत्व की आराधना से जुड़ा है तो मकर संक्रांति पर सूर्य उत्तरायण होते हैं और उनकी उपासना की जाती है। वहीं पोंगल धरती मां की वंदना का पर्व है।

लोहड़ी का त्यौहार

लोहड़ी को आपसी भाईचारे और प्रेम की मिसाल कायम करने वाला त्यौहार भी माना जाता है। इस दिन उत्सव के समय जलाई जाने वाली लकड़ियों को इकट्ठा करने के लिए बच्चे बहुत पहले से जुट जाते हैं और मोहल्ले में घर घर जाकर लकड़ियां और उपले मांगकर लाते हैं। रात को अलाव जलाकर उसके चारों तरफ परिक्रमा करते हैं.. गिद्धा और भांगड़ा करते हैं और इसके बाद प्रसाद के रूप में बांटी जाती हैं मूंगफली, रेवड़ी और गजक।

मकर संक्रांति पर्व

14 जनवरी को अत्यंत श्रद्धा से मनाया जाता है मकर संक्रांति। इस दिन से सूरत क्षितिज से ऊपर जाने लगता है यानि दक्षिण से उत्तर की तरफ जाने लगता है। सूर्य के उत्तरायण होने से सौर ऊर्जा ज्यादा मात्रा में धरती तक पहुंचती है। कहते हैं इस दिन स्वर्ग का द्वार खुलता है। इस दिन से रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं।हेमन्त ऋतु  खत्म होती है और शिशिर ऋतु की शुरूआत हो जाती है। इस दिन श्राद्ध कर्म और तीर्थ स्थान जाना बेहद फलदायी माना जाता है।  इस दिन तिलकुट और खिचड़ी का भोग लगाकर बायना मिन्सा जाता है और संक्रांति के दिन दान-पुण्य का भी खासा महत्व है।

पोंगल उत्सव



पश्चिम बंगाल में वंदमाता और दक्षिण भारत में पोंगल के नाम से यह त्यौहार चार दिनों तक मनाया जाता है। यहां इन दिनों धरती माता के साथ शिव,गणेश, सूर्य व इन्द्र देवता की पूजा की जाती है। पहला दिन भोगी कहलाता है जिसमें लोग घर साफ करते हैं। दूसरे दिन महिलाएं चावल के आटे व फूलों से रंगोली बनाती हैं जिसे कोलम कहते हैं। कोलम के बीचों-बीच शुद्ध गाय का गोबर रखकर इस कद्दू के फूल की पांच पत्तियां रखी जाती हैं। इसे संस्कृति रथ कहते हैं। यह बेहतरीन उपज का परिचायक है। अदरक, हल्दी, चावल, गन्ना, दाल आदि से सूर्य भगवान की पूजा की जाती है। इस प्रसाद के रूप में पायसम बनाया जाता है।

इन सभी त्यौहारों से जुड़ी है रोचक पौराणिक कथाएं

 सुंदर मंदरीए हो,
तेरा कौन विचारा हो, 
दुल्ला भट्टी वाला हो, 
दुल्ले घी ब्याही हो...
लोहड़ी के इस प्रमुख गीत से जुड़ी है संबंध सुंदरी नामक कन्या और दुल्ला भट्टी नामक डाकू की कथा। इस कथानुसार गंजीबार क्षेत्र में एक ब्राह्मण की खूबसूरत कन्या थी संबंध सुंदरी, जिसे वहां का राजा अपने हरम की शोभा बनाना चाहता था। तब संबंध सुंदरी की रक्षा जंगल के एक डाकू दुल्ला भट्टी ने की थी। उसने एक योग्य ब्राह्मण लड़के की तलाश करके उसी वक्त सुंदरी की शादी कर दी। यहीं नहीं, सुंदरी को अपनी बेटी मानकर दुल्ला भट्टी ने तिल व शक्कर  देकर उसका कन्यादान भी किया। जब राजा की सेना इसके विरोध में दुल्ला भट्टी से युद्ध करने पहुंची तो दुल्ला भट्टी और उसके साथियों ने बहादुरी से लड़ाई की और राजा की सेना को भगा दिया। तभी से लोग अलाव जलाकर और उसके इर्द गिर्द भंगड़ा पा के लोहड़ी मनाने लगे।

मकर संक्रांति पर्व को लेकर भी महाभारत काल की एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि अर्जुन के तीरों की शर-शैया पर लेटे भीष्म पितामह ने अपनी मृत्यु को 14 जनवरी तक रोके रखा। और इस दिन जब सूर्य उत्तरायण हो गए तब उन्होंने अपने प्राण छोड़े।

इसी तरह पोंगल त्यौहार के लिए शिव और नंदी की कथा कही जाती है। एक दफा भगवान शिव ने नंदी को पृथ्वी के लोगों को यह कहने के लिए भेजा कि वे इस माह में एक बार भोजन करें और प्रतिदिन तेल से स्नान करें। नंदी भूल से उल्टा संदेश दे आए। तब भगवान शिव ने नंदी से कहा कि इस उल्टे संदेश के कारण  अब लोगों को अधिक अन्न की ज़रूरत पड़ेगी इसलिए अब से तुम्हें अनाज पैदा करने के लिए उनके खेतों में हल जोतना पड़ेगा। बस तभी से बैल खेत में हल जोतने लगे और पोंगल त्यौहार मनाने की प्रथा चल निकली।

पतंगोत्सव

इन सारी परंपराओं के अलावा पतंगोत्सव की परंपरा भी राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा आदि राज्यों में प्रचलित है। सुबह से शाम तक आकाश रंग-बिरंगी पतंगों से ढका रहता है। खूब पतंग प्रतियोगिताएं आयोजिक की जाती है और पेंच ल़ड़ाए जाते हैं।

Monday, 12 January 2015

गुज़र गया 2014... 2015 को बस अभी लोहड़ी लगी है.. !

ज़रा याद करें एक साल पहले 31 दिसम्बर 2013 का दिन, जब हमेशा की तरह सभी को इंतज़ार था, नव वर्ष के आगमन का और एक पूरे साल की विदाई का... जैसे जैसे घड़ी की सुईयां रफ्तार पकड़ रही थीं, दिन बीत रहे थे, सभी की बैचेनी बढ़ती जा रही थी..., और फिर शुरू हुआ काउंटडाउन... 10, 9... 6..4..2..1... और फिर जैसे ही घड़ी की सुई ने 12 बजने का ऐलान किया, 2013 ने अलविदा कहा और समय के गर्भ से 2014 कूदता हुआ सबके बीच आ पहुंचा.. लाल, लाल, रूई के फाहे जैसे कोहरे में लिपटा, बिल्कुल एक नए नवजात शिशु की तरह... किलकारी मारता, पुलकित होता...।
चारों तरफ खुशियां मन रही थीं। कहीं मिठाईयां बंटी तो कहीं जबरदस्त डांस पार्टी चली, रेस्ट्रोन्ट फुल रहे, ऑर्डर लेते लेते सांस लेने की फुरसत नहीं थी। 2014 का स्वागत करने वालों में युवा वर्ग सबसे आगे था। जोश से भरा यह वर्ग पूरी आतुर था नए साल के स्वागत को। कहीं जाम छलक रहे थे तो कहीं डिस्को-डांस की मस्ती। कहीं पार्टियों की रौनक थी तो कहीं आतिशबाज़ी का धूम- धड़ाका... मस्ती.., मस्ती... और बस मस्ती...।

2014 भी अपने इन चाहने वालों को देखकर झूम उठा। सोच लिया कि ताउम्र इन युवाओं को खुश रखकर गुज़ारेगा और साथ ही इनकी एक-एक गतिविधि पर नज़र भी रखेगा। नए साल ने देखा, एक समूह की बातें चल रही थीं.. " यार मज़ा आ गया, फिर से एक और साल, अब सबकी बर्थडे फिर से आएगी, खूब सारी ट्रीट मिलेगी और फिर से नए त्यौहार आएंगे, एक और साल देख लिया हमने...इस बहाने मस्ती और पार्टी भी हो गई... गज़ब... याहूं...।
नया साल हंस पड़ा।  तो इसलिए खुश हैं यह युवा..। कुछ ने तो इसके आगमन की खुशी में संकल्प भी ले डाले थे। एमएससी की सीमा ने पूरे साल पढ़ने का संकल्प लिया और बी कॉम की रागिनी ने रोज़ सुबह योगा करने की कसम खाई..., राहुल ने साल भर झूठ ना बोलने का संकल्प ले लिया और माधुरी जी ने अपने घरेलू नौकर को बात-बात पर नहीं डांटने का प्रण कर लिया था... 2014 चुपचाप सब सुन रहा था, देख रहा था और गुन भी रहा था।
शिशु अभी जनवरी में चल रहा था, पर तेज़ी से बढ़ रहा था। सारे लोग भी नए वर्ष के बचपन का आनंद रजाई और गद्दों में बैठ कर, मूंगफली और चिक्की खाकर उठा रहे थे। लोहड़ी पर अलाव जलाकर खूब नाच-गाना हुआ और मकर संक्रांति पर सूर्य महाराज के उत्तरायण होने के मौके पर खूब पतंगबाज़ी हुई और खोए-तिल के लड्डू खाए गए।
नव वर्ष को फरवरी लग गई... अब वो रजाई से निकलकर धीरे-धीरे पैरों चलने लगा था। खूब जल्दी बढ़ रहा था 2014 और उतनी ही जल्दी बढ़ रही थी लोगों की उमंगे। बासंती फरवरी में नववर्ष उनके लिए बासंती वैलेंटाइन डे जो ले आया था। उस दिन खूब उत्साह था खास यूथ वर्ग में।  कॉलेजों में रिकॉर्ड उपस्थिति दर्ज की गई। दुकानों से गुलाबों के ढेर के ढेर खरीदे गए। शहर का कोठियों, फ्लैटों की बालकनियों और कॉलेजों के कॉरीडोर्स में लगे गुलाब के पौधों से रातों-रात गुलाब गायब हो गए। जी भर के प्यार बांटा गया... नववर्ष भी खुश था इन खुशियों को देखकर।
इधर मार्च में 2014 ने किशोरावस्था में कदम रखा और उधर आ गया फागुन का त्योहार। लोगों की एक और पसंद- होली की सौगात ले आया था नव वर्ष...
'ढम ढमा ढम ढम...',  " ये भांग का रंग चढ़ा..., अरे देखो देखो, वो रंग से पुता..., यह तो गया भैया, पानी के टैंक में..., आज बच के कहां जाओगे बच्चू, पीछे भी देख लो ज़रा..., यह पड़ा रंग.., वाह भूत लग रहे हो..." .. हर तरफ उमंगे.., होली की रंगीनियों ने वर्ष को रंगीन शुरूआत दे दी। कुछ युवाओँ ने जी भरकर खेली होली, उनके साथ भी जिनके साथ खेलने का केवल ख्बाव देखा था और यादगार बना लिया 2014 को, वहीं कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्हें रंगों की बरसात के बदले सैंडलों की सौगात हासिल हुई..., बेचारे मन मसोस कर 2014 को कोस रहे थे।

उधर 2014 सोच रहा था, लो.. होली भी हो ली। अप्रैल में यौवन की दहलीज पर कदम रखा 2014 ने और फिर चला पढ़ाई का दौर। फाइनल एक्ज़ाम की तलवार युवाओं, बच्चों और किशोरों सभी के सर पर लटक रही थी, माता-पिताओं के लिए भी परीक्षा का दौर था। 2014 को मई लगी, तो सबके एक्ज़ाम्स भी निबट चुके थे। और सब एक बार फिर जुट गए थे मस्ती का साधन खोजने में..., "यार, मैं तो इस बार कुल्लू-मनाली जाऊंगा,.. हम लोग शिमला जा रहे हैं इन समर हॉलिडेज़ में..., सब एक साथ किसी हिलस्टेशन पर चलें क्यां..? "..प्लान बन रहे थे और ज़ाहिर हैं इनके अनुसार कदम भी उठाए गए और हिल स्टेशनों पर जाकर खूब धमा-चौकड़ी मचाई गई।
जून पसीना बहाते और बिचली का बिल चुकाते निकला और जुलाई में रिजल्ट निकलने के साथ स्कूल-कॉलेज भी खुल गए। आधी उम्र पार कर चुका था 2014 और अब एक अलग ही माहौल देख रहा था। जो जूनियर थे, सीनियर बन गए, और जो सीनियर थे, नौकरी की तलाश में निकल गए.., और जो नए-नए थे, वो रैगिंग के चक्कर में फंस गए।  अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर बस यूहीं कभी शादियां देखते, तो कभी सावन की झड़ी के बीच मस्ताते लोगों को देखते निकल गए। बहुतों को परेशान होते भी देखा...। इस अरसे में बहुत कुछ जाना 2014 ने। अधेड़ावस्था में आया वर्ष तो कितने अनुभवों से भर चुका था उसका मन।
कभी उसे किसी खास वर्ग की चिंता सताती तो  सावन बरस उठता आंखों से, वर्षा की झड़ी लग जाया करती थी। लेकिन यह तो होना ही है, सुख-दुख तो हमेशा ही साथ चलते हैं। अब तो 2014 की उम्र भी ज्यादा नहीं बची थी,तो सोचा क्यों ना जाते जाते एक और खुशी की सौगात लोगों को दे जाऊ...। तो बस अक्टूबर से लगा दिया त्यौहारों का मेला और उम्र के कठिन पड़ाव पर नवम्बर में दीवाली भी ले आया 'नया' साल। दीपों के इस त्यौहार पर चारों तरफ बस दीप जगमगा रहे थे। धूम-धाम, पटाखों की आवाज़ हर तरफ से गूंज रही थी। अमीर भी खुश थे और गरीब भी जिन्हें नववर्ष की इस सौगात पर खूब बख्शीश और त्यौहारी मिली थी।

दिसंबर जो लगा 2014 को तो वो समझ गया कि यह विदाई की घड़ियां हैं। अपनी पूरी उम्र को जो पलट कर देखा तो महसूस हुआ कि यह वहीं लोग हैं जिन्होंने उसके आने की बेहद खुशियां मनाईं थी और अब उसके जाने के इतंजार में बेसब्र हो रहे हैं। उसके आगमन की खुशी में लिए गए संकल्प धूमिल हो चुके थे। साल भर पढ़ने का संकल्प लेने वाली सीमा को पढ़ने का समय ही नहीं मिल पाता था, रागिनी रात में देर तक सोने के कारण कहां सुबह उठ कर योगा के लिए समय निकाल पाती थी, राहुल को एक बार झूठ बोलना पड़ा तो फिर उसने बार-बार बोलने में भी परहेज ना किया और माधुरी जी..., उन्होंने तो लाख चाहा कि नौकर को ना डांटे लेकिन वो नौकर है कि काम ही ऐसा करता है कि डांट निकल ही जाती है मुंह से... ऐसे कितने ही संकल्प टूट कर बिखर चुके थे फिर बनने के लिए।
लेकिन यह तो परंपरा है जो ना जाने कब से चली आ रही है। 2014 के पूर्वज़ो ने निभाई थी, उसे भी निभानी थी। समय के गर्भ से जन्मा था तो मृत्यू भी तय थी। लोग उसे कुछ दें या ना दें, उसे तो जाते-जाते भी खुशियां बांटनी ही थीं। सो चलते चलते, आखिरी सांसे गिनते-गिनते भी ईद और क्रिसमस की सौगात डाल दी लोगों की झोली में उसने।
अब बेहद बूढ़ा हो चला था 2014, रजाई में पड़े पड़े, खटिया पकड़े अंतिम कुछ सांसे गिन रहा था। उसका एक और वंश प्रणेता समय के गर्भ से बाहर आने को तैयार था। कल जो 2013 के साथ हुआ, अब उसके साथ हो रहा था.. लोग फिर तैयार थे उसे विदा देकर नए साल का स्वागत करने को, नए संकल्प लेकर, नई खुशियां लेकर... और आखिर खत्म हुई यह कहानी भी। चला गया 2014 और आ गया 2015 उसकी जगह लेने को... फिर से घूमेगा यह चक्र...2015 को अभी तो बस लोहड़ी लगी है...




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