लोग अछूतों की तरह व्यवहार करते हैं हमसे.. पानी पिलाना तो दूर तमीज़ से बात तक नहीं करते...

यह लोग मेरे घर आते हैं आपके यहां भी ज़रूर आते होंगे.. कभी कोई चिट्ठी लेकर, कभी रिश्तेदारों द्वारा भेजे गए उपहार लेकर तो कभी आपके द्वारा वेबसाइट या टीवी से मंगाए गए सामान को लेकर।
लेकिन कभी आपने इन पर गौर किया है। कितनी ही बार ऐसा हुआ होगा कि जब ये आप के घर की घंटी बजाते हैं तो आप झुंझला पड़ते हैं कि यहीं समय मिला था आने का... आप इन्हें हमेशा गेट के बाहर रखते हैं, कई बार तो आप इन पर अपना गुस्सा भी उतारते हैं... शायद ही हमारे मन में कभी खयाल आता होगा कि यह भी हमारे जैसे पढ़े लिखे इंसान है, इनकी भी इज़्जत है और प्यार और तमीज़ से बोला जाना इन्हें भी अच्छा लगता है....
आरामैक्स कूरियर कंपनी के फील्ड ऑफिसर कुलदीप 
हमने जब होम शॉप एट्टीन का सामान पहुंचाने वाले दो डिलीवरी बॉयज़ से बात की तब उनकी ज़िंदगी और हम लोगों द्वारा अनजाने या जान बूझ कर इनके अपमान किए जाने का आभास हुआ।

इनकी ज़िंदगी मोटरसाइकिल पर कटती है। होम शॉप एट्टीन का सामान कस्टमर तक पहुंचाने वाली कूरियर कंपनी आरामैक्स के फील्ड ऑफिसर या आम भाषा में कहें तो डिलीवरी बॉयज़ सुबह नौ बजे से कूरियर पहुंचाने का अपना काम शुरू कर देते हैं। कंपनी में लगभग 40 फील्ड ऑफिसर्स हैं और सभी दिल्ली के अलग-अलग इलाके कवर करते हैं। कुलदीप और इनके दोस्त देवेंदर पाल पूर्वी दिल्ली का इलाका कवर करते हैं।

जब हमने कुलदीप से पूछा कि आप की क्वालिफिकेशन क्या है तो उन्होंने बताया कि वो आर्ट्स में स्नातक हैं इनके दोस्त देवेंदर के पास भी स्नातक की डिग्री है लेकिन वो इस काम को करने के लिए मजबूर है क्योंकि उन्हें कोई और काम नहीं मिला। और अब इस काम को दिन में 11 से 12 घंटे और महीने के छब्बीस दिन करते हुए वो इतने व्यस्त रहते हैं कि दूसरी नौकरी ढूंढने का उनके पास समय ही नहीं है।

आरामैक्स कंपनी के ही देवेन्दर पाल
इस काम से आपकी कितनी आय हो जाती है... इस सवाल के जवाब में कुलदीप ने बताया कि उनका पैकेज साढ़े नौ हज़ार रुपए प्रति महीने का है जिसमें से 600 रुपए पीएफ के कट जाते है बाकी मैडिकल इंश्योरेंस वगैरह कट कर इनके हाथ हर महीने आठ से साढ़े आठ हज़ार रुपए आते हैं। कंपनी पेट्रोल का खर्चा रोज़ अलग से देती है।
इतने रूपए में खर्च चल जाता है आप लोगो का... जब हमने यह पूछा तो देवेन्दर ने कहा... खर्च चलने या चलाने की बात कहां है, घर तो चलाना ही है, चाहे हंसकर चलाएं या रोकर। पैसे इतने ही मिलते हैं, कोई और काम करने का समय नहीं है तो घर इनमें ही चलाते हैं जैसे भी चले....हम अगर एक भी दिन घर पर बैठ जाएं तो कंपनी पैसे काट लेती है। बीमारी हो या घर में कोई कैजुअल्टी हो, शादी हो या त्यौहार हो... इससे कंपनी को कोई फर्क नहीं पड़ता। हमें तो महीने की चार इतवारों की छुट्टी के अलावा हर रोज़ काम पर जाना ही है। ज़िंदगी मुश्किल है लेकिन क्या करें काम तो करना ही है।

आप अपने काम से संतुष्ट है...  जब हमने यह पूछा तो कुलदीप ने हंसते हुए कहा कि मैडम हमें तो असंतुष्ट होने का समय ही नहीं मिलता और ना अपना काम छोटा लगता है, रोटी तो इसी से खा रहे हैं। दिन भर मोटरसाइकिल पर घूम-घूम कर जितना मिलता है उसी में खुश रहने की कोशिश करते है लेकिन लोग हमें ज़रूर यह एहसास कराते रहते हैं कि हम बहुत छोटे लोग है और हमारी ज़िदंगी कीड़े मकौड़ो जैसी है....

आप ऐसा क्यों कह रहे हैं.. मैंने हैरानी से पूछा तो फिर से कुलदीप ही बोले....

"मैडम अब क्या बताएं, अपने काम से हमें इतनी परेशानी नहीं होती जितनी हमारे प्रति लोगों के रवैये से  होती है। जिनके घर हम सामान पहुंचाते हैं वो तो हमें इंसान समझते ही नहीं है। हम सुबह 9 बजे से ही डिलीवरी करने निकल जाते हैं। बारिश हो, धूप हो, पानी हो.. हमें तो अपना काम करना ही है लेकिन कई बार लोगों का व्यवहार हमारी तरफ इतना बुरा होता है कि मन खराब हो जाता है।"
 "कॉलोनी के ऊंचे-ऊंचे घर वाले लोग बहुत ही छोटे दिल वाले होते हैं। हम भी पढ़े लिखे हैं। लेकिन जब हम किसी के घर कुछ सामान पहुंचाने जाते हैं तो वो हमसे ऐसे अछूतो की तरह व्यवहार करते हैं कि क्या बताएं।"
 अपना अनुभव साझा करते हुए कुलदीप बोले कि एक बार तो मैं जून में यहीं कॉलोनी में तीसरी मंज़िल पर रह रही एक महिला के घर सामान पहुंचाने गया था। गर्मी बहुत थी वैसे तो हम लोग अपना पानी लेकर ही निकलते हैं लेकिन उस दिन पानी खत्म हो गया था तो मैंने उस महिला से कह दिया कि मैडम थोड़ा पानी पिला दीजिए। इस पर मैडम मुझसे बोलती हैं कि भैया आज हमारे यहां पानी आया नहीं था, इसलिए पानी है नहीं वरना पिला देते... और यह तो एक वाक्या है, जाने कितने ही लोग हमसे ऐसा ही व्यवहार करते हैं। खुद तो कभी पानी की खैर पूछते ही नहीं और अगर कभी हमने बहुत मजबूरी में पानी मांग लिया तो कभी अलग से रखी बोतल में लाकर दे देंगे.., कभी सादा पानी ले आएंगे, कभी मना कर देंगे, गिलास में तो कभी पिलाते ही नहीं जैसे कि हम अछूत हों।

अब तक चुप खड़े देवेंदर ने भी बताना शुरु किया..".कितनी ही बार बारिश आ रही होती हैं और हम सामान, देने जाते हैं तो भी लोग हमें बाहर ही खड़ा रखते हैं, लोगों को पैसे लाने होते हैं... 10-10, 15-15 मिनट में लोग पैसे लेकर आते हैं.. और तब तक बाहर शेड ना भी हो तब भी कोई यह तक नहीं कहता कि गेट के अन्दर आकर पोर्च में ही खड़े हो जाओ।"

"लोगों को पता होता है होम डिलीवरी पर आने वाला सामान खोलकर नहीं देख सकते, कंपनी पहले से ही रूल्स बता देती है लेकिन तब भी कई लोग तो इसी पर झगड़ा करते हैं। एक बार तो एक आदमी ने मेरे से बहुत ज़िद की कि सामान खोल कर देखने पर ही लूंगा। मैंने उनसे मना किया कि यह रूल्स के खिलाफ है तो वो मुझसे झगड़ा करने लगा, मुझे गाली तक दे डाली... और हम तो कुछ कह नहीं सकते क्योंकि कस्टमर तुरंत हैल्पलाइन पर शिकायत कर देते हैं। और कंपनी तो चूंकि कस्टमर से पैसे लेती है इसलिए कस्टमर उनके लिए भगवान है और हमारे जैसे लोगों की बेइज्जती होती भी रहे तो भी कंपनी मैनेजमेंट हमें यही कहकर चुप करा देता है कि यार तुम कुछ बोला मत करो.., या बहस नहीं करनी चाहिए थी.., या तुम्हारी गलती होगी वगैरह- वगैरह.."

 "मैडम हम भी पढ़े लिखे लोग है, भाग्य की बात है कि हम यह काम कर रहे हैं। बस लोगों के व्यवहार से दुख होता है। अगर हमें भी इंसान समझकर प्यार से और इज़्जत से बातें कर लेंगे तो उनका क्या घट जाएगा...."

कुलदीप द्वारा कहे गए इस आखिरी वाक्य ने मुझे भी अपने अंदर झांकने पर मजबूर कर दिया क्योंकि कई बार तो मैं भी कूरियर लेकर आने वाले लोगों पर झल्ला उठती हूं जब मैं टीवी देख रही होती हूं या अपना कोई काम कर रही होती हूं और अचानक से घंटी बजती है और मुझे उठकर जाना पड़ता है तो बड़ा गुस्सा आता है मुझे... खैर इन दोनों से बात करके मेरी भी आंखे खुली है और शायद मैं और मेरे जैसे इन दोनों की कहानी पढ़ने वाले लोगों की भी आंखे खुले और हम भविष्य में डिलीवरी बॉयज़ से इज़्जत से बात करें...




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