Wednesday, 28 December 2016

भारत कैश से लैस हुआ तो लुप्त हो जाएंगी यह कलाएं, रीतियां और रस्म-ओ-रिवाज़

मोदी जी का क्या है, बड़ी बेफिक्री से नवम्बर की एक रात नेशनल चैनल पर नुमायां हो गए और जारी कर दिया 500 और 1000 के नोटों के रद्दी हो जाने का ऐलान। पूरा देश सन्न... यह क्या कर गए प्रधानमंत्री जी। कमाल की बात यह है कि पूरा का पूरा 9 नवम्बर का दिन निकल गया, न एक भी विपक्षी दल का बयान आया और ना किसी न्यूज़ एंकर को इस फैसले के विरुद्ध बोलते सुना गया। भई सद्मे से उबरने में वक्त तो लगता है ना...।

लोगों को लगा था कोई नहीं, यह नोट जा रहे हैं तो क्या नए आ जाएंगे, और कुछ दिनों में नए नोटो से वहीं पुराना खेल, पुरानी आदतें शुरू कर देंगे। गृहणियां जिनका सालों का जमा धन एक ऐलान के झटके में निकल गया, सोच रही थीं कि उनकी कला तो ज़िन्दा है, नोट फिर जमा कर लेंगी। लेकिन हाय रे मोदी जी के मन की बात ना जानी उन्होंने..। प्रधानमंत्री जी तो कैश से लैस इकोनॉमी लागू करने की मंशा रखते हैं।

यह तुगलकी फरमान जारी करने से पहले ज़रा सोच तो लिया होता प्रधानमंत्री जी कि जो कैश ही ना रहा तो हिन्दुस्तान की संस्कृति में रची-बसी बहुत सी कलाएं और रस्म-ओ-रिवाज़ तो लुप्त ही हो जाएंगे। आपके तो आगे-पीछे कोई है नहीं, ना ही आपको 'दुनियादारी' निभानी है और ना ही 'व्यावहारिकता' से कोई मतलब है जो दोनों चीज़े ही हिन्दुस्तान में बिना कैश मुमकिन नहीं।  कुछ-एक नए रचनात्मक कारोबारों के बारे में भी सोच लिया होता जो बन्द हो सकते हैं।

आपको क्या मालूम प्रधानमंत्री जी कि यह जो रुपया है ना वो  'लिक्विड मनी' जैसी टर्मिनोलॉजी से कहीं ऊपर की चीज़ है। यह कैश हर भारतीय की दिनचर्या, रस्मो-रिवाज़ों, कलाओं और संस्कृति में बिल्कुल उस तरह रचा-बसा है जैसे कि हर सुबह उठकर ब्रश करने की आदत। और अगर भारतीय कैश से लेस हो जाएंगे तो भारतीयता का रंग भी बदल जाएगा। 

-सबसे खराब असर होगा हिन्दुस्तान की बेहद खर्चीली, शाही शादियों पर जिनकी बहुत सारी रीतें केवल कैश पर ही टिकी हैं। बारातों की  तो रौनक ही चली जाएगी। ना तो मुंह में नोट दबाकर नागिन डांस करने की कला जीवित रहेगी और ना नाचते बारातियों पर नोट लुटाने का मज़ा रह जाएगा। 

लेडीज़ संगीत के दौरान बहुओं पर 500 के नोट वारने वाली बुआएं और चाचियां भूतकाल की बात बन कर रह जाएंगी।

 विदा होकर जा रही बेटी की कार के पीछे सिक्के उछालने की रीत भी कल की बात हो जाएगी। 

बनिया शादियों में एक रीत होती है जबकि फेरों के समय दुल्हन ससुर जी द्वारा बनाई गई एक थैली में से जीजाजी के लिए मुट्ठी भर कर नोट या सिक्के निकालती है, अब उस रस्म के भी विदा होने का समय है। 

सबसे खेद का विषय होगा उन 'वुड बी' दूल्हों के लिए जिन्होंने अपने बड़े भाईयों और रिश्तेदारों को बड़ी उमंग से 100 और 500 के नोटों से बनी मालाएं पहनाईं थी और खुद ऐसी ही माला एक दिन पहनने का अरमान दिल में सजाया था, और अब उनका वो अरमान कभी पूरा नहीं हो पाएगा। 

- लोगों को एक दूसरे को लिफाफे देने की कला भी दम तोड़ देगी। उन कलाकारों का क्या होगा जो बड़ी तफ्सील से शादियों और अन्य समारोहों में देने के लिए सुंदर सजावटी लिफाफे तैयार करते हैं जिनमें रखकर रुपयों का आदान प्रदान हो सके। जब रुपए ही नहीं रहेगें तो सजावटी लिफाफों का कारोबार तो ठप्प समझिए। 

- हर भारतीय की आदतों में शुमार पूजा-पाठ पर भी बहुत असर पड़ने वाला है। अब आरती में चढ़ावे के रूप में चढ़ाने के लिए रुपए नहीं होंगे। नवरात्रों में कन्याएं पूजे जाते वक्त जजमान हाथ में मोबाइल लेकर एक-एक कन्या-लांगुर के पास जाएंगे और सबसे उनके पेटीएम अकाउंट की डीटेल लेते हुए एक-एक करके सब के खातों में 10-10 या बीस-बीस रुपए ट्रांसफर करते जाएंगे और साथ ही हर कन्या को हलवा चने भी पकड़ाते जाएंगे। 

-और ज़रा कल्पना कीजिए भारत के भिखारी कौम के भविष्य की। अब तो उन्हें भीख मांगने के लिए मोबाइल के साथ पेटीएम एकाउन्ट रखना पड़ेगा। क्या नज़ारा होगा वो भी जबकि चौराहों पर छोटे-छोटे बच्चे, दिव्यांग भिखारी और दुधमुंहे बच्चों को कमर में दबाएं महिलाएं आती-जाती कारों के शीशे खटखटाएंगे और हाथ में पकड़े मोबाइल के पेटीएम एकाउन्ट में भीख के पैसे ट्रांसफर करने को कहेंगे। जब मन्दिरों के बाहर बैठे हर भिखारी के हाथ में मोबाइल होगा और वो हर आने जाने वाले से अपने मोबाइल के मोबीक्यू वॉलेट में पैसे ट्रांसफर करने की गुहार करेंगे। 

-शनिवार को डिब्बे में तेल डालकर घूमते बच्चों को भी शनिदेव के लिए पैसे नहीं मनी ट्रांसफर लेकर गुज़ारा करना पड़ेगा। 

-सोना तो पहले ही बैंको के लॉकरों में पहुंच गया है, अब अगर रुपया भी नहीं रहा तो तिजोरियों का कारोबार भी बुरी तरह से प्रभावित होगा। लोग तिजोरियां खरीदना हो छोड़ देंगे या फिर काफी कम कर देंगे। 

यह तो केवल छोटे से उदाहरण भर है लेकिन सच तो यह है कि कैश नहीं रहा तो भारत के त्योहारों और उत्सवों की रौनक भी नहींं रहेगी, ना मंदिरों की, ना डांस बारों की, ना शादियों की, ना जागरणों की। क्या मज़ा ऐसे गणेश उत्सवों और जुलूसों का जहां मूर्तियों पर नोटों की बारिश ना हो। कैसे होंगे वो मंदिर जिनके प्रांगणों से कैश बॉक्स गायब हो जाएंगे। सरकारी दफ्तरों में काम करवाने के लिए फाइलों पर भार रखवाना क्या बन्द हो जाएगा? मायावती कैसे नोटों की माला पहनेगी?... माताजी एवं पिताजी, आप लोग तो खासतौर पर कमर कस लीजिए। बच्चों के जेबखर्च के लिए भी मोबाइल की ज़रूरत आने वाली है..।


Tuesday, 20 December 2016

“कम्पार्टमेन्ट के आखिरी छोर की दीवार के पास शव एक के ऊपर एक लदे पड़े थे। ट्रेन के शौचालय जवान शवों से भरे थे जो सुरक्षित स्थान समझकर वहां छिपे होंगे...” – ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ के अंश…



'ट्रेन टू पाकिस्तान' खुशवंत सिंह द्वारा लिखी गई सबसे ज्यादा प्रसिद्ध किताब मानी जाती है, जिसमें उन्होंने देश विभाजन के समय सीमावर्ती गांवो के लोगों में धीरे-धीरे पनप रहे ज़हर, लोगों की दशा और मनोस्थिति का बेहतरीन और सजीव चित्रण किया है। इस उपन्यास की कहानी संक्षेप में इस प्रकार है-1987 की कहानी है जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन होने वाला है। ऐसे में सीमा पर स्थित एक शांत गांव मनो माजरा, जिसकी पूरी दिनचर्या गांव के स्टेशन से सुबह-शाम और रात में गुजरने वाली ट्रेनों पर आधारित हैं, में अचानक स्थिति बदल जाती है। गांव के निवासियों तक सीमा पार रहने वाले मुस्लिमों द्वारा अन्य धर्मों के लोगों को लूटने, बेइज्जत करने और मारने के किस्से पहुंचने लगते हैं और तनाव बढ़ने लगता है। मामला तब और गंभीर हो जाता है पाकिस्तान से एक मुर्दों की ट्रेन आती हैं जिसमें एक भी व्यक्ति जीवित नहीं होता। सारे हिन्दुओं को सीमापार के मुसलमान मौत के घाट उतार चुके थे। इस हादसे के बाद गांव में लगातार बढ़ते तनाव और बिखरती कानून व्यवस्था से गुस्साए लोग इस बात का बदला लेने के लिए भारत से मुस्लिमों को लेकर पाकिस्तान जा रही एक ट्रेन पर हमला करने की योजना बनाते हैं। यह ट्रेन खचाखच भरी है। छत पर भी लोग सवारी कर रहे हैं। ऐसे में उस पर हमला करने मनो माजरा से सिखों की एक टोली पहुंचती है। लोग हमले की तैयारी करते हैं... लेकिन अंत में मामला बदल जाता है। पढ़िए इस बेहतरीन उपन्यास के कुछ हिस्से..


डकैती

बहुत ज्यादा रेलगाड़ियां मनी माजरा में नहीं रुकती थीं। एक्सप्रेस गाड़ियां तो रुकती ही नहीं थीं। बहुत सी धीमी गति की यात्री रेलगाड़ियों में से केवल दो, एक सुबह में दिल्ली से लाहौर जाने वाली और दूसरी शाम को लाहौर से दिल्ली आने वाली, रेलगाड़ियां ही कुछ मिनटों के लिए रुकती थीं। अन्य गाड़ियां केवल तब रुकती थीं जब उन्हें रोका जाता था। नियमित रुकने वालों में केवला मालगाड़ियां थीं। हांलाकि मनो माजरा से बहुत कम बार सामान बाहर जाता या आता था लेकिन इसके स्टेशन पर वैगन गाड़ियों की लम्बी कतारें देखी जा सकती थीं। हर गुज़रने वाली मालगाड़ी में घंटों तक सामान चढ़ाया और उतारा जाता था। अंधेरा होने के बाद जब पूरे गांव में सन्नाटा छा जाता था, तब भी पूरी रात इंजन की सीटी और धुंआ छोड़ने की आवाजें, सामान रखने की आवाजें और लोहे से लोहा टकराने का शोर पूरी रात सुनाई देता था

कलयुग

सितम्बर की शुरूआत में मनो माजरा की दिनचर्या गलत होनी शुरू हो गई। रेलगाड़ियां पहले से कहीं ज्यादा अव्यवस्थित समय पर आने-जाने लगीं और बहुतों ने तो रात में गुज़रना शुरू कर दिया। कुछ समय तक तो ऐसा लगा जैसे की अलार्म घड़ी गलत घंटे पर बजने लगी है। और बाद के दिनों में ऐसा महसूस होने लगा जैसे किसी को भी इसे बंद करना याद ना रहा हो। इमाम बख्श ने मीत सिंह की तरफ से सुबह की शुरुआत करने का इंतज़ार किया। और मीत सिंह उठने से पहले मुल्ला की प्रार्थना सुनने की प्रतीक्षा करता था। लोग देर में उठने लगे, उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि समय बदल चुका है और मेल ट्रेन अब शायद गुज़रेगी ही नहीं। बच्चे समझते नहीं थे कि उन्हें कब भूख लगनी है और पूरे समय खाने के लिए चिल्लाते रहते थे। शाम में हर कोई सूरज डूबने से पहले घर चला जाता था और एक्सप्रेस ट्रेन के आने से पहले सो जाता था- अगर ट्रेन आएं तो। मालगाड़ियों का आना बिल्कुल बंद हो गया था इसलिए उनको लोरी सुनाकर सुलाने के लिए लोरियां भी नहीं थी। इसकी बजाय, आधी रात और भोर से पहले भूतहा गाड़ियां गुज़रती थीं जो मनो माजरा के सपनो के तोड़ देती थीं। 

नहाने और कपड़े बदलने के बाद हुकुम चन्द को कुछ ताज़गी महसूस हुई। पंखे की हवा ताज़ी और अच्छी थी। वो अपनी आंखों पर हाथ रखकर लेट गया। आंखों के अंधेरे कमरे में पूरे दिन के दृश्य फिर से घूमने शुरू हो गए। उसने अपनी आंखें मलकर उन्हें झटकने की कोशिश की लेकिन दृश्य पहले और काले हुए, फिर और लाल और फिर वापस वैसे ही हो गए। एक आदमी अपने हाथों से अपना पेट पकड़े हुए उसे ऐसी निगाहों से देख रहा था जैसे कह रहा हो- देखो मुझे क्या मिला। वहां एक कोने में घुसे हुए बच्चे और औरतें थीं, उनकी आंखे डर से फैल गईं थीं, उनके मुंह खुले के खुले रह गए थे जैसे अभी उनकी चीख एकदम से गले में अटक कर रह गई हो। कुछ के शरीर पर तो एक खरोंच तक नहीं थी। ट्रेन के डिब्बे के आखिरी छोर की दीवार के पास शव लदे पड़े थे जिनकी आंखें खिड़कियों की तरफ देख रही थीं जहां से शायद गोलियां, भाले या तलवारें आईं होंगी। ट्रेन के शौचालय जवान शवों से भरे पड़े थे जिन्होंने शायद तुलनात्मक रूप से सुरक्षित स्थान ढूंढकर खुद को वहां छिपाया होगा। और वहां सड़ते मांस और मल-मूत्र की बदबू थी। 


मनो माजरा

जब यह पता चला कि पूरी रेलगाड़ी मुर्दों को लेकर आई है, पूरे गांव पर एक भारी सन्नाटा स्थापित हो गया। लोगों ने अपने दरवाजों पर रोक लगानी शुरू कर दी और बहुत से लोग पूरी रात जागकर कानाफूसी करते रहते थे। हर किसी को लगने लगा कि उसका पड़ौसी उसका दुश्मन है। लोगों ने दोस्तों और साथियों को तलाशना शुरू कर दिया। उन्होंने बादलों द्वारा तारों को ढके जाना देखना छोड़ दिया और ठंडी नम हवा की गन्ध का आनंद लेना भी भूल गए। जब वो सुबह उठते थे और देखते थे कि बारिश हो रही है, उनके दिमाग में सबसे पहले ट्रेन और जलते हुए मुर्दों का ख्याल आता था। स्टेशन को देखने के लिए पूरा गांव छत पर चढ़ जाता था

कर्म

तुम्हें मालूम है हिन्दुओं और सिखों के शवों से भरी कितनी गाडियां आ चुकी हैं ? तुम्हें रावलपिंडी, मुल्तान, गुजरेंवाला और शेखूपुरा में हुए नरसंहार के बारे में मालूम है ? तुम इस बारे में क्या कर रहे हो ? तुम बस खाते हो और सोते हो ओर अपने आप को सिख कहते हो, बहादुर सिख, शहीद होने वाले सिक्ख...- उसने अपने दोनों हाथ उठाते हुए कहा ताकि उसका व्यंयग असरदार बन सके। उसने सभी सुन रहे लोगों की आंख में आंख डालकर देखते हुए, उनका परीक्षण किया। लोगों ने शर्म से सिर झुका लिए।
लम्बरदार ने पूछा- हम क्या कर सकते हैं सरदारजी? अगर हमारी सरकार पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध लड़ेगी तो हम लड़ेंगे, यहां मनो माजरा में बैठ कर हम क्या कर सकते हैं?”


ट्रेन टू पाकिस्तान खुशवंत सिंह की बेहतरीन उपन्यासों में से एक है

सरकार... उसने घृणा से कहा,  तुम सरकार के कुछ करने की अपेक्षा रखते हो, वो सरकार जो कायर जमींदारों से भरी पड़ी है। क्या पाकिस्तान के मुसलमानों ने तुम्हारी बहनों को बेइज्जत करने से पहले सरकार की आज्ञा ली थीक्या उन्होंने ट्रेन रोकने और उसमें सवार बच्चे, बूढ़े जवानों और महिलाओं को मारने से पहले सरकार से पूछा थातुम चाहते हो सरकार कुछ करे। वाह, शाबाश.. बहुत बहादुरी की बात..
लेकिन सरदार साहब आप बताओ हम क्या कर सकते हैं?” लम्बरदार ने धीरे से पूछा।
यह बेहतर है, लड़के ने कहा..। अब हम बात कर सकते हैं, सुनो और बहुत ध्यान से सुनो, वो रुका, उसने चारों तरफ देखा और फिर शुरु हुआ। वो अपनी पहली ऊंगली हवा में उठाते हुए, हर एक शब्द पर जोर देते हुए बहुत धीरे-धीरे बोलने लगा… “उनके द्वारा मारे गए हर एक हिन्दु और सिख के लिए दो मुसलमानों को मारो। हर उस महिला के लिए जिसे उन्होंने उठा लिया या बेइज़्जत किया, दो महिलाओं को उठाओ। उन्होंने एक घर लूटा, तुम दो लूटो।  वो अगर एक मुर्दों की ट्रेन भेजते हैं तो हम दो भेजेंगे। वो अगर किसी काफिले पर हमला करते हैं, हम दो काफिलों पर हमला करेंगे। इसी तरह से दूसरी तरफ से हत्याएं रुकेंगी। इसी तरह से उन्हें सबक मिलेगा कि हम भी लूटमार और हत्या का खेल खेलना जानते हैं।



नेता ने अपनी राइफल उठाई और फायर कर दिया। उसका निशाना चूक गया और उस आदमी का पैर रस्सी से बाहर आ गया और हवा में झूलने लगा। दूसरा पैर अभी भी रस्सी में उलझा हुआ था। उसने जल्दी में दूर हटने की कोशिश की। इंजन केवल कुछ यार्ड दूर था और हर सीटी की आवाज़ के साथ हवा में चिंगारी उछल रही थी। किसी ने दूसरा फायर किया। आदमी का शरीर रस्सी से फिसल गया लेकिन वो अपनी थुड्डी और हाथों की सहायता से उस पर लटका रहा। उसने अपने आपको ऊपर खींचा, रस्सी अपनी बांयी बगल के नीचे दबाई और फिर से सीधे हाथ से काटना शुरू कर दिया। रस्सी कई जगह से कट चुकी थी। सिर्फ एक पतला पर मजबूत धागा रह गया था। उसने पहले उसे चाकू से काटने की कोशिश की, फिर दांत से। इंजन उसके पास पहुंच चुका था। एक के बाद एक फायर होने लगे। वो आदमी कांपा और ढेर हो गया। उसके नीचे गिरने के साथ ही रस्सी भी बीच में से टूट गई। ट्रेन उसके ऊपर से निकल गई और पाकिस्तान चली गई"।

Monday, 19 December 2016

क्या आपने बन्ना-बन्नी, लांगुरिया और खेल के गीतों का मज़ा लिया है. लेडीज़ संगीत का मतलब केवल डीजे पर डांस करना नहीं है..



आजकल शादियों में लेडीज़ संगीत के नाम पर जो डीजे लगा दिया जाता है और सब लोग अपनी पसंद के गाने चुन-चुन कर उस पर डांस कर लेते हैं, वो तो संगीत है ही नहीं जनाब। लेडीज़ संगीत का असली मज़ा तो ढोलक की थाप पर सुर लेते बन्ने बन्नी, लागुंरिया, खेल और गालियों से भरे गानों में आता है। यकीन मानिए आप कितने भी अपमार्केट होने का दावा कर लें, पहले से रिहर्सल कर के डीजे के गानों पर डांस कर लें, लेकिन जब तक इन देसी लोकगीतों का मज़ा नहीं लेगें, लेडीज़ संगीत का मज़ा पूरा नहीं होगा। इन गानों में इतना अपनापन है, इतनी आम बोलचाल की भाषा और मज़ेदार छेड़खानियां हैं कि आप एक बार इन्हें सुनेंगे तो वाह-वाही किए बगैर नहीं रह पाएंगे।

इन गानों की खासियत है इनमें सारे नातेदारों और रस्मों को शामिल किया जाना और इनके चुटीले बोल। जैसे कि आपस में गॉसिप करते हुए एक दूसरे से छेड़छाड़ की जा रही हो। शादी के खुशनुमा माहौल में दूल्हा-दुल्हन यानि बन्ना-बन्नी से लेकर, समधी -समधन, चाचियां, मामियां, ताईयां, भाभियां, देवर, देवरानियां, जेठ- जेठानियां.. किसी को भी इन गानों में बख्शा नहीं जाता। सबका तसल्ली से मज़ाक बनाया जाता है, चुहलबाज़ियां की जाती हैं,  लच्छेदार बातों को लपेट लपेट कर, रचनात्मक मुखड़ों के साथ, ढोलक की थाप पर जब रिश्तेदारों को परोसा जाता है तो दिल-दिमाग सब खुश हो जाते हैं। बातें होती हैं मज़ाक की, और मज़ाक मज़ाक में जमकर एक दूसरे की खिंचाई की जाती है। लड़की वाले अपनी बन्नों की तरफदारी करते हुए समधियों की टांग खींचते हैं तो लड़के वाले भी कहीं पीछे नहीं रहते।

एक बानगी देखिए, खास लड़की वालों की तरफ से..

कल रात बन्नी के घर चोरी हुई, इस चोरी में बन्नी का क्या क्या गया..
इस चोरी में बन्नी की सासु गई, चलो अच्छा हुआ घर का कूड़ा गया,
कल रात बन्नी के...
इस चोरी में बन्नी की जिठनी गई, चलो अच्छा हुआ, घर का हिस्सा गया।
कल रात बन्नी के घर...
इस चोरी में बन्नी का देवर गया, चलो अच्छा हुआ घर का लोफर गया।
कल रात बन्नी के..
इस चोरी में बन्नी का जीजा गया, चलो अच्छा हुआ घर का हिटलर गया...।


अब लड़के वालों का क्या जवाब होगा...। वो भी सुन लीजिए..

मोहे तो आवे हिचकी, मेरा दिल तोड़े हिचकी..
.छज्जे छज्जे मैं गई, मुछे मिला कुछ जूस,
मेरे बन्ने को सास मिली है, सब दुनिया में खड़ूस।
मोहे तो आवे हिचकी...
छज्जे छज्जे मैं गई, मुझे मिला जासूस।
मेरे बन्ने को ससुर मिला, सब दुनिया में कंजूस।
मोहे तो आवे हिचकी..
छज्जे छज्जे मैं गई, मुझे मिला एक दाना।
मेरे बन्ने को साला मिला है, सब दुनिया में सयाना।
मोहे तो आवे हिचकी...।
छज्जे छज्जे मैं गई मुझे मिली एक नाली,
मेरे बन्ने को साली मिली है, सब दुनिया में काली...।
मोहे तो आवे हिचकी....

मतलब कमी किसी की तरफ से नहीं रहती। सब मिलकर एक दूसरे का मज़ाक उड़ाते हैं और उड़वाते हैं, बुरा भी कोई नहीं मानता, बल्कि असलियत में ये गाने दो परिवारों को हल्के फुल्के माहौल में एक दूसरे को जानने, पहचानने और जुड़ने का मौका देते हैं।

ऊपर लिखे गाने तो उदाहरण भर हैं, लेकिन इन गानों की फेहरिस्त इतनी लम्बी है और तरबीयत इतनी विविधताओं से भरी हुई किआप हैरान रह जाएंगे। हर रस्म, हर रीत, हर रिश्तेदार से जुड़े गाने मौजूद हैं, फिर चाहे वो मेंहदी की रस्म हो या कंगना खिलाने की, लगुन चढ़कर आई हो या हल्दी लगाई जा रही हो, भात पहनाने की रीत हो या विदाई का समय, सास की टांग खींचनी हो या जेठानी की, नाना ससुर को गालियां देनी हों या फिर खुद दूल्हा या दुल्हन को..।

इन्हें सुनकर आप भी हमारे बुज़ुर्गो को सलाम ठोकेंगे जिन्होंने इन गानों को ईजाद किया और इन्हें अपने दिल की बातों को दूसरों तक पहुंचाने का ज़रिया बनाया। कई बार इन गीतों में आपको कुछ ऐसे शब्द और बातें भी मिल जाएंगे जिन्हें आज के ज़माने में नॉनवेज कहा जाता है। जी हां, अपने बड़ों के अंडरएस्टीमेट बिल्कुल ना करें। हमारे बड़े, बड़े चालू है, जिन्होंने इतनी चतुराई और नफासत से ऐसी-ऐसी बातों को इन गानों में पिरोया है कि किसी को बुरा भी नहीं लगता  और चुटकी काट ली जाती है, वर्जनाएं तोड़ दी जाती हैं, प्रतिबंधित बातें और शब्द बयां कर दिएं जाते हैं और वो भी सबके बीच, सबके सामने।

लोकगीतों के इस अंदाज़ और लोकप्रियता का फायदा बॉलीवुड के गीतकारों और संगीतकारों ने भी जमकर उठाया है। अगर आपको याद हो तो कुछ सालों पहले राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म दिल्ली-6 का एक गाना बड़ा पसंद किया गया था- सास गाली देवे, देवर जी समझा लेवें, ससुराल गेंदा फूल..। गोविंदा और किमी काटकर पर फिल्माया गाना- 'बन्ने से बन्नी जयमाल पर झगड़ी, तू क्यों नहीं लाया रे सोने की तगड़ी...'  हो या फिल्म दुश्मनी का गाना- 'बन्नों तेरी अखियां सुरमेदानी...' यह सारे गीत सीधे-सीधे इन्हीं बन्ना-बन्नियों से उठाकर फिल्मों में डाल दिए गए हैं और लोगों ने हमेशा इन्हें पसंद किया है।


इन गानों के बोलों से साफ झांकती है मिट्टी की महक, परिवार से  जुड़ाव और पीढ़यों से चली आ रही परम्पराएं। एक खासियत यह भी है कि इन गीतों पर थिरकने के लिए किसी प्रेक्टिस की ज़रूरत भी नहीं है। इन गीतों पर तो वो भी नाच सकता है जिसे नाचना नहीं आता, बस पल्लू डाल कर अपना चेहरा पूरा ढक लें, और जैसे चाहें वैसे ठुमके लगाएं..।

तो अबकि बार आप जब किसी लेडीज़ संगीत या शादी समारोह में जाएं तो बजाय डीजे के एक बार अपनी दादी-नानी, चाची, ताई या मामी से उनका गीतों का खज़ाना खोलने की मनुहार करें, ढोलक बजवाएं और इन गीतों का रस ज़रूर लें।


यहां आपके लिए प्रस्तुत हैं कुछ चर्चित बन्ना-बन्नी और लांगुरिया

गाड़ी दो घंटा है लेट, सीट पर सो जा लांगुरिया...
सीट पर सोजा लांगुरिया...नींद तू लेले लागुंरिया.. गाड़ी दो घंटा है लेट...
1-काने से काना मत कहियो, काना जाए रूठ..(2)
ज़रा हौले-हौले बोलियो, ज़रा धीरे-धीरे पूछियो..(2)
अरे कैसे गई तेरी फूट....
गाड़ी दो घंटा है लेट...
2-काले से काला मत कहियो, काला जाए रूठ..(2)
ज़रा हौले-हौले बोलियो, ज़रा धीरे-धीरे पूछियो..(2)
अरे किसने दिया है फूंक...
3-गाड़ी दो घंटा है लेट..
गूंगे से गूंगा मत कहियो, गूंगा जाए रूठ..(2)
ज़रा हौले-हौले बोलियो, ज़रा धीरे-धीरे पूछियो..(2)
बोलना कैसे गया तू भूल...
गाड़ी दो घंटा है लेट....
3-मूरख से मूरख मत कहियो, मूरख जाए रूठ (2)
ज़रा हौले-हौले बोलियो, ज़रा धीरे-धीरे पूछियो..(2)
बुद्धि कैसे हो गई ठूंठ...
गाड़ी दो घंटा है लेट, सीट पर सोजा लांगुरिया..
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लांगुरिया

दो -दो जोगनी के बीच अकेलो लागुंरिया...
अकेलो लागुंरिया, माथा फोड़े लागुंरिया...
बड़ी जोगनी यों कहे, कि पिक्चर देखन जाए...
और छोटी जोगनी यों कहे...बाज़ार घुमा दे मोय
किसकी सुने औ किसकी छोड़े, माथा फोड़े लागुंरिया...
दो दो जोगनी के बीच ...
बड़ी जोगनी यों कहे कपड़े सिलवाने जाएं...
और छोटी जोगनी यों कहे कि हार दिला दे मोय...
किसकी सुने औ किसकी छोड़े, माथा फोड़े लागुंरिया...
दो दो जोगनी के बीच ...
छोटी जोगनी यों कहें बरफी खाने का चाह,
और बड़ी जोगनी यों कहें कि गोलगप्पे खिला दे मोय...
किसकी सुने औ किसकी छोड़े, माथा फोड़े लागुंरिया...
दो दो जोगनी के बीच ...
बड़ी जोगनी यों कहें, मेरे संग चलेगा तू...
और छोटी जोगनी यों कहें, तेरे संग चलूंगी मैं...
किसकी सुने औ किसकी छोड़े, माथा फोड़े लागुंरिया...
दो दो जोगनी के बीच ...
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बन्ना-बन्नी

बन्ना बुलाए, बन्नी ना आए,आजा प्यारी बन्नी रे, अटरिया सूनी पड़ी
मैं कैसे आऊं, ताऊ जी  खड़े हैं, मैं कैसे आऊं चाचा जी खड़े हैं...
पायल मेरी बजनी रे.., अटरिया सूनी नहीं,
पायल को उतार के, पैरों मोजे डाल के, आजा प्यारी बन्नी रे, अटरिया  सूनी पड़ी...
बन्ना बुलाए, बन्नी ना आए,..
मैं कैसे आऊं मामा जी खड़े हैं, मैं कैसे आऊं मौसा जी खड़े हैं..
बैना मेरी बजनी रे, अटरिया सूनी नहीं,
बैने को उतार को, लंबा घूंघट काढ़ के, आजा प्यारी बन्नी रे.., अटरिया सूनी नहीं..
बन्ना बुलाए, बन्नी ना आए,..
मैं कैसे आऊं नाना जी खड़े हैं, मैं कैसे आऊं दादा जी खड़े हैं...
कंगन मेरे बजनी रे, अटरिया सूनी नहीं,
कंगन को उतार के, सर पे चूनर डार के, आजा प्यारी बन्नी रे... अटरिया सूनी पड़ी..
बन्ना बुलाए, बन्नी ना आए,..
मैं कैसे आऊं जीजाजी खड़े हैं, मैं कैसे आऊं भैया जी खड़े हैं...
झुमका मेरा बजनी रे, अटरिया सूनी नहीं
झुमके को उतार के, चुप्पा चुप्पी मार के...
आजा प्यारी बन्नी रे अटरिया सूनी पड़ी....
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खेल का गीत-

रात दिन हो रही है मरम्मत, सूख कर हो गया हूं छुआरा
मेरी बीवी तू जीती मैं हारा...।
बीवी ने मुझसे कचौड़ी मंगाई, कचौड़ी ना लाया तो मारा...
मेरी बीवी तू जीती मैं हारा...रात दिन...
बीवी ने मुझसे कपड़े धुलवाए, कपड़े ना सूखे तो झाड़ा..
मेरी बीवी तू जीती मैं हारा...रात दिन..
बीवी ने मुझसे खाना बनवाया, रोटी जली तो फटकारा..
मेरी बीवी तू जीती मैं हारा...रात दिन..
बीवी ने मुझसे पैर दवबाएं, नींद जो आई तो मारा..
मेरी बीवी तू जीती मैं हारा...रात दिन..

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Friday, 11 November 2016

तस्वीरों में : स्वीमिंग पूल पर छिटकी छठ पर्व की छठा



मन चंगा तो स्वीमिंग पूल में गंगा...। मेट्रो शहरों की आधुनिक सोसाइटियों  के आस-पास ना तो नदियां हैं, ना तालाब और ना ही पोखर... लेकिन अपने राज्य और गांव को छोड़कर यहां बस चुके पूरबनिवासी ज़रूर हैं। यह शायद उनका अपने राज्य, संस्कृति और त्यौहारों से प्यार ही हैं, कि सुविधाओं के अभाव में भी लोग छठ पर्व मनाने और सूर्य भगवान को अर्घ्य देने का साधन ढूंढ ही लेते हैं। कहते हैं ना, जहां चाह, वहां राह...। यह बिहार के रहवासियों का छठ पर्व के प्रति उत्साह ही है कि सोसाइटी के स्वीमिंग पूल को ही पवित्र पोखर का रूप दे दिया गया । छठ पर्व मनाते लोग यहां स्वीमिंग पूल में खड़े होकर अस्ताचलगामी और उदयमान सूर्य को अर्घ्य देते नज़र आए। आप भी इन रंगीन तस्वीरों के ज़रिए स्वीमिंग पूल में मनते छठ उत्सव का नज़ारा लीजिए...  


और स्वीमिंग पूल पर लग गया छठ का मेला

नहाय खाय और खरना के बाद अस्ताचलगामी सूर्य भगवान को अर्घ्य देने पहुंचे भक्त
ढोल-नगाड़े का इंतज़ाम, ताकि पूजा में कोई कमी ना रह जाए


घर के बढ़े-बूढ़ों की कुशल देखरेख में सम्पन्न होती छठ पूजा



मौसमी फलों, केले, दीपक, नारियल, ठेकुएं और अन्य पूजा के सामानों से सजे सूपा


कुछ लोग इस तरह भी सूप सजा कर लाए 

स्वीमिंग पूल के किनारे पूजा की तैयारी पूरी


पूरी श्रद्धा के साथ अर्ध्य देती व्रती महिला





और यहीं गाए गए छठ मैया के गीत 



 बच्चे भी खुश और बड़े भी

अर्ध्य सम्पन्न




 सूपा वापस ले जाते पुरुष सदस्य







Sunday, 24 April 2016

और महाराजा रीसाइकिल सिंह की आंखे खुल गईं...


यूं तो डस्टबिनाबाद और रीसाइक्लाबाद दोनों ही राज्य पास पास थे। एक दूसरे के पड़ौसी। लेकिन रीसाइक्लाबाद राज्य के महाराजा रीसाइकिल सिंह को डस्टबिनाबाद राज्य और वहां के नागरिक- जो डस्टबिन कहलाते थे, बिल्कुल नहीं भाते थे। रीसाइक्लाबाद के लोग हमेशा ही डस्टबिनाबाद राज्य को खुद से कमतर और बेकार माना करते थे और उन्हें यह हरगिज़ पसन्द नहीं था कि उनके यहां से कोई भी डस्टबिनाबाद के लोगों से दोस्ती करे।

दूसरी तरह डस्टबिनाबाद के नरेश कूड़ामल एक नम्र, भावुक एवं अच्छे दिल के इंसान थे जिन्हें अपने राज्य और प्रजा से बेहद प्यार था। उनका राज्य था भी अच्छा जिसके तीन तरफ कूड़े के ऊंचे पहाड़ थे और एक तरफ रीसाइक्लाबाद की सीमा। हालांकि खुद के राज्य को लेकर पड़ौसी राज्य रीसाइक्लाबाद का नज़रिया उन्हें कभी पसंद नहीं आया लेकिन फिर भी वो कुछ कहते नहीं थे। हमेशा खुश रहते थे। पृथ्वी के अन्य लोग जब भी डस्टबिनाबाद के पास से गुज़रते तो बड़ी हिकारत भरी नज़रों से उस राज्य को देखा करते थे। कोई उन्हें पसंद नहीं करता था। लेकिन इस सबके बावज़ूद नरेश कूड़ामल प्रसन्न रहते और अपने काम में लगे रहते। 



 पर एक दिन हद हो गर्ई। नरेश कूड़ामल को पता चला कि रीसाइक्लाबाद राज्य के राजा अपनी सीमा पर सौ मीटर ऊंची दीवार बनवा रहे हैं जिससे डस्टबिनाबाद राज्य से सम्पर्क पूरी तरह समाप्त हो जाए। नरेश कूड़ामल ने अपना जो दूत इस दीवार बनवाने का कारण जानने के लिए रीसाइक्लाबाद भेजा था, वो भी रोते-रोते वापस आया था और कुछ भी बताने से इनकार कर रहा था। तब नरेश कूड़ामल ने स्वयं जाकर महाराज रीसाइकिल सिंह से बात करने की ठानी। 

राज्य की सीमा पर पहुंचकर उन्होंने महाराज रीसाइकिल सिंह को पैगाम भिजवाया। इस पर महाराज रीसाइकिल सिंह खुद वहां आए और नाक-भौं सिकोड़कर नरेश कूड़ामल से बोले- हमें आपके साथ रहने का कोई शौक नहीं है नरेश कूड़ामल। अपने आपको देखिए, हमेशा आपसे बदबू आती रहती है। आपके पूरे राज्य से भी कूड़े की गंदी बदबू आती है, कभी सड़े फलों की, कभी फफूंद लगे खाद्य पदार्थों की, कभी कीचड़ की तो कभी सीलन की। आपके यहां पूरी पृथ्वी के लोग कूड़ा फेंकने आते हैं। जबकि हमारे यहां के नागरिक और राज्य साफ सुथरे है। यहां आपको केवल टूटी प्लास्टिक की बोतलें, कागज़, कपड़े और ऐसी चीज़े मिलेंगी जिनसे कम से कम बदबू नहीं आती। और आपके यहां पहुंची चीज़ों का तो कोई उपयोग भी नहीं होता जबकि हमारे नागरिकों को रीसाइकिल करके फिर से काम में लाया जाता है। हम आपसे बहुत बेहतर हैं इसलिए हमें आपका पड़ौसी बनना मंजूर नहीं और इसलिए हम दोनों राज्यों के बीच दीवार बनवा रहे हैं, कहते हुए महाराज रीसाइकिल सिंह तुनकते हुए वहां से चले गए।

उस दिन नरेश कूड़ामल को बहुत ज़्यादा दुख हुआ। आखों से आंसू बहने लगे। वो सोचने लगे कि मुझे प्रकृति ने ऐसा बनाया है तो इसमें मेरा क्या दोष। मैं और मेरे देश के नागरिक क्या इतने बुरे हैं कि कोई उनसे दोस्ती तक करना पसंद नहीं करता..? वो जाकर डस्टबिनाबाद के राजगुरु, तेज़वान ऋषि डस्टबिनानंद से मिले और बिलखते हुए सारी बात उन्हें बताई।


सारी बात सुनकर राजगुरु डस्टबिनानंद ने नरेश कूड़ामल को शांत किया और उन्हें महाराजा रीसाइकिल सिंह समेत सभी पृथ्वीवासियों को भी सबक सिखाने और अपने राज्य का महत्व समझाने के लिए एक तरकीब बताई। इसे सुनकर नरेश कूड़ामल की आंखे चमक उठीं।

दूसरे दिन से डस्टबिनाबाद के नागरिकों ने काम करना बंद कर दिया। उन्होंने जगह जगह जाकर कूड़ा जमा करना रोक
दिया और हड़ताल पर बैठ गए। डस्टबिनाबाद राज्य के गेट बंद कर दिए गए। अब वहां ना कोई आ सकता था और ना ही वहां से कोई बाहर जा सकता था। नतीजा, कुछ ही समय में पूरी पृथ्वी त्राहि-त्राहि कर उठी।

लोगों को अपने घर का कूड़ा डालने के लिए डस्टबिन मिलने बंद हो गए। कुछ समय तक तो लोगों ने अपने घरों में कूड़ा इकट्ठा किया लेकिन जब उसकी मात्रा बढ़ने लगी, तो लोग सड़कों पर कूड़ा फेंकने लगे। और धीरे-धीरे घरों, सड़कों, पुलों, नालों, दुकानों, दालानों... सब जगह कूड़ा ही कूड़ा दिखने लगा। कूड़ा जमा करने के लिए डस्टबिन थे नहीं, डस्टबिनाबाद राज्य के गेट बंद थे तो लोग वहां कूड़ा फेंकने नहीं जा सकते थे, इसलिए हर जगह बस कूड़ा ही कूड़ा बिखरा दिखने लगा...।

 उधर अब रीसाइक्लाबाद की रौनक भी घटने लगी थी। जब कूड़ा डस्टबिनाबाद नहीं पहुंचता था, तो वहां के लोग रीसाइकिल करने लायक चीज़े रीसाइक्लाबाद भी नहीं पहुंचा पाते थे।

पृथ्वी के अन्य लोग भी चारों तरफ बिखरे कूड़े की बदबू से इतने परेशान थे कि अब चारों तरफ फैले कूड़े से रीसाइकिल हो सकने वाले कूड़े को छांटने की हिम्मत किसी में नहीं बची थी। रीसाइक्लाबाद वीरान हो गया। उसके यहां की फैक्ट्रियां बन्द हो गईं। 

पृथ्वी के लोगों को जब डस्टबिनाबाद द्वारा की जा रही इस हड़ताल का कारण पता चला तो उन्हें अपनी सोच पर तो पछतावा हुआ ही साथ ही उन्होंने पानी पी-पीकर रीसाइक्लाबाद के लोगों को कोसना शुरू कर दिया सो अलग। 

अब महाराज रीसाइकिल सिंह की आंखे खुली। उन्हें अपनी गलती समझ में आ चुकी थी। उस दिन उन्होंने जाना कि उनका राज्य तभी आबाद रहेगा जब डस्टबिनाबाद आबाद रहे। क्योंकि अगर कूड़ा होगा तभी रीसाइक्लिंग के लिए चीज़े होंगी। 

यहीं नहीं वो यह भी समझ गए कि केवल डस्टिनाबाद की वजह से ही पूरी पृथ्वी साफ सुथरी है, अगर डस्टबिनाबाद नहीं होगा तो हर तरफ गंदगी का साम्राज्य होगा। यह तो डस्टबिनाबाद और नरेश कूड़ामल की महानता थी कि पूरी पृथ्वी साफ सुथरी रहे इसलिए उन्होंने खुद के राज्य और नागरिकों द्वारा कूड़ा संभालने का काम खुशी-खुशी करना स्वीकारा था।

उसी समय महाराज रीसाइकिलसिंह, नरेश कूड़ामल से मिलने डस्टबिनाबाद पहुंचे। सीमा पर बन रही दीवार का काम तुरंत रुकवा दिया गया और बनी हुई दीवार को तुड़वाने का काम शुरू हो गया। महाराज रीसाइकिल सिंह ने नरेश कूड़ामल के सामने हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए कहा- महाराज मुझे क्षमा करें। अब मुझे समझ में आया है कि दुनिया में हर चीज़ का अपना महत्व है, डस्टबिन का भी। आप की वजह से ही मेरा राज्य रीसाइक्लाबद आबाद है। मुझे अपना मित्र स्वीकारें।




नरेश कूड़ामल ने महाराज रीसाइकिल सिंह को गले लगा लिया और दोनों मित्र बन गए। महाराज रीसाइकिल सिंह की आंखें खुल चुकी थी और पृथ्वी के अन्य लोगों को भी अपनी गलती का अहसास हो गया था। 

 डस्टबिनाबाद के नागरिकों ने फिर से अपना काम मुस्तैदी से संभाल लिया। कुछ ही दिनों में पूरी पृथ्वी साफ हो गई और रीसाइक्लाबाद की रौनक भी लौट आई। इस घटना के बाद कभी किसी ने फिर डस्टिनाबाद और उसके नागरिकों के बारें में कुछ गलत सोचने या कहने का दुस्साहस नहीं किया।    

Saturday, 30 January 2016

जानलेवा पढ़ाई

  • लगातार बढ़ रहे हैं छात्र-छात्राओं द्वारा आत्महत्या करने के मामले
  • मां-बाप की अपेक्षाओं के चलते गहरे मानसिक दवाब में जी रहे हैं किशोर

  • 2014 में 2403 छात्र-छात्राओं ने फेल होने के डर से मौत को गले लगाया






गाज़ियाबाद के मशहूर कॉलेज से बीटेक कर रही रितुपर्णा की दिनचर्या देखें- सुबह 8 बजे वो सोकर उठती है और 9 बजे तक तैयार होकर, नाश्ता वगैरह करके कॉलेज चली जाती है। लौटते हुए लगभग साढ़े चार-पांच बज जाते हैं। आने के तुरंत बाद रितु खाना खाकर सो जाती है और इसके बाद रात को नौ बजे उठकर सुबह चार बजे तक शांति में पढ़ाई करती है। सुबह चार बजे सोने के बाद वो सीधे आठ बजे स्कूल जाने के समय पर उठती है। इम्तहान के दिनों में यह रुटीन बदल जाता है, कॉलेज से 12-1 बजे तक आ जाने के बाद रितु 5 बजे तक दिन में भी पढ़ाई करती है। 

यहीं नहीं छुट्टी के दिन रितुपर्णा स्पेशल क्लासिस के लिए अपने सर के पास भी जाती है। जब हमने उससे पूछा कि इतनी ज्यादा पढ़ाई करने की क्या आवश्यकता है जबकि यह कोई आईआईटी या मेडिकल की तैयारी नहीं है, तो उसका कहना था कि कॉलेज की पढ़ाई और कोर्स बहुत ज्यादा है। पापा ने इतने पैसे खर्च करके मेरा एडमिशन कराया है। अगर मैं पढ़कर अच्छे नंबर नहीं लाई तो उन्हें खराब लगेगा। और फिर मैं आगे किसी कॉम्पटीटिव एक्ज़ाम में कैसे निकल पाऊंगी...? कैसे उनके सपनों को पूरा कर पाऊंगी? कैसे अपनी पहचान बना पाऊंगी...?  

ऐसा करने और सोचने वाली केवल रितु ही नहीं। यकीनन रितु की तरह आपके आस-पास भी ऐसे ही कितने बच्चे, किशोर होंगे जो अपने मम्मी-पापा की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं। छोटी सी उम्र में उन्होंने अपने ऊपर आपके सपनों और आकांक्षाओं का बोझ लादकर जीना सीख लिया है। पर क्या हर बच्चा यह दवाब झेल पाता है? तब क्या होता है जब वो इस बोझ को ढो नहीं पाते, आपकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाते...और मौत को गले लगा लेते हैं। 

याद है सुपरहिट फिल्म थ्री ईडियट्स फिल्म का वो सीन, जब एक छात्र केवल इसलिए फांसी के फंदे पर झूल जाता है क्योंकि डायरेक्टर उसे फेल कर देते हैं। पढ़ाई का प्रेशर और खासतौर पर एक अच्छे स्कूल में जाने, अच्छा करियर बनाने वाले कोर्स में चुने जाने का मानसिक दबाब इतना ज्यादा है कि बच्चे जो खुद बनना चाहते हैं, वो मां-बाप को बताने से पहले भी उन्हें सौ बार सोचना पड़ता है।

लगभग हर हफ्ते, पंद्रह दिन में हम अखबारों में किसी ना किसी छात्र या छात्रा द्वारा परीक्षाओं/पढ़ाई के दबाब में खुद की जान ले लिए जाने की खबरें पढ़ते हैं। दसवीं और बारहवीं बोर्ड परीक्षाओं के दौरान इन आत्महत्याओं का सिलसिला और बढ़ जाता है। 

पिछले ही दिनों राजस्थान की कोचिंग नगरी, कोटा ने यहां बड़े पैमाने पर छात्रों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के चलते अखबारों के पन्नों पर जगह बनाई थी। साल 2015 में यहां इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में एडमिशन की तैयारी करने में जुटे 31 बच्चों ने खुदकुशी कर ली। प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण होने की उम्मीद में यहां की कोचिंग क्लासेज़ में दाखिला लेने वाले कई किशोर व युवा अत्यधिक प्रतियोगी माहौल और कड़े पढ़ाई के रुटीन के चलते गहरे मानसिक दबाब में जीते हैं।

 माता-पिता अक्सर अपने बच्चों से इस तरह की बातें कहते हुए सुने जा सकते हैं कि- पढ़ लो, मस्ती करने के लिए पूरी ज़िंदगी पड़ी है.., नेहा को देखा, कितनी होशियार है, एक बार में सीपीएमटी में निकल गई, मेहनत करती है वो, और तुमसे तो उम्मीद लगाना ही बेकार है..., पढ़ लोगे, मेहनत कर लोगे तो अच्छी जगह एडमिशन हो जाएगा, कहीं निकल जाओगे, वरना ज़िंदगी ऐसे ही गुज़र जाएगी...., तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई पर बहुत पैसा खर्च कर रहे हैं हम, कुछ तो अच्छा रिजल्ट लाके दिखा दो... वगैरह, वगैरह..। 



बच्चों पर इस कदर आकांक्षाओं और अपेक्षाओं का बोझ लाद दिया जाता है कि उन्हें पढ़ाई करना और अच्छे नंबर लाना ही ज़िदगी जीने की मकसद लगने लगता है।  


पीयूष वर्मा की कहानी

20 वर्षीय पीयूष (बदला हुआ नाम) ने केवल इसलिए अपनी कलाई काट कर जान देने की कोशिश की क्योंकि वो मेडिकल कॉलेज के फर्स्ट ईयर की परीक्षा में एक विषय में फेल हो गया था। तुरंत चिकित्सकीय सहायता ने उसकी जान तो बचा ली लेकिन उसकी मानसिक स्थिति को सामान्य करने के लिए अभी तक काउंसलिंग चल रही है। 

जब पीयूष से इस स्थिति में आने का कारण पूछा गया तो पता चला कि उसने तीन साल तक मेडिकल के एंट्रेस एक्ज़ाम के लिए कोचिंग की थी जिसके बाद उसका डेंटल में सलेक्शन हुआ। काफी डोनेशन देकर उसके डैडी ने उसे एक अच्छे कॉलेज में दाखिला दिलाया। उसके परिवारवालों ने उसकी पढ़ाई पर काफी पैसा खर्च किया था और उनको पीयूष से काफी उम्मीदें थी, ऐसे में जब वो पहली ही साल फाइनल्स में फेल हो गया तो उसकी अपने मम्मी –पापा को फेस करने की हिम्मत नहीं हुई और उसने यह कदम उठाना उचित समझा।

क्या कहते हैं मनोवैज्ञानिक

गाज़ियाबाद के प्रतिष्ठित मनोवैज्ञानिक डॉक्टर सारंग देसाई का मानना है कि बच्चों को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए आज का प्रतियोगी युग सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जिसके चलते मां-बाप अपने बच्चों से बहुत ज्यादा उम्मीदें लगाते हैं।

 हांलाकि डॉक्टर देसाई यह भी कहते हैं कि आजकल खासकर महानगरों में एक पॉजिटिव ट्रेंड यह उभरा है कि मां-बाप बच्चों केवल पढ़ाई ही नहीं बल्कि उनकी पसंद के और क्षेत्रों में भी जाने का मौका देने लगे हैं। लेकिन यह प्रतिशत काफी कम है। बदलाव धीरे-धीरे आ रहा है। पर अधिकतर छोटे नगरों के युवा, जिनके मां-बाप अपनी जीवन भर की पूंजी दांव पर लगाकर उन्हें महानगरों में पढ़ने के लिए भेजते हैं, के ऊपर अपेक्षाओं का दवाब बहुत ज्यादा होता है। 

आजकल की फिल्मों, सीरियल्स, इंटरनेट सभी पर बाज़ारवाद हावी है जिसने इसे घर-घर तक पहुंचा दिया है। यह बाज़ारवाद हमें ज्यादा खर्चा करने, अच्छे से रहने, अच्छा खाने, अच्छा पहनने और अपनी हर ज़रूरत को पूरी करने के लिए प्रेरित करता है। यह ज़रूरतें पूरी करने के लिए ज़रूरी है अच्छी नौकरी या वाइट कॉलर जॉब और इसके लिए ज़रूरी है पढ़ाई, बहुत ज्यादा पढ़ाई। ज़ाहिर हैं मां-बाप भी आज के इस बाज़ारवाद और प्रतियोगिता के युग में अपने बच्चे को पिछड़ते हुए नहीं देखना चाहते और उनके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य बन जाता है अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना। 

अपेक्षाओं का बोझ मां-बाप से होता हुआ कब बच्चों तक पहुंच जाता है, वो समझ भी नहीं पाते और बच्चे इन अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाने के अपराध बोध में दबकर आत्महत्या जैसे कदम उठा 
बैठते हैं।

इस समस्या से निबटने का हल बताते हुए डॉक्टर देसाई कहते हैं कि आज के युग में ज़रूरी यह है कि अपने बच्चों के साथ मित्रवत रिश्ता कायम किया जाए। उन की परेशानियों को सुनकर, उनकी इच्छाओं को सम्मान देकर और उनके सोच पर ध्यान देकर काफी हद तक इस दवाब पर लगाम लगाई जा सकती है।   


आत्महत्या रोकने के लिए हैल्पलाइन चलाने वाली समाज सेवी संस्था आसरा की साइट पर उपलब्ध आंकड़े देखें तो-

  • निमहंस की एक स्टडी के अनुसार भारत के 72 फीसदी छात्र इम्तहान के दवाब को झेलने में असमर्थ हैं।
  • यूनेस्को के अनुसार विश्व के 50 फीसदी बच्चें किसी ना किसी दवाब में बड़े हो रहे हैं।
  •  निमहंस की स्टडी के अनुसार हर 20 आईटी प्रॉफेशनल्स में से एक आत्महत्या करने का मन बनाता है।
  • पिछले पांच सालों में युवाओं के बीच डिप्रेशन 2 फीसदी से बढ़कर 12 फीसदी तक पहुंच चुका है।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्टडी बताती है कि विश्व के हर दस छात्रों में से एक छात्र कड़े दवाब में जी रहा है।

डराते हैं नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरों की साइट पर उपलब्ध ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि छात्रों में इम्तहान के दबाव चलते मौत को गले लगाने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है।




  • साल 2014 में भारत में 1,31,666 लोगों ने आत्महत्या की जिनमें से 2403 छात्र थे। इन सभी ने परीक्षाओं में फेल होने के कारण या पास होने के दवाब के चलते अपनी जान ली।
  • इम्तहानों के दवाब के चलते आत्महत्या करना, भारतीयों द्वारा आत्महत्या किए जाने के प्रमुख दस कारणों में छठे स्थान पर आ पहुंचा है। यह पिछले साल 1.8 फीसदी मामलों में आत्महत्या की वजह रहा।    
  • चौंकाने वाली बात यह है एक्ज़ाम्स का यह दवाब केवल किशोरों या युवाओं को ही नहीं बल्कि बच्चों को भी निशाना बना रहा है। 14 साल से कम उम्र के बच्चों में भी परीक्षा में फेल होना, आत्महत्या करने की तीसरी प्रमुख वजह रही जिसके कारण पिछले वर्ष 163 बच्चों (91 लड़के, 72 लड़कियां) ने आत्महत्या की।
  • आंकड़े बताते हैं एक्ज़ाम के दवाब के चलते आत्महत्या के मामलों में लगातार बढ़ोत्तरी का ट्रेंड देखा जा रहा है और यह ट्रेंड देश की मेगा सिटीज़ में ज्यादा देखने को मिल रहा है। 

एक बात हमारी भी सुनें

इतनी सारी बातें लिखने, आंकड़े पेश करने और उदाहरण देने के पीछे हमारा मकसद केवल माता-पिताओं तक यह संदेश पहुंचाना हैं कि अपने बच्चों पर पढ़ाई का दबाब इतना भी मत डालिए कि वो कुम्हला जाएं। जिन बच्चों के बहाने आपने अपनी ज़िंदगी के सपने पूरे करने के सपने देखे हैं, अगर वहीं नहीं रहेंगे तो क्या करेंगे आप? बाद में पछताने से बेहतर है अभी समझदारी का कदम उठाया जाए। पढ़ाई बच्चों के लिए ज़रूरी है, पर उनकी ज़िंदगी का एकमात्र मकसद नहीं। क्या होगा अगर वो फर्स्ट नहीं आ पाएंगे, प्रतियोगी परीक्षाओं में नहीं निकल पाएंगे, इंजीनियर नहीं बनेंगे, डॉक्टर नहीं बनेगें... शायद सबसे अलग, कुछ छोटा काम करें, लेकिन कम से कम खुश तो रहेंगे। हम नहीं कहते कि आप अपने बच्चों को पढ़ाई और करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित करना छोड़ दें, बस इतनी गुज़ारिश है कि उन पर अपनी आकांक्षाओं और कड़े नियमों का इतना बोझ ना लादें कि उन्हें पर फैलाने की जगह ही ना मिलें।  

मिस्टर एन्ड मिसेज 55: गुरुदत्त साहब की विविधता का नायाब नमूना

'तुम दो मिनट रुको मैं अभी शादी करके आती हूं' 'क्या बात है, आजकल आदमी से ज्यादा टेनिस की अहमियत हो गई है' 'तुम्हें ख...