अद्भुद वास्तुकला और रहस्यों से भरा इमामबाड़ा- भूल-भुलैया की सुरंगे दूसरे राज्यों तक फैली हैं और बावली में दफ्न है खज़ाने का राज़
लखनऊ का बड़ा इमामबाड़ा सत्रहवीं शताब्दी की वास्तुकला और नवाबी ज़माने की इमारतों के सुरक्षा इंतज़ामात संबंधी निर्माण का बेहद शानदार नमूना है.... गोमती नदी के किनारे बने बड़े इमामबाड़े में कई फीट चौड़ी दीवारे हैं, दीवारों में गलियारे हैं, गलियारों में दसियों दरवाज़े हैं, सैकड़ों झरोखे हैं जो जानने वालों से कुछ छिपाते नहीं और देखने वालों को कुछ दिखाते भी नहीं। इमामबाड़ा की मोटी दीवारों के कान भी हैं जो कहीं भी होने वाली हल्की सी आहट दूर तक सुन लेते हैं। कहते हैं कि यहां की भूलभुलैया और शाही बावली से बहुत सी सुरंगे निकलती हैं जो लखनऊ से बाहर अन्य राज्यों तक जाती हैं... और इन्हीं में कहीं दफ़्न है नबाब आसफ उद्दौला का अकूत खज़ाना... जिसका राज़ आजतक कभी किसी को नहीं मिला है।
इमामबाड़े का बाहरी भाग या दरवाज़ा |
आज हम आपको लखनऊ की शान कहलाए जाने वाले इसी बड़े इमामबाड़े की सैर करवा रहे हैं। लखनऊ जाएं तो यहां ज़रूर जाएं और एक गाइड को साथ लेकर जाएं तभी आप इस इमामबाड़े की खूबियों से वाकिफ हो सकते हैं, और यहां की अनगिनत वास्तु विशेषताओं को जान और समझ सकते हैं।
इमामबाड़े का निर्माण 1784 में तत्कालीन अवध नवाब आसफ-उद्-दौला ने करवाया था। इसके वास्तुकार किफायत उल्ला खां साहब थे जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने ताजमहल के वास्तु निर्माण की रूपरेखा तैयार करने में भी सलाह दी थी।
गोमती नदी के किनारे बने बड़े इमामबाड़े में जाने की टिकिट 50 रुपए की है। यह टिकिट लेकर आप सबसे पहले इस दरवाज़े से अन्दर घुसते हैं जो अनगिनत झरोखों से भरी हुई एक दीवार के मध्य बना है।
सीढ़ियों के ऊपर इमामबाड़े के केंद्रीय कक्ष का बाहरी भाग |
मुख्य दरवाज़े से आगे बागीचे के समकक्ष रास्ते को पार करके जब आप अन्दर पहुंचते हैं तो सीढ़ियों के ऊपर बड़े इमामबाड़े का केन्द्रीय कक्ष नज़र आता है जो अत्यन्त विशाल है। इस कक्ष के एक तरफ मस्जिद है जहां सिर्फ मुस्लिमों को जाने की इजाज़त है। कक्ष के दूसरी ओर सीढ़ियों से नीचे की तरफ शाही बावली स्थित है।
सीढ़िया चढ़ कर ऊपर आने के बाद केंद्रीय कक्ष का द्वार देखा जा सकता है जिसमें जालीदार दरवाज़े हैं और मेहराबनुमा अनेकों झरोखे। इस कक्ष के दोनों ओर दो कक्ष और हैं। इन तीनों कक्षों की दीवारें 20 फीट मोटी हैं जिनमें गलियारों का जाल बिछा हुआ है। यहीं से अन्दर जाने के लिए आपको गाइड मिलते हैं। आप दो सौ रुपए में इमामबाड़ा समेत भूलभुलैया और बावली को देखने और समझने के लिए गाइड ले सकते हैं।
इमामबाड़े का केंद्रीय कक्ष |
ताजियों और झूमरों से सुसज्जित इस कक्ष के बीचों-बीच नबाव आसफ-उद्-दौला और किफायत-उल्ला दोनों की सादी सी कब्रे भी हैं। यहीं एक शीशे के अल्मारी में नवाब की पगड़ी भी देखी जा सकती है। और पगड़ी की परिधि देखकर आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि नवाब का सिर कितना बड़ा रहा होगा।
इस कक्ष को दिखाने और इसकी विशेषताएं बताने के बाद गाइड हमें कक्ष की दीवारों में बनी भूल-भूलैया में ले गया। कक्ष के बाहर दांयी तरफ भूल-भुलैया में जाने के लिए सीढ़िया बनी हैं जिन्हें पार करके हम इमामबाड़ा के सबसे अनोखे स्थान भूल भुलैया में पहुंचे।
भूल-भुलैया के अंधेरे गलियारे |
भूल-भुलैया की दीवारों से दूर हुई हल्की सी फुसफुसाहट भी सुनी जा सकती है |
भूल-भुलैया के झरोखे से बाहर का नज़ारा |
दीवार में बने झरोखों से बाहर सड़क तक नज़र रखी जा सकती है |
गलियारों में रौशनी की कमी नहीं |
भूल -भूलैया के बाहर की तरफ खुलने वाले गलियारों में प्रकाश की कोई कमी नहीं है। दीवार में समान दूरी के बने झरोखों से रोशनी अन्दर आती है और पूरे रास्ते को रौशन करती है। आप यहां दीवार के अन्दर बनी संकरी गली में रौशनी के साये देख सकते हैं।
भूल-भुलैया के गलियारे दूसरी तरफ से मुख्य कक्ष में खुलते हैं |
अंदर खुलने वाले गलियारे हमें मुख्य कक्ष के रौशनदानों में ले जाते हैं। देखिये यहां आप रौशनदानों से छनकर आती रौशनी देख सकते हैं। इन रौशनदानों के कारण और जिस प्रकार ये बाहर के झरोखों से जुड़े हैं, यहां हमेशा रौशनी और हवा रहती है। ऊपर अगर एक तरफ माचिस की तीली जलाई जाए तो उसकी आवाज़ 16 मीटर दूर दूसरे सिरे तक सुनाई देती है।
एक और रोचक बात - अगर भूल-भुलैया में आप ऊपर चढ़ते जाएंगे तो यहां से निकलकर छत पर पहुंच पाएंगे लेकिन अगर नीचे चलते रहे तो भटक जाएंगे। भूल-भुलैया से निकलने की यहीं तरकीब है कि ऊपर की तरफ चला जाए।
शाही बावली की सैर
भूल-भुलैया घुमाने के बाद गाइड हमें शाही बावली या जिसे कूंआ कहते हैं, को दिखाने ले गया। शाही बावली भी अपने आप में एक बेहद अद्भुद संरचना है। यह इमामबाड़े के मुख्य कक्ष से सीढ़िया उतरने के बाद दायीं तरफ नीचे जाकर बनी है। यह बावली पांच मंजिला है लेकिन इसकी नीचे की तीन मंज़िले पानी में डूबी रहती हैं।
इस बावली की सीढ़ियों पर खड़े होकर देखने पर नीचे कूंआ नहीं दिखता। लेकिन मज़े की बात यह है कि नीचे के तल पर जाने पर बावली के पानी में ऊपर सीढ़ियों या दरवाज़े पर बैठे व्यक्ति का प्रतिबिम्ब देखा जा है।
इस बावली की एक और विशेषता यह है कि इसकी सीढ़ियों पर खड़े होकर बाहर देखने से इमामबाड़े का मुख्य कक्ष इसके समानांतर नज़र आता है जबकि बाहर जाकर देखने पर वह दरअसल ऊपर बना है और बावली नीचे।
बावली के पानी में दिखता दरवाज़े पर खड़े व्यक्ति का प्रतिबिम्ब |
भूल-भुलैया तो इमामबाड़े में एक ही है लेकिन हम आपको बता दें कि यह बावड़ी भी भूल-भुलैया से कुछ कम नहीं हैं। यहां अच्छा खासा अंधेरा और ठंडक थी। इसमें भी गाइड को लेकर जाना ही अच्छा है। अंदर के तलों के झरोखों से बाहर का नज़ारा यहां से भी देखा जा सकता है। बावली इस कोण पर बनी है कि शाम को सूरज छिपने के वक्त और यहां तक की चन्द्रमा की रौशनी में भी दरवाज़े से गुजरने वाले व्यक्ति का प्रतिबिम्ब इस बावली के पानी में देखा जा सकता है। यह इतंज़ाम सुरक्षा की दृष्टि से किया गया था। यहां से पहरेदार इमामबाड़े में जाने वाले हर शख्स पर नज़र रखता था और अगर वो शख्स खतरनाक होता था तो ऊपर के तल पर तीरंदाज को सूचित कर दिया जाता था जो कि उसे तीर से मार गिराता था।
बावली की सबसे ऊपरी मंज़िल के अंदर का दृश्य |
बावली में पानी देखा जा सकता है |
गाइड ने हमें बताया कि शाही बावली से भी काफी सारी सुरंगे निकलती है जो अलग अलग राज्यों में जाती हैं। खज़ाने की कहानी सुनाते हुए गाइड ने हमें यह भी बताया कि जब अंग्रेज़ नवाब आसफ-उद्-दौला का खज़ाना लूटने आए तो उनके वफादार मुनीम खजाने की चाबी और नक्शा लेकर इसी बावली में कूद गए थे। इसके बाद अंग्रेज़ों ने अपने बहुत से सिपाही इस बावली में मुनीम या उनके शव को ढुंढने के लिए उतारे लेकिन कोई भी सिपाही वापस नही ंलौटा। वो खज़ाना इस इमामबाड़े या सुरंगों के जाल के बीच कहीं भी हो सकता है। उसका नक्शा और चाबी आज भी इसी बावली में दफ्न है।
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