पत्निया गुर्दा देकर बचा लेती हैं पति की जान, पर उनको गुर्दा देने वाले पति नहीं मिलते
खराब गुर्दे वाले पुरुष रोगियों की जान बचाने के लिए सबसे ज्यादा उनकी पत्नियां ही आगे आती हैं। पुरुष रोगियों के मामले में या तो गुर्दे खरीदे जाते हैं या फिर उनकी पत्नियों को उनको गुर्दा देने के लिए तैयार किया जाता है। अगर रोगी की शादी नहीं हुई है और वो गुर्दा खरीद भी नहीं सकता तो ज़रूर मां गुर्दा देने के लिए तैयार होती है पर शादीशुदा रोगियों के मामले में पत्नी या तो स्वेच्छा से या फिर ससुरालीजनों के दबाब के चलते अपना गुर्दा पति को दान देती है।
दिल्ली में गुर्दे चाहने वाले रोगियों और उनके दानकर्ताओं के बारे में अपने यह अनुभव हमें सफदरजंग अस्पताल में कार्यरत डॉक्टर एकता बंसल ने बताए। उन्होंने बताया कि भले ही पत्नियों को लोग कितना भी भला बुरा कह लें, लेकिन सच्चाई यहीं है कि पति का गुर्दा खराब होने के अधिकतर मामलों में पत्नियां ही पति को गुर्दा देकर उनकी जान बचाती हैं। पुरुष रोगियों के मामले में या तो गुर्दा खरीदा जाता है, और अगर परिवार वालों में से किसी ने गुर्दा दान किया है, तो वो अधिकतर मामलों में पत्नियां ही होती है।
हमने यह भी पूछा कि क्या मां-बाप, भाई बहन आदि गुर्दा दान नहीं करते, तब उन्होंने बताया कि अन्य परिवारजन, जिनसे कि रोगी के खून के रिश्ते हों, से गुर्दा ज्यादा अच्छे से मिलान होने के बावजूद, परिवार वाले गुर्दा देने को तैयार नहीं होते। अक्सर इन मामलों में पत्नी ही गुर्दा देती है। अब यह अलग बात है कि कई बार पत्नियों पर दबाब डालकर उन्हें इसके लिए तैयार किया जाता है।
परिवार वाले बनाते हैं दबाब
यह सही है कि कई मामलों में गुर्दा नहीं खरीद पाने कि स्थिति में पत्नियां खुद ही पति को गुर्दा देने को तैयार हो जाती है पर यह भी सच है कि बहुत से मामलों में पत्नियों पर जबरन दबाब डालकर उन्हें अपना गुर्दा देने के लिए तैयार किया जाता हैं। पत्नियों से कहा जाता है, कि तुम्हें अपने पति का खयाल करना चाहिए, उसका जीवन रहेगा तो तुम्हारा जीवन रहेगा। पत्नी ही पति के सुख दुख की साथी होती है, वो नहीं रहेगा तो तुम्हारा क्या होगा....आदि आदि। चारों तरफ से पत्नी पर इतना दबाब डाला जाता है कि वो बेचारी आखिरकार गुर्दा देने को तैयार हो ही जाती है।
जिन पुरुष रोगियों की शादी नहीं हुई होती वहां ज़रूर मां अपने गुर्दे को दान करने के लिए आगे आती है। लेकिन शादीशुदा बेटे के मामले में कई बार मां-बाप यह कहकर पीछे हट जाते हैं कि हम तो वैसे ही मरने की कगार पर हैं, हमारे अंग तो वैसे ही खराब हो चुके हैं, हमारा गुर्दा हमारे बेटे के क्या काम आएगा। और भाई बहनों या बच्चों के पास यह बहाना होता है कि हमारी तो पूरी ज़िंदगी पड़ी है अभी से तुमको एक किडनी देकर खुद को अपाहिज कैसे बना लें। अंततः या तो अगर रोगी के परिवार के पास पैसा हो तो गुर्दा खरीदा जाता है या फिर पत्नी को ही गुर्दा देने के लिए तैयार किया जाता है। खास तौर से निम्न और मध्यम आय वर्ग के परिवारों में ऐसा बहुत देखने को मिलता है।
पति नहीं देते पत्नियों को गुर्दा
जब हमने डॉक्टर से यह पूछा कि क्या पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को गुर्दा दान करने के मामले भी देखने को मिलते हैं तो उन्होंने रोषपूर्ण स्वर में बताया कि "ऐसा नहीं होता। पति कभी भी पत्नियों को अपना गुर्दा दान नहीं देते बल्कि अगर उन्हें अपनी पत्नी से बहुत ज्यादा प्यार भी है तो भी ज्यादा से ज्यादा यह करते हैं कि अपनी पत्नी के लिए एक गुर्दा-दानकर्ता को ढ़ूढंते हैं। आप गूगल पर सर्च करके देख लो,देश में पत्नी द्वारा अपना गुर्दा देकर पति को बचाने के पचासो मामले मिल जाएंगे लेकिन पति द्वारा पत्नी को गुर्दा दिए जाने का एक मामला भी शायद मुश्किल से मिले।"
अगर पुरुष दानकर्ता अपनी किडनी स्वेच्छा से देते हैं, तो या तो बेचने के लिए अच्छे पैसे के लालच में देते हैं या अपने किसी बच्चे को बचाने की खातिर। लेकिन सच तो यह है कि पुरुष दानकर्ताओं द्वारा पत्नी को अपना गुर्दा दान देने के मामले ना के बराबर है।
महिला रोगियों को नहीं मिलते आसानी से गुर्दे
एक दुखभरा सच यह भी है कि गुर्दा दान तो सबसे ज्यादा पत्नियां करती हैं, लेकिन गुर्दा खराब होने की दशा में उनको ही दूसरा गुर्दा पाने में सबसे ज्यादा मुश्किल होती हैं। जी हां, अस्पतालों में पुरुष रोगियों को गुर्दे, महिला रोगियों की अपेक्षा कहीं ज्यादा और आसानी से मिल जाते हैं। जबकि महिला रोगियों को मुश्किल से कोई गुर्दा देने को तैयार होता है या फिर काफी खर्चा करके उनके लिए गुर्दा खरीदने को तैयार होता है।
दिल्ली में गुर्दे चाहने वाले रोगियों और उनके दानकर्ताओं के बारे में अपने यह अनुभव हमें सफदरजंग अस्पताल में कार्यरत डॉक्टर एकता बंसल ने बताए। उन्होंने बताया कि भले ही पत्नियों को लोग कितना भी भला बुरा कह लें, लेकिन सच्चाई यहीं है कि पति का गुर्दा खराब होने के अधिकतर मामलों में पत्नियां ही पति को गुर्दा देकर उनकी जान बचाती हैं। पुरुष रोगियों के मामले में या तो गुर्दा खरीदा जाता है, और अगर परिवार वालों में से किसी ने गुर्दा दान किया है, तो वो अधिकतर मामलों में पत्नियां ही होती है।
हमने यह भी पूछा कि क्या मां-बाप, भाई बहन आदि गुर्दा दान नहीं करते, तब उन्होंने बताया कि अन्य परिवारजन, जिनसे कि रोगी के खून के रिश्ते हों, से गुर्दा ज्यादा अच्छे से मिलान होने के बावजूद, परिवार वाले गुर्दा देने को तैयार नहीं होते। अक्सर इन मामलों में पत्नी ही गुर्दा देती है। अब यह अलग बात है कि कई बार पत्नियों पर दबाब डालकर उन्हें इसके लिए तैयार किया जाता है।
परिवार वाले बनाते हैं दबाब
यह सही है कि कई मामलों में गुर्दा नहीं खरीद पाने कि स्थिति में पत्नियां खुद ही पति को गुर्दा देने को तैयार हो जाती है पर यह भी सच है कि बहुत से मामलों में पत्नियों पर जबरन दबाब डालकर उन्हें अपना गुर्दा देने के लिए तैयार किया जाता हैं। पत्नियों से कहा जाता है, कि तुम्हें अपने पति का खयाल करना चाहिए, उसका जीवन रहेगा तो तुम्हारा जीवन रहेगा। पत्नी ही पति के सुख दुख की साथी होती है, वो नहीं रहेगा तो तुम्हारा क्या होगा....आदि आदि। चारों तरफ से पत्नी पर इतना दबाब डाला जाता है कि वो बेचारी आखिरकार गुर्दा देने को तैयार हो ही जाती है।
जिन पुरुष रोगियों की शादी नहीं हुई होती वहां ज़रूर मां अपने गुर्दे को दान करने के लिए आगे आती है। लेकिन शादीशुदा बेटे के मामले में कई बार मां-बाप यह कहकर पीछे हट जाते हैं कि हम तो वैसे ही मरने की कगार पर हैं, हमारे अंग तो वैसे ही खराब हो चुके हैं, हमारा गुर्दा हमारे बेटे के क्या काम आएगा। और भाई बहनों या बच्चों के पास यह बहाना होता है कि हमारी तो पूरी ज़िंदगी पड़ी है अभी से तुमको एक किडनी देकर खुद को अपाहिज कैसे बना लें। अंततः या तो अगर रोगी के परिवार के पास पैसा हो तो गुर्दा खरीदा जाता है या फिर पत्नी को ही गुर्दा देने के लिए तैयार किया जाता है। खास तौर से निम्न और मध्यम आय वर्ग के परिवारों में ऐसा बहुत देखने को मिलता है।
पति नहीं देते पत्नियों को गुर्दा
जब हमने डॉक्टर से यह पूछा कि क्या पतियों द्वारा अपनी पत्नियों को गुर्दा दान करने के मामले भी देखने को मिलते हैं तो उन्होंने रोषपूर्ण स्वर में बताया कि "ऐसा नहीं होता। पति कभी भी पत्नियों को अपना गुर्दा दान नहीं देते बल्कि अगर उन्हें अपनी पत्नी से बहुत ज्यादा प्यार भी है तो भी ज्यादा से ज्यादा यह करते हैं कि अपनी पत्नी के लिए एक गुर्दा-दानकर्ता को ढ़ूढंते हैं। आप गूगल पर सर्च करके देख लो,देश में पत्नी द्वारा अपना गुर्दा देकर पति को बचाने के पचासो मामले मिल जाएंगे लेकिन पति द्वारा पत्नी को गुर्दा दिए जाने का एक मामला भी शायद मुश्किल से मिले।"
अगर पुरुष दानकर्ता अपनी किडनी स्वेच्छा से देते हैं, तो या तो बेचने के लिए अच्छे पैसे के लालच में देते हैं या अपने किसी बच्चे को बचाने की खातिर। लेकिन सच तो यह है कि पुरुष दानकर्ताओं द्वारा पत्नी को अपना गुर्दा दान देने के मामले ना के बराबर है।
महिला रोगियों को नहीं मिलते आसानी से गुर्दे
एक दुखभरा सच यह भी है कि गुर्दा दान तो सबसे ज्यादा पत्नियां करती हैं, लेकिन गुर्दा खराब होने की दशा में उनको ही दूसरा गुर्दा पाने में सबसे ज्यादा मुश्किल होती हैं। जी हां, अस्पतालों में पुरुष रोगियों को गुर्दे, महिला रोगियों की अपेक्षा कहीं ज्यादा और आसानी से मिल जाते हैं। जबकि महिला रोगियों को मुश्किल से कोई गुर्दा देने को तैयार होता है या फिर काफी खर्चा करके उनके लिए गुर्दा खरीदने को तैयार होता है।
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