लावारिस लाशों का क्रिया-कर्म करने वाले शरीफ चाचा को आजतक नहीं मिली सरकारी सहायता

फैज़ाबाद वाले शरीफ चाचा का नाम तो आप सबने सुना ही होगा जो 22 वर्षों से लावारिस लाशे, चाहे वो हिन्दू की हो या मुसलमान की, को बाइज़्जत उनके आखिरी मुकाम तक पहुंचा रहे हैं। कई बार मीडिया में उनकी कहानी और उनके द्वारा किए जा रहे इस सबाब के काम को लेकर कहानियां छप चुकी हैं, प्रोग्राम भी बनाए और प्रस्तुत किए जा चुके हैं। लेकिन आप जो नहीं जातने हैं, वो यह है कि मकान नं 269, खिड़की अली बेग, फैज़ाबाद में रहने वाले शरीफ चाचा को उनके द्वारा किए जा रहे इस समाज सेवा के काम के बावजूद देश भर में पहचान तो मिली है, सरकार से तारीफ के हार और तालियां तो मिली हैं लेकिन मदद बिल्कुल नहीं मिली। और आज वो तंगहाली में ज़िदंगी गुज़ार रहे हैं। पास के होटल वाले से खाना मिल जाता है, टूटा-फूटा मकान रहने को है, एक बिटिया की शादी नहीं हुई और लाश के अंतिम संस्कार या दफनाने में जो पैसे लगते हैं वो चाचा किसी तरह इधर-उधर से चंदा मांगकर जमा करते हैं और मय्यत को उसके आखिरी अंजाम तक पहुंचा आते हैं।
           शरीफ चाचा बड़े रोष के साथ बतातै हैं कि इतने सारे नेता उनसे मिलने आते हैं। हर कोई मदद का वादा करके जाता है, कोई कहता है मकान दिलवाएंगे, कोई कहता है सरकारी सहायता दिलवाएंगे और कोई कहता है कि आपके साथ दो-तीन लोग और इस काम में लगवा देंगे लेकिन मदद के यह वादे पूरे कभी नहीं होते। हर  साल छब्बीस जनवरी या पंद्रह अगस्त पर नेता उन्हें बुला लेते हैं, मंच पर अपने साथ खड़ा करके कुछ तारीफ और सहानुभूति बटोर लेते हैं और बस इसके बाद अगले साल तक की छुट्टी।
उन्हीं के शब्दों में- "एक बार तो सलमान खुर्शीद ने भी हमें बुलाया था और सरकारी मदद दिलाने का भरोसा दिया था लेकिन जब हम वहां गए तो बस एक हार पहना दिया, तालियां पिटवा दी, कुछ देर अपने साथ खड़ा कर लिया और बस फिर वापस भेज दिया। पर आज तक मदद के नाम पर कुछ नहीं मिला है। आमिर ख़ान ने भी टीवी पर बुलाया था लेकिन उसने भी बस आने -जाने का खर्चा देकर वापस भेज दिया। लाशों के क्रिया कर्म के काम के लिए कोई पैसे की मदद नहीं दी"
चाचा दुखी होकर कहते हैं कि आज महंगाई के ज़माने में एक हिन्दू भाई की लाश को जलाने में लगभग तीन हज़ार और मुसलमान भाई की मय्यत दफनाने में पांच हज़ार तक का खर्चा आ जाता है लेकिन यह सब वो अपने आस-पास के लोगों से चन्दा इकट्ठा करके इंतज़ाम करते हैं या जितना उनसे बन पड़ता है अपने पास से लगाते हैं लेकिन ऐसा कब तक चल पाएगा। कोई ठोस इंतज़ाम तो ज़रूरी है जिसके लिए उन्हें सरकार से आस है और जो अब तक बस आस ही बनी हुई है। चूंकि पुलिस वाले और अस्पताल वाले उन्हें जान गए हैं इसलिए लावारिस लाश मिलने की स्थिति में तुरंत उन्हें फोन तो कर देते हैं लेकिन पैसों की मदद बिल्कुल नहीं करते।
उन्हें इस बात की भी चिंता है कि उनकी इस विरासत को कौन संभालेगा, कौन उनके बाद उनके इस काम को आगे बढ़ाएगा। उनकी उम्र 72 हो चली है। हाथ-पैरों में अब पहले जैसी ताकत नहीं रह गई है लेकिन फिर भी उन्होंने तीन ठेले लाशें उठाने के लिए लगा रखे हैं जिनमें से एक सरकारी अस्पताल, एक रेलवे स्टेशन और एक पुलिस स्टेशन पर खड़ा रहता है।
चाचा की परेशानी का एक सबब यह भी है कि उनके शरीर में अब अकेले ठेला ढोने और लाशों को उठाने की ताकत नहीं रही है लेकिन कोई भी दूसरा आदमी लावारिस लाश को छूना नहीं चाहता, या बड़ी मुश्किल से तैयार होता है इसलिए शरीर में ताकत नहीं होने के बावजूद शरीफ चाचा खुद ही लाश को ठेले पर लादते हैं और उसकी आखिरी यात्रा पर ले जाते हैं।
शरीफ चाचा के इस सबाब के काम ने उन्हें मन की शांति दी है, पहचान दी है लेकिन उन्हें मलाल सिर्फ इस बात का है कि उन्हें कोई छोटी सी भी सरकारी सहायता आज तक नहीं मिली जिससे उनके काम में मदद हो पाए।


(शरीफ चाचा ने हमसे अपना नंबर भी देने का आग्रह किया है ताकि अगर कोई उनकी मदद के लिेए आगे आना चाहे तो उन तक पहुंच सके। इसलिए उनका नंबर दे रही हूं- 9235853230)

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